मीर तक़ी “मीर”

मीर तक़ी “मीर” (1722 -1810 ) शहंशाहे ग़ज़ल और ख़ुदा-ए-सुखन के अलकाब से मशहूर मीर तकी “मीर” उर्दू और फारसी के अज़ीम शायर थे। अहमद शाह अब्दाली और नदिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा और वो खून से रंगे हुए मंज़र शायरी के हवाले किये। अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह उन्होने कहा था-

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

उनकी एक ग़ज़ल यहाँ पेश है :-

उलटी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारि-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अह्दे-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये, तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करे हैं, हमको अबस बदनाम किया

सारे रिन्द औबाश जहाँ के, तुझसे सुजूद में रहते हैं
बांके, तेढ़े, तिरछे, तीखे सब का तुझको इमाम किया

सरज़द हमसे बेअदबी तो, वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उसकी ओर गए पर, सजदा हर-हर गाम किया

किसका काबा, कैसा क़िबला, कौन हरम है क्या एहराम
कूचे के उसके बाशिन्दों ने, सबको यहीं से सलाम किया

याँ के सुपैदो-सियाह में हमको, दख़्ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया या दिन को जूं-तूं शाम किया

सुबह चमन में उसको कहीं, तकलीफ़े-हवा ले आई थी
रुख़ से गुल को मोल लिया, क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया

साइदे-सीमी दोनो उसके, हाथ में लाकर छोड़ दिये
भूले उसके क़ौलो-क़सम पर, हाय ख़्याले-ख़ाम किया

कठिन शब्दों के अर्थ
तदबीरें —–उपाय, तरकीबें, जतन
अहदे-जवानी—-जवानी के दिन
पीरी—–बुढ़ापा, तोहमत—-इल्ज़ाम
मुख़्तारी—- स्वाधीनता
सुजूद —–सजदे, इमाम—–लीडर
बेअदबी——असभ्यता, वहशत—-पागलपन
गाम—- क़दम, सुपेदो-सियाह—–सफ़ेद और काले
रुख़ —मुख, चेहरा, क़ामत—-क़द, शरीर की लम्बाई
सर्व—–अशोक के पौदे के समान एक पौदा
साइदे-सीमीं—-चांदी जैसे बाज़ू, ख़्याले-ख़ाम–भ्रम