मिज़ाह और मिज़ाहनिगार की कहानी-मुज्तबा हुसैन की ज़ुबानी

उर्दू तंज़ो-मिज़ाह के अदब में सातवें दहे के इब्तेदाई दौर में एक ऐसा नाम उभरा, जिसने बहुत कम अरसे में पूरी उर्दू दुनिया में अपनी शिनाख़्त बनाई। तंज़ो-मिज़ाह को रिवायती अंदाज़ से बाहर निकाल कर ज़िन्दगी के तजुर्बों से जोड़ने वाले उस अदीब को दुनिया मुज्तबा हुसैन के नाम से जानती है। त़करीबन दो दर्जन किताबों को मुसन्निफ रहे मुज्तबा साहब पैदा तो गुलबर्गा ज़िले के चिंचोली में (15 जुलाई 1936) हुए, लेकिन उर्दू की तहरीरों पर उनका नाम बर्रे सग़ीर से निकल कर उर्दू की नयी बस्तियों तक जा पहुंचा और हिन्दुस्तान की हुकूमत ने उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा। अदब के कई अवार्ड उनके नाम हुए। रोज़नामा सियासत के बानी जाइंट एडिटर जनाब महबूब हुसैन जिगर और पाकिस्तान की सहाफत और उर्दू अफ़ासना निगारी में मुन्फरिद म़ुकाम हासिल करने वाले इब्राहीम जलीस और मुज्तबा हुसैन को उर्दू अदब के तीन भाई के तौर पर याद किया जाता रहेगा।

1968 में मुज्तबा साहब की पहली किताब `तकल्लुफ बरतरफ’ शाये हुई थी। उसके बाद` कतए कलाम, किस्साए मुख्तसर, बहर हाल, आदमी नामा, बिल-आखिर, जापान चलो-जापान चलो, अलग़रज़, सो है वो भी आदमी, चेहरा दर चेहरा, सफ़र, लख़्त-लख़्त, आखिरकार, मेरा कॉलम’ और दीगर किताबें शाये हो चुकी हैं। हिन्दी और असमिया ज़बानों में भी उनकी किताबों के तर्जुमे शाये हुए हैं। मुज्तबा साहब के साथ इन्टरव्यू के इक़्तेबासात उन्हीं की ज़ुबानी पेश हैं:- एफ. एम. सलीम

वो पुरआशोब दौर…
हमने जिस दौर में आँखें खोली वो बड़ा पुरआशोब दौर था। सियासी, समाजी और तहज़ीबी तब्दीलियों का दौर था। साब़िक रियासत हैदराबाद तेलंगाना कर्नाटक और महाराष्ट्र के इल़ाकों पर मुश्तमिल थी। शख़्सी हुकमरानी का दौर ख़त्म हो चुका था। मेरी उम्र उस वक़्त दस ग्यारह साल रही होगी। मुल्क की आज़ादी के साथ ही कई सारी तब्दीलियाँ रोनुमा हुईं। जम्हूरी दौर के आग़ाज़ के साथ ही सियासी उथल-पुथल होने लगी। नये दौर में कई सारे नये सानेहे पेश आये। फसादात का दौर शुरू हुआ। उन सब हालात से गुज़रना पड़ा। मेरे वालिद(मौलवी अहमद हुसैन) उस ज़माने में उस्मानाबाद में थे। ये इल़ाका फसादात में सब से ज्यादा मुतासिर हुआ। घर-बार लुट गया था हमारा। मैं गुलबर्गा में ज़ेरे तालीम था। संगीन दौर से गुज़रते हुए हालात का म़ुकाबला किया। उन हालात से निकलने के लिए काफी वक़्त लगा।

1950 में मैं तांडूर के हाईस्कूल में था। वहाँ से मैट्रिक कामियाब करने के बाद तालीम मुतासिर हुई। फिर गुलबर्गा के कॉलेज में दाखला लिया।
उस वक्त मराठवाड़ा, तेलंगाना और कर्नाटक के इल़ाकों में तीन कॉलेज थे। वहाँ से 1953 में हैदराबाद आकर आर्ट्स कॉलेज में दाख़ला लिया। उर्दू से अंग्रेज़ी मीडियम में तब्दीली हुई।

लिखने का श़ौक तो पहले ही से था। स्कूल और कॉलेज में भी कई तहरीरी म़ुकाबलों और ड्रामों में हिस्सा लिया था।
मज़मून-नवीसी के साथ-साथ तहज़ीबी सरगर्मियाँ बहुत हुआ करती थीं। गुलबर्गा में ख़्वाजा अहमद अब्बास का ड्रामा ‘ये अमृत है’ में मज़ूदर का कल्लीदी रोल था, जिसे मैंने अदा किया था। उसके लिए इनाम भी मिला था।

हैदराबाद में..
बज़्मे उर्दू का सेक्रेटरी था। उन्हीं दिनों कम्यूनिस्ट तहरीक ज़ोरों पर थीं। मख्दूम मुहियुद्दीन उन्हीं दिनों जेल से छूटे थे। वो हमारे आइडियल थे। बहैसियत शायर और रहनुमा के तौर पर मैं उनसे ज़्यादा मुतासिर था। साठ के दहे के इब्तेदाई दिनों की बात है। हैदराबाद में उर्दू का चलन ख़ूब था। एक जानिब जहाँ सुलैमान अरीब, शाहेद सिद्द़ीकी थे, वहीं नयी नस्ल में शाज़ तमकनत, वहीद अख़्तर और अज़ीज़ क़ैसी थे। फाइन आर्ट्स एकेडमी की सरगर्मियाँ शुरू हो गयीं थीं। मेरी सारी ज़िन्दगी बनाने में सियासत का बड़ा हाथ रहा। रस्मी ग़ैर रस्मी ताल्ल़ुक सियासत से हमेशा रहा। बड़े भाई महबूब हुसैन जिगर साहब सियासत में थे। इसलिए शुरू ही से सियासत के लिए कुछ न कुछ लिखता रहा, लेकिन 1958 में बाज़ाब्ता सब एडिटर के तौर पर काम शुरू किया। उन दिनों मैं इन्त़ेकाब प्रेस का मेनेजर भी था।

मिज़ाह ने मुझे चुना ….
मैंने तंजो-मिज़ाह को नहीं, बल्कि तंजो-मिज़ाह ने मुझे चुना है। इत्तेफ़ाक ही कहिये कि मैंने तंजो-मिज़ाह को अपनाया। हुआ 12 अगस्त 1962 का दिन मुझे अभी तक याद है। उन दिनों शाहिद सिद्द़ीकी मिज़ाहिया कॉलम `शीशा व तीशा’ लिखा करते थे। जुलाई में उनके इन्त़ेकाल के बाद यह कॉलम कुछ लोगों से लिखवाया गया, लेकिन बात नहीं बनी। 12 अगस्त के दिन जैसे मैं सियासत के दप़्तर पहुंचा, बड़े भाई जिगर साहब और आबिद अली ख़ान साहब ने मुझे बुलाया और तजवीज रखी कि `शीशा व तीशा’ कॉलम मैं लिखूं। सुबह 10 बजकर 30 मिनट पर कॉलम निगारी शुरू की और दोपहर 2 बजे पहले कॉलम को पूरा किया। उस वक्त तो बस ऐसे ही लिखा था। काम चलाने के लिए। `कोह पैमा’ क़लमी नाम के साथ। आठ दस दिन के बाद लोग पूछने लगे कि ये कॉलम कौन लिख रहा है। इसमें ताज़गी है, दिलचस्प और मज़ेदार भी है। उस तारीफ से हौसला अफ़ज़ाई हुई और फिर लिखने का सिलसिला चल निकला। पहले यह रोज़ाना का कॉलम था और बाद में हप़्ते में दो दिन रहा। त़करीबन 15 साल तक ये सिलसिला चलता रहा। जब मैं दिल्ली गया तो फिर इसमें कुछ कमी आयी।

जो चीज़ महज़ इत्तेफ़ाकन शुरू हुई थी, वही बाद में ज़िन्दगी की मंजिल बन गयी और म़कसदे हयात भी। 50 साल के अदबी सफ़र में मेरी वाहिद शिनाख़्त मिज़ाहनिगारी की है। तंज़ो-मिज़ाह निगारी के मैदान में मुझे जो म़ुकाम मिला, जैसा भी मिला वो उसी शुरूआत की वज्ह से।
उन दिनों बड़े अ़खबारात में ख़ुसूसन पाकिस्तान में मिज़ाहिया कॉलम शाये होते थे। इब्ने इन्शा, इब्राहीम जलीस, अहमद नदीम क़ासमी, शौकत थानवी और यूसुफ नदीम लिखा करते थे।

इधर हिन्दुस्तान में फिक्र तौन्सवी, अहमद जमाल पाशा, हयातुल्लाह अन्सारी थे। मैंने उन सब को पढ़ा। बल्कि अंग्रेज़ी मिज़ाह के अदीब मार्टविंट, पी जी उड हाउस वग़ैरा को भी तालिबे इल्म की तरह पढ़ा। उर्दू के सीनियर अदीब रशीद अहमद सिद्द़ीकी, पतरस ब़ुखारी, शफ़ीकुर्रहमान कन्हैयालाल कपूर, कृष्णचंदर वग़ैरा को ख़ूब पढ़ा।

1976 तक कॉलम लिखता रहा। अदबी त़करीबों की रिपोर्ट , ख़ाके, सफरनामे और किताबों के रिव्यू सियासत में छपते रहे। जापान, बरतानिया, सोवियत यूनियन, साब़िक रूस, ख़लीजी मुमालिक के सफरनामों का सिलसिला जारी रहा।

मिज़ाह न लिखता तो अफ़साना निगार होता …
सवाल है कि अगर मैं मिज़ाहनिगार न होता तो भला क्या होता? य़कीनन अफ़साना निगार होता। मैंने पहले भी कई तरह के अफ़साने और कहानियाँ लिखीं, लेकिन जब मिज़ाह लिखना शुरू किया तो इसी का हो रहा। इसी से मेरी शिनाख़्त बनी ओर ज़िन्दगी के तयीं रवैया भी बदल गया। नज़र उधर ही जाती, जिधर, जिस चीज़ से मिज़ाह पैदा होता।

दिल्ली मेरी जान …
दिल्ली एक बड़ा मर्कज़ है। अदबी, समाजी, तहज़ीबी कई तरह की सरगर्मियाँ जारी रहती हैं। दिल्ली का किसी और शहर से त़काबुल नहीं किया जा सकता। उर्दू की कई अज़ीम शख्सियतें यहाँ रहीं। आज भी वह रंगीनियाँ दिल्ली में बऱकरार हैं। म़ुख्तलिफ ज़बानों के अदीब एक दूसरे से मिलते हैं। न सिर्फ अदीब, बल्कि फ़नकार, मुजसम्मा साज़, मुसव्विर, मूस़ीकार सारे अहम लोग एक जगह जमा हो जाते हैं। मैंने दिल्ली में अपनी तहज़ीबी और समाजी ज़िन्दगी को फआल बनाए रखा। हैदराबाद से अदब का जो सफ़र शुरू हुआ था, दिल्ली में इसको बड़ा कैन्वेस मिला। मेरे अदबी सफर को फरोग़ देने में दिल्ली का बड़ा हाथ है। यूँ कहूँ की मेरी मुकम्मिल शख़्सियत में सियासत और दिल्ली दो अहम सुतून हैं।
दूसरे मुमालिक जाने के कई म़ौके दिल्ली की वज्ह से मिले। अमरीका, जापान, बरतानिया और दीगर मुल्कों की सैर यहीं से की। आदमी में ज़रा सी सलाहियत हो तो दिल्ली के समाजी और तहज़ीबी माहौल में बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है।

`मेरा कॉलम’ और ज़हीरुद्दीन अली ख़ान …
एक बार जिगर साहब दिल्ली आये थे। उनके साथ ज़हीरुद्दीन अली ख़ान भी थे। उन्हेंने तजवीज़ रखी कि एक अलग कॉलम शुरू हो। उस वक़्त तक मिज़ाहनिगारी में मेरी शिनाख़्त क़ायम हो चुकी थी। जापान, बरतानिया, सौवियत यूनियन और ख़लीजी मुमालिक के सफ़रनामे लोग पढ़ चुके थे। ज़हीरुद्दीन अली ख़ान की तजवीज़ पर मैंने कहा कि ये सिर्फ़ मिज़ाहिया कॉलम नहीं होगा, बल्कि ज़िन्दगी के तजुर्बे होंगे। इसलिए इसका नाम `मेरा कॉलम’ होना चाहिए। संजीदा बातें भी कर सकूं। खुश्वंत सिंह और दीगर लोग इस तरह के कॉलम उन दिनों लिख रहे थे। फिर कॉलम शुरू हुआ तो लोगों ने उसे हाथों हाथ लिया। इसका सेहरा य़कीनन ज़हीरुद्दीन अली ख़ान को जाना चाहिए।

तवानाई नहीं रही नई नस्ल की क़लम में …
मैंने जब लिखना शुरू किया था तो कई सारी हस्तियाँ मौजूद थीं, लेकिन हमारे आते आते उनमें से कई श़ाख्सियतें चल बसीं। बहुत सारे नाम हैं। रशीद अहमद सिद्द़ीकी से लेकर यूसुफ नाज़िम तक..बाद में पलटकर देखता हूँ तो नयी नस्ल में बहुत कम नाम दिखाई देते हैं। ख़ुसूसन मिज़ाह में नयी क़लम में वो तवानाई नहीं रही, जिससे क़ारी को मुतासिर किया जा सके।

नौजवानों में बहुत कम दिनों में शोहरत हासिल करने की ख़्वाहिश होती है, जबकि लगातार मुसलसिल लिखते रहने की जानिब भी उनकी तवज्जो नहीं रहती। मिज़ाह के मैदान में मसीह अंजुम और दिलीप सिंह नुमाया नाम हैं, लेकिन बद किस्मती से वे लंबी उम्र तक उर्दू की खिदमत नहीं कर सके। कुछ बदलता दौर भी इसकी वज्ह रहा। समाजी मआशेरे में भी तबदीली आयी। सनअती तऱकी और मसाब़िकतों ने कई सलाहितों को अपनी दौड़ में मशग़ूल रखा।

मैंने 6 साल की उम्र में पहली बार बऱकी का बल्ब देखा था। आज दुनिया किधर से किधर हो गयी। ये तबदीली हैरतनाक है। मआशेरे में ख़ुदग़र्ज़ी बहुत ज्यादा हो गयी है। हर आदमी अपने फायदे की दौड़ में लगा हुआ है। ऐसी दौड़ में क़दरें पीछे रह जाती हैं। आज असल चीज़ मआशी कामियाबी और माद्दी फायदा है। इख़ल़ाकी और तहज़ीबी त़काज़े पीछे चले गये हैं।

इस दौर की संगीनी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि तरक्क़ी को बावजूद आदमी को मायूसी का एहसास हमेशा तंग करता है। जबकि लिखने के लिए फुरसत, फ़राग़त, जल्सों, महफिलों, मजलिसों का माहौल चाहिए। उस दौर की इन्हीं सरगर्मियों ने कई अदीब पैदा किये, लेकिन आज सारी ज़िन्दगी दौड़ की शिकार है। अदब, आर्ट, मूस़ीकी और दीगर फ़ुनून की जानिब लोगों की तवज्जे कम है। अदब का वो माहौल ज़वाल पज़ीर है।

गुजराल कमिटी …
गुजराल कमिटी ने उस वक़्त उर्दू की सूरते हाल का जाएज़ा लेने में ख़ूब मेहनत की थी। चार साल के बाद रिपोर्ट तैयार की गयी। कमिटी के अरकान ने हिन्दुस्तान भर के दौरे किये।
इन्द्र कुमार गुजराल, सज्जाद ज़हीर, कृष्णचंदर, प्रो. एहतेशाम हुसैन, मालिक राम और आबिद अली ख़ान कमिटी में शमिल थे, लेकिन जितनी मेहनत मेहनत से रिपोर्ट बनाई गयी थी, हुकूमन ने उनकी सिफारिशात पर जिस तरह अमल किया जाना चाहिए था। अमल नहीं किया।

याद आते हैं वो लोग …
हमने जिन लोगों को देखा था, जोश, फिऱाक, जिगर मुरादाबादी, ऐसे लोग थे कि याद आते रहे। जिगर साहब के साथ एक यादगार वाकिया रहा। उन दिनों मैं जामिया उस्मानिया का तालिबे इल्म था। बज्मे उर्दू का जनरल सेक्रेटरी था। पता चता कि जिगर साहब हैदराबाद आये हैं तो, हमने उन्हेंने आर्ट्स कॉलेज में एक मुशायरे की तजवीज़ रखी। जिगर साहब ने इसके लिए हामी भी भरी। उन दिनों वे ब्राजील आप्टिकल वालों के घर (तुरुप बाज़ार) में रुकते थे। अल्लामा हैरत बदायूनी से उनके अच्छे ताल्ल़ुकात थे। उन्होंने ही जिगर साहब को मुशायरे के लिए राज़ी कर लिया, लेकिन हमसे ग़लती ये हुई कि उन्हें वक़्त और ताऱीख नहीं बतायी। दूसरी जानिब आर्ट्स कॉलेज में तैयारियाँ ज़ोरो शोर से शुरू हो गयीं। शहर के कई कॉलेजों के तुलबा जमा होने लगे। जब मैं टैक्सी लेकर जिगर साहब को लेने तुरुप बाज़ार पहुंचा तो वो ऑप्टिकल पर ताश खेल रहे थे। उनसे मुशायरे में चलने के लिए कहा तो बड़े नाराज़ हुए और कहने लगे कि मैंने हाँ तो की थी, लेकिन वक़्त और ताऱीख आपने नहीं बतायी। अब नहीं आ सकता। ..मैं मुश्किल में फंस गया था। वहाँ लोग जमा हो गये थे। शर्मिंदगी की नौबत आ गयी थी। वही टैक्सी में मैं वापिस हो गया। आर्ट्स कॉलेज से कुछ दूर रुककर हिकमते-अमली सोचने लगा कि तुलबा को क्या कहा जाए। इसी बीच बाज़ू से गुज़र रही टैक्सी में जिगर साहब का हुलिया नज़र आया। उनके पीछे जाकर टैक्सी के पास खड़ा रहा। उन्होंने मुझे देखा और कहा, `मैं तुमसे बात नहीं करूँगा। मैं तुम्हारे बुलाने पर नहीं, बल्कि अपने तौर पर आया हूँ।’
उस दिन उन्होंने वहाँ इतने शेर सुनाए कि मुशाएरा यादगार रहा। उन्होंने मुआवज़ा भी नहीं लिया। टैक्सी का किराया भी खुद ही दिया, लेकिन मुझे अपनी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत पर बहुत शर्मिंदगी हुई। उस दिन से आज तक चाहे कोई भी त़करीब हो। किसी को बुलाते वक़्त जिगर साहब की याद आती हैं और ऐसे म़ौकों पर कोई भी काम 10 बार सोच समझ कर किया करता हूँ। मेहमान को याद दिलाता रहता हूं।

ज़िन्दा दिलाने हैदराबाद …
रियासत में हुकूमत की तबदीली और पुलिस एक्शन का दौर दमब़खुद करने वाला था। शुरू के 10 साल तो हैरानी और परेशनी के थे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता हैदराबादियों ने सोचा कि अब कुछ हंसना चाहिए। मायूसी को दूर करने के लिए कुछ ख़ुशी के लम्हों की ज़रूरत है। हैदराबाद के कुछ मनचलों ने उस मायूसी के दौर में हंसी का माहौल बनाने का काम किया। हिमायतुल्लाह, अली साहब मियाँ, सरवर डंडा, सुलैमान ख़तीब, मुसाफिर नलगोंडवी, मिर्जा शुकूर बेग जैसे अफ़राद ने महफिलों, मुशायरों की सरगर्मियाँ शुरू कीं। फाईन आर्ट्स अकादमी में अदबी सेक्शन का कियाम किया। मिज़ाहिया मुशायरे बड़े कामियाब रहे। अदीबों ने मिज़हिया ख़ाके तैयार किये। 1966 में तंजो मिज़ाह निगारों की आल इंडिया कफ्रेंस हुई। हिन्दुस्तान भर से 27 मिज़ाहनिगारों को बुलाया गया। कृष्णचंदर की सदारत में त़करीब हुई। म़कदूम मुहियुद्दीन ने उसका इप्तेताह किया। मुशाएरा भी हुआ, जिसकी सदारत दिलावर फिग़ार ने की। उन्होंने उस मुशाएरे में जो मन्ज़ूम खुत्बा दिया था सारे बर्रे सग़ीर में उसकी धूम मची थी। सामयीन हज़ारों की तादाद में जमा थे।
ज़िन्दा दिलाने हैदराबाद की इस तहज़ीब में मुस्तफा कमाल के रिसाले `शुगूफ़ा’ की इशायत काफी अहमियत की रही। आज भी यह रिसाला शाए हो रहा है। इन सब सरगर्मियों ने हैदराबाद को मिज़ाह की राजधानी बना दिया। हालांकि अब नये लोग इसको संभालने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं।

जब रेलवे के वज़ीर बने मिज़ाह का निशाना ….
सरकारी मुलाज़िमत में रहते हुए तंज की शिद्दत से थोड़ा बचना पड़ता है, लेकिन अदीब का रवैया नहीं बदलता। मैंने मुलाज़िमत में रहते हुए रेलवे के वज़ीर पर एक मज़मून लिखा था। `रेलमंत्री मुसाफिर बन गये’ बहुत वावेला मचा था, मामला अदालत तक पहुंचा। इत्तेफ़ाक ये देखिये कि जिस महफिल में ये मज़मून सुनाया था, उसमें रेलमंत्री खुद मौजूद थे। उन्हेंने कहा कि आम आदमी के मसायल को वज़ीर के किरदार में पेश किया गया है, इसमें कोई ग़लत बात नहीं है। हत्ता की उन्होंने ख़ुद अदालत के म़ुकद्दमे को रुकवा दिया।

मिज़ाह से पहले ही किरदार मुज़ाहेक़ाखेज़ बन गये …
अब मिज़ाह लिखना ज़रा मुश्किल हो गया है। पहले अदीब अपने किरदारों से मज़ाक में जो काम करवाते थे, अब वो किरदार अपनी असली ज़िंदगी में उससे ख़राब काम करने लगे हैं। जैसे बड़े-बड़े वज़ीर ख़ुद घपलों और घोटालों में शामिल हो गये हैं। अब मिज़ाह के लिए नये पैमाने तलाश करने होंगे।

मुस्त़कबिल की दुनिया ….
मआशेरा इतना पेचीदा हो गया है कि किसी तरह की पेशनगोई करना मुश्किल है। अफ़रातफ़री का दौर है। बदउनवानियाँ डकैतियाँ, करप्शन…इन सब के बीच सोचें तो क्या सोचें। …