मुद्दत के बाद गुज़रे जो उसकी गली से हम

एफ. एम. सलीम-

किसी गली से गुज़रते हुए क्या कभी पुरानी यादों से मुठभेड हुई है? हो सकता है कि लंबा अरसा बीत जाने के बाद काफी कुछ बदला-बदला सा नज़र आता हो, लेकिन तिनके भर चीज़ भी दिखा देती है कि क्या कुछ हुआ बीता था। यादें एक के बाद एक सिरा पकड़ते हुए चली आएंगीं। हो सकता है कुछ याद करके लबों पर मुस्कुराहट चली आये या फिर आँखें ही नम हों जाएं-

कुछ याद करके आँख से आँसू निकल पड़े

मुद्दत के बाद गुज़रे जो उसकी गली से हम

यादें चाहे नई हों या पुरानी, मीठी हो या खट्टी। उनकी अपनी अहमियत हेती है, उनसे सारी आंधेरी गलियाँ रोशन हो जाती हैं। बशीर बद्र ने तो यादों को उजाला कहा है। अगर किसी गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए तो उस शाम को रोशन करने के लिए यादों के दीये ही उजाला दे सकते हैं। किसी गली या कूचे से गुज़रते हुए बहुत कुछ याद आता चला जाता है कि कुछ बिगडा-संवरा था। बालकनियों में सूखते दुपट्टे, ज़ुल्फें सवारते ख़ूबसूरत चेहरे और फिर उन्हें देखते हुए किसी के देखे जाने का ड़र। किसी की आरज़ू और जुस्तजू करते हुए वह गली-गली भटकना। कई दास्तानें इस भटकाने में छुपी रह जाती है।

तेरी आरज़ू तेरी जुस्तजू मैं भटक रहा था गली गली

मेरी दास्ताँ तेरी ज़ुल्फ है, जो बिखर-बिखर के संवर गयी

महबूब की गली में जाने और देर तक रुके रहने के लिए बहाने ढ़ूंढें जाते हैं। चाहे वह किसी से मिलने के हों या किसी से बात करने के, फिर तो हालत ये होती है कि कब दिन ढ़लता है और कब रात होती है पता ही नहीं चलता।

तेरे कूचे इस बहाने हमें दिन से रात करना

कभी इससे बात करना कभी उससे बात करना

गलियों, चौबारों के ा़f़जक्र से उर्दू की शायरी और हिन्दी फिल्मों के गीत भी अछूते नहीं रहे हैं। ये गलियाँ ये चौबारा..तेरी गलियों में ना रखेंगे क़दम.. जैसे गीत खुद ब ख़ूद ही ज़ुबाँ पर चले आते हैं। वो दिन भी याद आते चले जाते हैं, जब किसी गली में जाने से मना करने के बावजूद गये हों। अहमद फ़राज़ याद आते हैं। उन्होंने अपने महबूब की गली से गुज़रने को लेकर, महबूब की गलियों के करिश्माती तसव्वुर पर सब से लंबी ग़ज़ल लिखी थी उन्होंने…

सुना है दर्द की गाहक है चश्मे नाज़ उसकी

सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बिहिश्त

मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

क़ैसरुल जाफरी की ग़ज़ल का एक शेर अनूप जलोटा ने दुनिया के सभी शहरों में सुनाकर कहा था कि `मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे…। शायर की अक़्ल कहती थी कि क़ातिल की गली में न जाएं, लेकिन सरफरोशी का चसके का अपना मिज़ाज है, वह चलने पर बाजिद है कि `चल देखेंगे क्या होता है।’ कभी तो किसी के साथ ऐसा भी होता है कि उसके जाने से पहले ही वहाँ उसके अफ़साने चले जाते है। हरिचंद अख़्तर का शेर याद आता है-

मै इसे शोहरत कहूँ या अपनी रुस्वाई कहूँ

मुझसे पहले उस गली में मेरे आफ़साने गये

किसी अपने की गली से गुज़रते हुए यह भी ख़्याल रहता है कि रस्मे वफ़ा निभाते हुए ऐसा भी नहीं करना है कि वह बदनाम हो जाए, जिसके लिए वहाँ का गुज़र हुआ है, लेकिन जब पागलपन हद से गुज़र जाता है तो फिर उस गली में फूल मिलते हैं या पत्थर… एक उम्र में इसकी किसे परवाह होती है। सोच भी यही होती है कि उस गली से कुछ यादें अपने साथ ले जानी हैं। चाहे जो भी मिले नासिर काज़मी याद आते हैं-

कुछ यादगारे शहरे सितमगर ही ले चलें

आये हैं इस गली में तो पत्थर ही ले चलें

लेकिन ऐसे म़ौकों पर नाकामियाँ ही हाथ लगती हैं। मजरूह सुलतानपुरी ने इस बात का इज़्हार करते हुए कहा था कि उन गलियों में जहाँ प्यारों की तरह रहा करते थे, गुन्हगारों की तरह बैठे हैं।

ग़ालिब ने इसका जिक्र ख़ूब किया है और उसकी मिसाल ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ शोबों में बार-बार दी जाती रही है। ग़ालिब ने आदम के जन्नत से निकाले जाने का जिक्र करते हुए कहा था-

निकलना ख़ुल्द से आदम सुनते आये हैं लेकिन

बहुत बे आबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले

कभी ऐसा भी होता है कि दिल में किसी के आने की उम्मीद इतनी तेज़ हो जाती है कि हर लम्हा ऐसा लगता है कि अभी आता ही होगा..और बार-बार गली में झांक कर देखा जाता है कि कोई आया तो नहीं, लेकन वहां कोई नहीं होता।

ऐसे में दिल की गलियों में किसी के क़दमों की आहट होती है और अजीब रंगों का मौसम छा जाता है। अगर कोई आवाज़ कोई आहट न हो तो दिल की गलियाँ भी बड़ी सुनसान लगती हैं। लता मंगेशकर की आवाज़ में बरसों बजा वो गीत किसे याद नहीं होगा, जिसमें किसी के आने का इन्तेज़ार भी है और पूरा यकीन भी.. कि आने वाला आएगा- उसी उम्मीद में कुछ बोल यूँ निकल पड़ते हैं-

ख़ामोश है ज़माना चुपपाच हैं सितारे

आराम से है दुनिया बेकल हैं दिल के तारे

ऐसे में कोई आहट इस तरह से आ रही है

जैसे कि चल रहा हो मन में कोई हमारे

या दिल धडक रहा है , इस आस के सहारे

…आएगा, आएगा, आएगा, आने वाला…

अब यह अलग बात है कि वो उस गली में किसके लिए आये। परवीन शाकिर नारी के दिल के नाज़ुक एहसास को अपनी शायरी में पेश करने के लिए मशहूर रही हैं। कहती हैं कि उनसे मिलने के लिए ही आना क्या ज़रूरी है, किसी और से मिलने के बहाने भी तो आया जा सकता है।

इसी कूचे में कई उसके शनासा भी तो हैं

वो किसी और से मिलने के बहाने आये

ज़िन्दगी अपने लिए कुछ अलग ही मांगती है, उसको पूरा करने के लिए हम ज़िन्दगी भर भटकते रहते हैं और उस भटकाने को कई नाम देकर कई गलियों से गुज़र जाते हैं। इन हालात में वह गलियाँ कहाँ याद रहती हैं, जहां से गुज़रते हुए कई यादें समेटी जा सकें, लेकिन उन गलियों से उठना बड़ा जान लेवा होता है। –

यूँ उठे आह मीर उसकी गली से हम

जैसे कोई जहाँ से उठता है