मीडिया शमी पत्नी पर कमेंट करने वाले पर खबर बना देती है लेकिन नजीब की मां पर खामोश रहती है

‘मीडिया को हमेशा विपक्ष होना चाहिये’ महज एक लाईन में पत्रकारिता की दिशा निर्धारित कर देने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी अगर आज होते तो अपनी ही लाईन पर या तो अफसोस जता रहे होते या फिर उसी पर कायम रहकर देशद्रोही, देशविरोधी, जैसे जुमले सुन रहे होते।

मीडिया ने गणेश शंकर विद्यार्थी की सूक्ती को हाशिये पर डालकर खुद के लिये जो परिभाषाऐं गढ़ीं हैं उनमे सत्ता की चाटुकारिता ही पत्रकारिता होकर रह गई है। सप्ताह भर में देश में माडिया की घटनाक्रम पर नजर डालें तो तस्वीर स्पष्ट हो जाती है कि मीडिया बिलावजह की बातों को तो ‘मुद्दा’ बनाता है लेकिन मुद्दे की बात पर कन्नी काट जाता है।

पाकिस्तान में अलप्संख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव को प्रमुखता से चलाने वाला मीडिया देश में अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव पर कन्नी काट जाता है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के एक छात्र मोहम्मद असद को दाढ़ी रखने के कारण कॉलेज से निकाल दिया गया था मगर मीडिया इस पर खामोश रहा, दरअस्ल मीडिया के लिये यह मुद्दा ही नहीं था।

मीडिया ने एक नया मुद्दा तलाश किया और वह था क्रिकेटर मोहम्मद शमी, गौरतलब है कि शमी ने फेसबुक अपनी पत्नि के साथ एक फोटो पोस्ट की थी, जिसमें शमी की पत्नि के पहनावे को लेकर फेसबुक पर कुछ लोगो ने आपत्ती जताई थी, मीडिया ने इसे तुरंत कैश किया, उसे लगता था कि इस ‘ट्रोल’ के सहारे वह भारतीय मुसलमानों को दकियानूसी, कूपंडूक, पिछड़ा साबित कर देगा। इस ट्रोल में एक तरफ कुछ मुस्लिम युवा थे जिन्हें शमी की पत्नि के पहनावे से ऐतराज था तो दूसरी ओर वह गिरोह था जिसने ‘तैमूर’ के नाम पर सोशल मीडिया को पौत डाला था।

दरअस्ल मीडिया अब मदारी बन चुका है जो आमजन को ‘जमूरा’ को बनाकर अपनी डुगडुगी पर नचा रहा है। मीडिया को फेसबुक पर होने वाला शमी की तस्वीरो का विरोध तो नजर आ गया मगर उसी मीडिया को वह मां नजर नहीं आई जिसका बेटा नजीब पिछले ढ़ाई महीने से दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय से लापता है, मीडिया को यह भी नजर नहीं आया कि जिन एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने नजीब के साथ मार पीट की थी, उनसे न तो कोई पूछताछ की गई है और न ही उन्हें हिरासत में लिया गया है। नजर आया तो सिर्फ मोहम्मद शमी।

भारतीय मुसलमानो के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि वह मुख्यधारा की मीडिया में सिर्फ उस वक्त जगह बनाते हैं जब वह किसी अपराधिक कार्य में संलिप्त हों, मसलन या तो उन्होंने ‘मालदा’ किया हो या फिर ‘आजाद मैदान’ में उत्पान मचाया हो। इसके अलावा वह जब भी समाजिक न्याय के लिये खड़े होते हैं तो उनकी आवाज को मीडिया दिखाता ही नहीं। 31 दिसंबर को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र नजीब के लिये प्रदर्शन कर रहे थे जिन पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने लाठी चार्च कर दिया जिसमें पचास छात्र घायल हो गये, मीडिया परंपरानुसार इस पर भी खामोश रहा, जरा सोचिये अगर यही घटना उल्टी हो गई होती ?

अगर घायल होने वाले पचास छात्रो में पांच पुलिसकर्मी भी शामिल होते तब ? तब भी क्या मीडिया ऐसे ही गूंगे का गुड़ खाकर बैठ जाता जैसा अब बैठा रहा ? सुप्रिम कोर्ट ने धर्म पर के नाम पर वोट मांगने को गलत ठहराया है तब से टीवी चेनल वाले असद औवेसी को बार – बार दिखा रहे हैं, आखिर साबित क्या करना चाहते हैं ? यही कि धर्म के नाम पर सिर्फ औवेसी ही वोट मांगते हैं, और योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, उमा भारती क्या इन लोगों कभी धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे ? अगर नहीं मांगे तो फिर आये दिन अखबारों में शाय होने वाले इनके विवादित बयानों का क्या अर्थ है ?

भाजपा के अनुषांगिक संगठन आरएसएस की धर्म और राजनीति में क्या भूमिका है इस कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है। बल्कि औवेसी का चेहरा दिखाकर साबित किया जा रहा है कि सिर्फ औवेसी ही ऐसे अकेला नेता हैं जिन्होंने धर्म के नाम पर वोट मांगे हैं। मीडिया को जिन मुद्दों पर बात करनी चाहिये उन पर बात ही नहीं हो पाती, बल्कि मीडिया किसी शातिर राजनेता की तरह फिजूल का मुद्दा जनता में उछाल देता है।

झारखंड में  ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (ईसीएल) की ललमटिया कोयला खदान ढहने से 16 लोगों की जान चली गई क्या इस तरफ किसी भी मीडिया संस्थान का ध्यान गया ? क्या इसलिये क्योंकि मरने वाले मजदूर थे ? और मजदूर प्राईम टाईम डिबेट का हिस्सा जीते जी नहीं बन पाते, मरने पर तो क्या बनते ? खैर इतना तो तय है कि मीडिया की संवेदनाऐं मजदूरों की मौत पर बदल जाती हैं। अब दूसरी तरफ रुख करके देखिये उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने खाट सभा की थी, सभा के बाद जिन खाटों पर सभा हुई थी उन्हें रैली में आये लोग उठाकर ले गये, टीवी की स्क्रीन पर हफ्तो यही चर्चा रही, तरह – तरह के स्लग, कांग्रेस की खाट खड़ी, कांग्रेस की खाट लूट ली, ऐसे ऐसे स्लग के साथ टीवी का एंकर खबर पढ़ता रहा, और घंटों के पैकेज चलते रहे।

बीते रविवार को झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास पर झारखंड के ही खरसवां में जूते चप्पल बरसा दिये गये मगर टीवी और अखबारों से यह खबर पूरी तरह गायब है। जिन टीवी चैनलों ने कांग्रेस की हफ्तों तक कांग्रेस की खाट खड़ी रखी थी वह जूते चप्पलों की बारिश पर इस तरह मौन हो जायेंगे ऐसा तो सोचा ही नहीं था। यह कौनसा डर था जिसने भाजपा शासित झारखंड के मुख्यमंत्री की खबर को चलने नहीं दिया ?

क्या टीवी चैनलों/ अखबारो ने डर की वजह से इस खबर को नहीं चलाया या घटना राम राज्य की थी इसलिये इस पर पर्दा डाल दिया गया। मुख्यमंत्री पर जूते चप्पल फेंकने की घटना अगर किसी ऐसे राज्य में हो गई होती जहां पर भाजपा की सरकार नहीं है तब भी क्या इस खबर गुमनामी में दबा दिया जाता ? क्यों न टीवी चेनल भी राजनीतिक पार्टियों की तरह अपने कार्यालयों और माईक पर राजनीतिक पार्टियों के झंडे टांग लें ताकि जनता को समझने में आसानी रहे कि फलां चेनल किस पार्टी का है ? कौनसा चेनल सत्ता का गुणगान करेगा और कौनसा विपक्ष की डुगडुगी बजायेगा।

लेखक – मुस्लिम टूडे मैग्जीन के सहसंपादक हैं।