मीर फ़ज़ल अली ख़ां बहादुर सालिस का महल अपने वुजूद को बाकी रखने का मुंतज़िर

नुमाइंदा ख़ुसूसी- यूं तो पूरा हिंदूस्तान क़दीम(पुरानी) और तारीख़ी आसार से भरा हुआ है । हिंदूस्तान के कोने कोने में आलीशान , पुरसुकून और शाहकार-ओ-शानदार क़दीम(पुरानी) तरीन इमारतें नज़र आती हैं जिन की वजह से हिंदूस्तान तमाम दुनिया के सय्याहों (टूरिस्टों ) की तवज्जा का मर्कज़ बना हुआ है । लेकिन ना सिर्फ हिंदूस्तान बल्कि पूरे बर्र-ए-सग़ीर में तारीख़ी आसार-ओ-इमारात के लिहाज़ से दक्कन को जो मुक़ाम इम्तियाज़ हासिल है शायद ही किसी और को हासिल हो ,

ये ख़ित्ता क़दीम (पुरानी) और तारीख़ी इमारतों , मसाजिद , मनादिर , गिरजाघर , पुरशिकवा क़िला और ख़ूबसूरत-ओ-दिल फ़रेब क़ुदरती मुनाज़िर से लबरेज़ है लेकिन नसल नो किसी अपने ताबनाक माज़ी से ग़फ़लत कहिये या बुज़ुर्गान क़ौम की अपनी फ़र्ज़शनासी में कोताही , जिस के सबब आज एक बड़ा तबक़ा दक्कन के आसार से ना आश्ना है चुनांचे आज हम आप के सामने एक एसे बादशाही महल से नक़ाब उठाने जा रहे हैं जो तवील अर्से से गुमनामी में रहा है और हुनूज़(अ भी तक) अपने वजूद के लिये और अपने हुस्न की बक़ा के लिये मुज़ाहमत कर रहा है । ये महल नवाब मीर फ़ज़ल अली ख़ां बहादुर सालिस का गरमाई महल है जो कुरनूल से तक़रीबा 80 किलो मीटर के फ़ासले पर बंगाणा पल्ली मौज़ा के एक पहाड़ी पर वाक़ै है ।

इस में नवाब साहब रहा करते थे । ये इमारत गोल है और इंतिहाई ख़ूबसूरत , आलीशान और फ़न तामीर का शाहकार बंगला है । इस की खासियत ये है कि मुक़ामी पत्थरों से ही ये इतना हसीन-ओ-जमील और मुतास्सिर कुन महल तामीर किया गया है ये वीरान आबादी से दूर एक ऊंची पहाड़ी पर वाक़ै है । इस महल की अंदरूनी हालत मालूम नहीं क्यों कि ये ज़ाइरीन के लिये खोला नहीं जाता । अलबत्ता इस का बैरूनी मंज़र आज भी पुरशिकवा है । ज़ेर नज़र तस्वीर से वाज़ेह है कि तर्ज़ तामीर और ख़ूबसूरती में ये अपनी नौइयत (किसम) का मुनफ़रिद महल है । इस की कोई नज़ीर नहीं है । इस महल के आस पास का माहौल , आब-ओ-हआ और फ़िज़ा इंतिहाई ख़ुशगवार और पुर सुकून है ।

इस लिये नवाब ने इस जगह को महल की तामीर के लिये इंतिख़ाब किया था । ये क़िला और महल एक लंबे ज़माने से तबाही-ओ-बर्बादी से मुक़ाबला करते हुए आज भी अपनी पूरी शान-ओ-शौकत के साथ खड़ा है । इस क़िला का दिलफरेब मंज़र और इस की सहेर अनगेज़ी देखने से ताल्लुक़ रखती है । ये भी एक बहतरीन तफ़रीह का मुक़ाम है जो क़ुदरती मनाज़िर से भरपूर है । जैसा कि सुतूर बाला से मालूम होचुका है कि ये महल नवाब मीर फ़ज़ल अली ख़ां बहादुर सालिस ने तामीर करवाया था जो बंगाणा पल्ली रियासतके 1730 के आस पास हुकमरान थे और ये बादशाह औरंगज़ेब के वज़ीर नवाब ख़ान बहादुर के फ़र्ज़ंद थे ।

नवाब फ़ज़ल अली ख़ां की पैदाइश 11 दिसंबर 1749 में हुई और वफ़ात 7 अप्रैल 1769 में हुई । ये 1758 और 1769 के दरमियान बंगाणा पल्ली के नवाब थे । लेकिन उन के इक़तिदार(हुकूमत) को 1765 मैं इस्तिहकाम मिला । उन के सरकारी ख़ताबात हसब ज़ैल थे । क़ुम क़ुम अलदौला , नवाब फ़ज़ल अली ख़ां बहादुर सालिस , शमशीर जंग , जागीरदार, ये 1758 में अपने दादा नवाब फ़ैज़ अली ख़ां बहादुर के जानशीन बने और उन्हों ने 1758 और 1767 के दरमियान अपने चचा मुहम्मद बेग ख़ान लंगर की ज़ेर सरपरस्ती हुकूमत की और 1705 मैं हैदराबाद के निज़ाम की तरफ़ से भी वो सरकारी ओहदे पर फ़ाइज़ रहे ।

11 फरवरी 176 में निज़ाम की तरफ़ से उन्हें ख़ान बहादुर का लक़ब दिया गया । इसी तरह क़ुम क़ुम अलदौला और शमशीर जंग का भी ख़िताब उन्हें निज़ाम की तरफ़ से मिला ये 7 अप्रैल 1769 को चेचक की बीमारी की वजह से इंतिक़ाल कर गए । उन के बाद उन के भतीजे सय्यद हुसैन अली ख़ान बहादुर उन के जानशीन मुंतख़ब हुए । ये तारीख़ी अहमियत और क़ौमी विरसा का हामिल महल आज एक सुनसान इलाक़े में वाक़ै है । और महल के अंदरूनी हिस्सा का क्या हाल है किसी को इलम नहीं । जब कि महिकमा आरक्योलोजी और महिकमा सेयाहत की ज़िम्मेदारी होती है कि इस इमारतों को अपने तहत लेकर उन को हर तरह से तहफ़्फ़ुज़ फ़राहम करे और इमारत की ख़ूबसूरती और मज़बूती दोनों को बहाल रखने की हर मुम्किना कोशिश करे ।

इस महिकमा की लापरवाही का आलम ये है कि एक लंबे अर्से से ये महल नज़रों से ओझल था । 2009 में बनी एक तेलगो फ़िल्म के ज़रीया ये मंज़रे आम पर आया और लोग जान सके कि इस नाम का भी कोई इतना ख़ूबसूरत महल हमारी रियासत में मौजूद है । नीज़ मालूम रहे कि करनूल से 109 किलो मीटर की दूरी पर बेलम गावं में एक एसी गुफा वाक़ै है जो बर्र-ए-सग़ीर की तवील तरीन गुफा है जिस की लंबाई 3229 मीटर है और जिस का इन्किशाफ़ 1884 में एक ब्रिटिश सुरवीर राबर्ट बराक फूट के ज़रीया हुआ ।

ये मुक़ाम भी देखने से ताल्लुक़ रखता है । नीज़ करनूल ज़िला में ही 25 केलो मीटर की दूरी पर नैशनल हाई वे 18 पर एक हसीन-ओ-ख़ूबसूरत क़ुदरती मंज़र यानी दो पहाड़ों के दरमियान एक आबी दर्राह है । ये भी सयाहत के लिये एक बहतरीन मुक़ाम है जो हज़रात भी करनूल सयाहत-ओ-तफ़रीह के लिये जाते हैं वो इन तमाम मुक़ामात के साथ साथ नवाब मीर फ़ज़ल अली ख़ां बहादुर सालिस के इस महल का नज़ारा ज़रूर करते हैं ।।