नई दिल्ली : सफदरजंग मकबरे के मेहराब, बुर्जी को संरक्षित करने के साथ ही कॉम्प्लेक्स में पाथवे बनाने का काम शुरू किया गया है। यह इमारत आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) संरक्षित है। 300 साल पुरानी यह इमारत सफदरजंग एयरपोर्ट के बिल्कुल पास है।
एएसआई के मुताबिक, अभी मकबरे के मेहराबों के पुराने प्लास्टर हटाने का काम किया जा रहा है। जिस हिस्से को संरक्षित करना सबसे जरूरी था वहां काम शुरू किया गया है। अंदर पाथवे भी बनाए जा रहे हैं। बाहरी दीवार की बुर्जी में भी काम किया जा रहा है। इसकी प्लास्टरिंग की जा रही है। इसके साथ ही मकबरे के एंट्रेंस की पहली मंजिल पर लकड़ी के दरवाजे लगाए गए हैं। एएसआई का कहना है कि मुगल काल में जिस तरह के दरवाजे इस्तेमाल किए जाते थे ठीक वैसे ही दरवाजे लगाए गए हैं। अगले एक-दो महीने में इस मकबरे को पुराना रंग मिल जाएगा।
मकबरे की इमारत जिस आधार पर मौजूद है उसके मेहराबों को अलग-अलग फेज में ठीक किया जा रहा है। पहले भी कुछ काम इसमें किए गए थे। फिलहाल पूर्वी और दक्षिणी हिस्से के मेहराबों को संरक्षित करने का काम किया जा रहा है। इसे प्रायॉरिटी के हिसाब से किया जा रहा है। मकबरे के जिस हिस्से में काम की जरूरत ज्यादा है सबसे पहले उसे संरक्षित करने के लिए चुना गया है। मकबरे के मेन गेट के पास और कैंपस के दूसरे हिस्सों में कई पाथ-वे भी बनाए जा रहे हैं। मेन गेट पर ही एक पब्लिकेशन काउंटर भी बनाया गया है। इसमें जल्द ही आर्कियोलॉजी से जुड़ी किताबें एएसआई की ओर से बेची जाएंगी। इस काउंटर के बाहर छत की नक्काशी को लाइम पनिंग से फिर से जीवंत किया गया है।
मकबरे के बाहरी दीवार की बुर्जी भी संरक्षित की जा रही है। यह बुर्जी दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में है। इसके प्लास्टर खराब हो गए थे। इसे ठीक किया जा रहा है।
यह मुहम्मद शाह (1719-48) के अधीन अवध के सूबेदार मिर्जा मुकीम अबुल मंसूर खां का मकबरा है। उनका उपनाम सफदरजंग था। सफदरजंग के बेटे नवाब शुजाउदौला ने 1753-54 में इसे बनवाया था। यह हुमायूं के मकबरे से मिलता-जुलता है। इसे दिल्ली में मुगल वास्तुकला के दीपक की अंतिम लौ कहा जाता है।