मुझ को भी पढ़ किताब हूँ मज़मून ख़ास हूँ

सब से पहले में क़ारईन को एक ज़िंदा ज़बान की हरकियाती ख़ुसूसीयात के बारे में चंद अहम असरी मालूमात पहुंचाना चाहूंगा ताकि उर्दू के असातिज़ा इस पर ग़ौर करें । ये ज़बान ज़ाहिर है अंग्रेज़ी के सिवा और कोई दूसरी हो नहीं सकती। अंग्रेज़ी ज़बान की क़दीम लुगत जो ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के नाम से मशहूर है मुसलसल उस की तन्क़ीह हुआ करती है।

अभी अभी इत्तिला आई है कि लुगत की सेमाही तरमीम में यानी मार्च 2014 के एडिशन में 900 नए अलफ़ाज़ इस्तिलाहा , मुहावरे वग़ैरा शामिल किए हैं यानी इज़ाफ़ा किए हैं । उनका बहुत बड़ा अमला है जो मुसलसल तरमीम और इस्लाह के काम में हमा वक़्ती तौर पर जुड़ा रहता है और साल में चार मर्तबा इस में तरमीम होती है। ज़ाहिर है इस ज़बान की मक़बूलियत और जामे होने का ये सबूत है। सही मानों में ये ज़िंदा ज़बान है।
दूसरी ज़बानों की तरक़्क़ी में क्या क़दम उठाए जा रहे हैं इसका मुझे इलम नहीं है मगर अफ़सोस के साथ कह सकता हूँ कि इतनी कसीर तादाद में उर्दू अदीबों और शाइरों को देख कर ताज्जुब होता है कि फ़िरोज़ुल्लुग़ात जैसी थी वैसी ही है।
इस ज़िमन में अहल-ए-फ़िक्र हज़रात पहल करना ज़बान की बक़ा के लिए ज़रूरी है। ख़्यालात के इर्तिक़ा पर ही ग़ौर करें तो पता चलता हीका हमारी ग़ौर व फ़िक्र मुंजमिद हो कर रह गई है। क्या हम सिर्फ़ उर्दू में सोचते हैं। में जब तालीम याफ़ता मुसलमान नौजवानों की मुंजमिद ग़ौर-ओ-फ़िक्र को देखता हूँ तो ताज्जुब होता है ये देख कर कि वो कितने मुतमइन हैं। डाक्टरी की या कोई और फ़न्नी तालीम हासिल करचुके हैं और मुम्किन है हिंदुस्तान में या बैरून-ए-मुल्क में बेहतरीन मुलाज़िमत हासिल करचुके हैं और मस्त ख़ुशहाल ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। ज़िंदगी के दूसरे मुआमलात में ग़ौर-ओ-फ़िक्र या तो महदूद रहती है या फिर इंतिहाई क़दामत पसंद या दक़यानूसी होसकती है। खुले ज़हन की ख़ूबियों से नाबलद हैं। ग़ौर-ओ-फ़िक्र अगर ज़माने की ग़ौर व फ़िक्र के साथ हम आहंग ना हो तो फिर दुनियावी मुआमलात को ना तो हम सही तरीक़े से समझ पाएंगे ना उनका मुक़ाबला कर सकेंगे। नतीजा ये होगा कि हम दुनिया से अलग थलग होते जाऐंगे। उस की बेहतरीन रोज़मर्रा की मिसाल तेलुगु ज़बान से ना वाक़फ़ीयत है। सभी जानते हैं कि दफ़ातिर वग़ैरा में यही ज़बान चल रही है मगर अपने नौजवान उस को पढ़ने से गुरेज़ करते हैं। अज़ला के बच्चों में ज़बान के ताल्लुक़ से इतना तास्सुब नहीं है जितना कि शहर के अंग्रेज़ी मीडियम के मदारिस के मुसलमान तलबा में है। मेरी हुज्जत को और वाज़िह करने के लिए एक और मिसाल पेश करना चाहूंगा ।
हमारी पुरानी तहज़ीब में ये समझाया जाता था कि ख़ुदसिताई और अपनी ही तारीफ़ करते रहना मायूब बात है। अपने मुँह मियां मिट्ठू ना बनू। पुराने लोग अपना तआरुफ़ कुछ इस तरह से करवाते थे। नाचीज़ को फ़ुलां फ़ुलां कहते हैं। आप हमारे ग़रीब ख़ाने पर तशरीफ़ लईए , मुनकसिरुल मिज़ाजी एक वस्फ़ समझा जाता है और अच्छी तहज़ीब की एक अलामत थी। कितने अच्छे अलफ़ाज़ का इस्तिमाल हुआ करते थे मसलन आप का ख़ाकसार वग़ैरा वग़ैरा।
इन अख़लाक़ी ख़ूबियों और सिफ़ात को आज-कल शख़्सियत की कमज़ोरी समझा जाता है। यहां पर कसर-ए-शान का मसला आजाता है। इज़्ज़ते नफ़स और अपनी तौक़ीर को अमली तौर पर बढ़ा छुट्टी कर पेश करने की तर्बीयत दी जाती है और ये ज़रूरी है।
आप क़ाबिलीयत के साथ साथ दबदबा ना पेश करेंगे और हाथ मिलाते हुए जी हुज़ूरी करते रहेंगे या फिर इन्किसार का मुजस्समा बन जाऐंगे तो अपना सही मुक़ाम इस गला काटने वाले समाज में हासिल ना कर सकेंगे। आप को अपना हक़ घुसपैठ करके हासिल करना पड़ेगा।
ये ज़माना खासतौर से तालीम याफ़ता और काबुल नौजवान लड़के और लड़कियों के लिए मसाबेकती दौड़ का होगया है जहां पर आम ज़बान में कांटे की टक्कर है। जीतने वाले और हारने वाले के दरमियान बाल बराबर का फ़ासिला भी ज़्यादा नज़र आरहा है।
ऐसे ज़माने में अगर आप शराफ़त दिखाते हुए पहले आप पहले कहते रहेंगे तो ज़रूर ख़सारे में रह जाऐंगे। साथी आगे बढ़ जाऐंगे। आज-कल नौकरी के लिए माहिराना और एक फ़न्नी तरीक़े से तालीमी कवाइफ़ भी स्वानही ख़ाका (Bio-data) तैयार करना पड़ता है जिस में ख़ुद आराई , ख़ुद सताई के साथ उस को फ़राख़दिलाना अंदाज़ में तैयार करना पड़ता है। अपनी कमज़ोरीयों को पोशीदा रखते हुए अपने कारनामों और ख़ूबियों को बढ़ा छुट्टी कर पेश करना पड़ता है जो पुराने अख़लाक़ी मेयार से मायूब समझा जाता था।
अपने आप को कमतर पेश करने का ज़माना गया और बेहतर और बरतर पेश करना ही ज़माना में कामयाबी का राज़ है ।
इस तबदीली को बुज़ुर्ग हज़रात बुराई नहीं समझना चाहिए। उसका ताल्लुक़ ख़ुद एतिमादी ही से है। गो कि इस में ग़रूर-ओ-तकब्बुर नज़र आता है मगर ग़रूर और तकब्बुर और मज़बूत ख़ुद एतिमादी में बहुत कम फ़र्क़ है । इस लिए में नौजवानों की तवज्जा तालीम के साथ साथ शख़्सियत की कारकर्दगी की तरफ़ दिलवाता रहता हूँ।
शख़्सियत का कारकर्दगी में बेहतरी लाने के लिए ख़ुदशनासी बहुत ज़रूरी है ।आप अपनी सलाहियतों को पहचानिए और समझिए बेशुमार लड़के और लड़कियां इंजीनीयरिंग या MCA की डिग्रियां हासिल कर लेते हैं मगर जब इंटरव्यूज़ में जाते हैं तो नामुराद वापिस होते हैं। फिर मायूस होजाते हैं। वालिदैन का दबाव नौकरी ढ़ूढ़ने पर रहता है मगर कामयाब नहीं होते। जान पहचान वाले भी मुलाज़िमत के ताल्लुक़ से पूछते रहते हैं तो शर्मिंदगी होने लगती है। उम्मीद करते हैं कि मशरिक़-ए-वुसता चले जाएं तो मुम्किन है वहां पर मुलाज़िमत मिल जाएगी मगर मौजूदा अरब लोग क़ाबिलीयत को अच्छी तरह से जांचने लगे हैं। 20 साल पहले उनके वालदैन हिंदुस्तानियों की तालीम और कारकर्दगी के क़ाइल थे और चूँकि ख़ुद अंग्रेज़ी दां ना थे इस लिए हमारे लोगों की कमज़ोरियों का भांडा नहीं फूटता था। मगर हालात बदल गए हैं और अरब नौजवान तालीम याफ़ता हैं और उन की आँखों में धूल नहीं झोंकी जा सकती। हमारे बेचारे नौजवान वहां से भी बे वापिस होते हैं और अपने आप को नाकारा समझने लगते हैं।
इंजीनीयरिंग कॉलिज से किसी ना किसी तरह डिग्री हासिल करने के बाद अमली मैदान में कामयाब हो नहीं पाते । वालिदैन इस कमज़ोरी को समझना चाहिए। ज़बरदस्ती उनको आली तालीम दिलवाने की जो ख़ाहिश वालिदैन में हुआ करती है इस पर ये नीम रज़ामंद लड़के पूरे नहीं उतरते और नाक़ाबिले मुलाज़िमत बन जाते हैं।
सोने पर सुहागा जब उन की तालीमी क़ाबिलीयत की बुनियाद पर उन की अनजाने घराने में शादी रचादी जाये तो दूसरा मासूम ख़ानदान भी चक्कर में घिर जाता है। इस लिए जहां पर तालीम-ए-याफ़ता लड़कियों के रिश्तों का ताल्लुक़ है तो लड़के की डिग्रियों पर ही अपने फ़ैसले मत कीजिए बल्कि उन के मुलाज़िमत के रिकार्ड पर तवज्जा दीजिए।
नाकारा इंसान से शादी करने के बजाय उम्र भर ग़ैर शादीशुदा रहना मेरे अपने ख़्याल में बेहतर है। क्योंकि बेरोज़गार शौहर अगर रोज़गार के काबिल ही नहीं तो औलाद भी मुसलसल नालां रहेगी और सारी उम्र मसाइब ही में गुज़रेगी।
लिहाज़ा तालीम हो या ना हो अपनी ग़ौर-ओ-फ़िक्र को वुसअत देते जाएं।
मुझ को भी पढ़ किताब हूँ मज़मून ख़ास हूँ
माना तिरे निसाब में शामिल नहीं हूँ मैं