मुनाफ़िक़ का ठिकाना जहन्नुम है

मुनाफ़िक़ पुकारेंगे अहले ईमान को क्या हम तुम्हारे साथ ना थे?। (मोमिन) कहेंगे बेशक! लेकिन तुम ने अपने आप को ख़ुद फ़ितनों में डाल दिया और (हमारी तबाही का) इंतेज़ार करते रहे और शक में मुबतला रहे और धोका में डाल दिया तुम्हें झूटी उम्मीदों ने, यहां तक कि अल्लाह का फ़रमान आ पहुंचा और धोका दिया तुम्हें अल्लाह के बारे में शैतान (दग़ाबाज़) ने। पस आज ना तुम से फ़िदया क़बूल किया जाएगा और ना कुफ़्फ़ार से। तुम (सब का) ठिकाना आतिश (जहन्नुम) है, वो तुम्हारा रफ़ीक़ है और बहुत बुरी जगह है लौटने की। (सूरा अलहदीद। १४,१५)
जब (जन्नतियों और दोज़ख़ियों के दरमयान) दीवार चुन दी जाएगी तो अहल जन्नत मुनाफ़िक़ों की नज़रों से ओझल हो जाऐंगे तो वो (मुनाफिक़ीन) ज़ोरज़ोर से उन्हें (जन्नतियों को) पकारेंगे ए बंदगान ख़ुदा! ए ग़ुलामान-ए-मुस्तफ़ा स्ल्लाह अलैहि वसल्लम! क्या दुनिया में हम तुम्हारे साथ नहीं रहते थें, हम तो आपस में बड़े गहरे दोस्त भी थे, बाहमी रिश्तेदारीयां भी थीं, आज हम से तुम ने यूं मुंह मोड़ लिया, जैसे कभी शनासाई ही ना थी।

अहले ईमान उन्हें जवाब देंगे बेशक! तुम ब‍ ज़ाहिर हमारे साथ थे, लेकिन तुम्हें ख़ूब इल्म है कि तुम्हारे बातिन में क्या पनाह था। यहां मुनाफ़क़ीन की इन ख़स्लतों का ज़िक्र हो रहा है, जो उन की तबाही का बाइस बनें। हमें भी चाहीए कि इन कलिमात पर संजीदगी से ग़ौर करें और फिर अपना जायज़ा लें कि कहीं मुनाफ़क़ीन की कोई ख़सलत हम में तो नहीं पाई जाती?।

पहली बात जो मुनाफिक़ीन को कही जाएगी, वो ये है फितनतुम अनफोसिकुम (तुम ने अपने आप को फ़ितनों में डाल दिया)।
अल्लामा राग़िब इस का मानी ये ब्यान करते हैं कि तुम ने अपने नफ़सों को इब्तिला-ए-और अज़ाब में फेंक दिया। साहिब लसान अल अरब लिखते हैं कि तुम ने अपने आप को फ़ित्ना-ओ-फ़साद की आग भड़काने में इस्तेमाल किया।

मुनाफ़क़ीन दुनिया में इसी तरह ज़िंदगी बसर करते रहे। इस्लाम पर जब भी कोई कठिन घड़ी आई तो उन्हों ने इस्लाम की मुश्किलात में इज़ाफ़ा करने में अपने सारे वसाइल सिर्फ कर दिये। दूसरी बात जो उन्हें कही जाएगी, वो है वित्र बस्तम। यानी कुफ्र-ओ-इस्लाम की कश्मकश जब उरूज पर थी, तुम्हारा फ़र्ज़ था कि तुम नताइज से बेपरवाह होकर अपनी क़िस्मत इस्लाम के साथ वाबस्ता कर देते। तौहीद-ओ-रिसालत की जो शहादत तुम ने ज़बान से दी थी, तुम पर लाज़िम था कि अपने अमल से इस को सच्चा कर दिखाते, लेकिन तुम इंतिज़ार करते रहे कि देखिए ऊंट किस करवट बैठता है, पाँसा किस के हक़ में पलटता है। गश्क़ और मस्लेहत बीनी, ईमान और मौका परस्ती दो मुतज़ाद चीज़ें हैं। तरबस का एक मानी ज़ख़ीराअंदोजी भी किया गया है। लिसानुल अरब में है और अल्लामा जौहरी भी लिखते हैं कि ज़ख़ीराअंदोजी करने वाला इस इंतिज़ार में रहता है कि जब जिन्स बाज़ार में नायाब हो जाये और इस का नर्ख़ बढ़ जाए, उस वक़्त वो उसे फ़रोख़त करे।
तीसरा नुक़्स जिस में वो मुलव्वस थे, वो अरतब तुम से ब्यान किया गया है, यानी सारी उम्र तुम शक में मुबतला रहे। इस्लाम क़बूल करने से जो यक़ीन और इज़आन दिल में पैदा होता है, इस से तुम मेहरूम थे। क्या मुहम्मद सल्लाह अलैहि वसल्लम वाक़ई अल्लाह के रसूल हैं?, क्या क़ुरआन वाक़ई अल्लाह का कलाम है?, क्या क़ुरआन की ये बात सच्ची है कि अल्लाह की राह में जो लोग जान दे देते हैं, वो सर जुदा होने के बावजूद मुर्दा नहीं?, बल्कि ज़िंदा जाविद हैं। इस्लाम की सरबुलन्दी के लिए माल ख़र्च करने से इंसान मुफ़लिस-ओ-नादार नहीं होता?, बल्कि तवंगर-ओ-ग़नी बन जाता है।

ये सारी बातें थीं, जिन्हें तुम शक की नज़र से देखते रहे और इसी शक के बाइस तुम इस अज़ीमत से उम्र भर महरूम रहे।
कुफ़्फ़ार और मुनाफ़क़ीन दोनों ईमान से मेहरूम होते हैं, इस लिए दोनों की सज़ा की नौईयत यकसाँ है, ना इस के लिए बख़शिश है और ना इसके लिए मग़फ़िरत, यानी इन दोनों के लिए आग ही मुनासिब मुक़ाम है।