जिन दिनों हम दिल्ली आए वह गर्मी का मौसम था। तब नरेंद्र मोदी को सत्ता में लाए जाने की भरपूर कोशिश हो रही थी। वह कॉलेज का हमारा अंतिम साल था। हमारे मीडिया पढ़ाई का एक हिस्सा था एजुकेशन टूर। तब हम कुल तीस लोग हैदराबाद से दिल्ली आए थे। वह साल 2013 था। लगभग सभी बड़े मीडिया संस्थान की जियारत कर चुकने के बाद हमारे लिस्ट में एक नेता का भी नाम था जिनसे मुलाकात होनी थी। उनसे हम लोग एक दिन शाम में मिले, उनके सरकारी बंगले पर। उनका नाम मोहम्मद अदीब है। उन्होंने ने हम सब छात्रों से एक वाक्या शेयर किया था। वह उनके नीजी अनुभव थे जो मुसलमानों के बारे में थे। दरअसल, वह एक घटना उनके और उनके कॉलेज फेलो मशहूर गीतकार जावेद अख्तर के बारे में थी। दोनों उस समय राज्यसभा के सांसद थे। अदीब साहब एक बड़े नाम थे संसद में मुसलमानों के इश्यू को उठाने वालों में। लेकिन इस बात से जावेद अख्तर को चिड़ था। जावेद अख्तर का कहना था कि अगर आप एक सांसद हैं तो आपको सबकी नुमाइंदगी करनी चाहिए। एक दिन जावेद अख्तर ने अदीब साहब से कहा कि तुम हर बात में मुसलमान-मुसलमान क्यों करते रहते हो। तब अदीब साहब ने जवाब दिया- मैं उत्तर प्रदेश राज्य से सांसद चुनकर आया हूँ, जहाँ से मुझे मुसलमान कोटे के तहत भेजा गया था। अगर मुझे भी किसी समान्य कोटे से भेजा गया होता तो जाहिर है मैं मुसलमान-मुसलमान का रट नहीं लगाता। चुंकि मुझे मुसलमान समझकर मुसलमान कोटे से भेजा गया है इसलिए मैं अक्सर मुसलमानों की बात करता हूँ। मोहम्मद अदीब का यह जवाब सुन जावेद साहब चुप हो गये।
दरअसल, इस तरह के सवालों के जवाब हर दिन एक मुसलमान को देना पड़ता है। कभी-कभी ऐसे सवाल मुसलमान ही मुसलमान से अधिक करते है। यह वह मुसलमान होते हैं जिनका पेट भरा हुआ है। मतलब, वह अघाये हुए मुसलमान हैं। दरअसल, इसकी शुरूआत देश के बंटवारे के वक्त ही शुरू हो गई थी। उसके बाद हर मुसलमान को सेक्युलर बने रहने का जिम्मेदारी उठानी पड़ी। उसके बाद स्कुल, कॉलेज, दफ्तर सब जगह शुरू हो गया। उसके पीछे था पाकिस्तान। बंटवारे के बाद हर भारतीय मुसलमान को यह डर सताने लगा कि कहीं उसे कॉम्युनल या देशद्रोही न करार दे दिया जाए। सरकारी या गैर-सरकारी महकमें में जहाँ भी मुसलमान रहता है उसे सेक्यूलर दिखना पड़ाता है। उसे यह बार-बार साबित करना पड़ा है कि वह अपने देश के प्रति ईमानदार है।
एक बात बहुत कॉमन है भारत के मुसलमानों के साथ। वह यह कि जहाँ दूसरे समूदाय वाले अपने लोगों के लिए जितनी आसानी पैरवी करते है उस तरह से एक मुसलमान नहीं कर पाते। यह उस डर के कारण है जो हर एक मुसलमान के दिल और दिमाग़ में समा चुका है। उसे हर दिन शानदार बने रहना-ईमानदार बने रहना है। वह डरता है कि कहीं उसे फिरकापरस्त न कह दे दिया जाए। यह ठीक उसके वोटिंग के मामले में भी दीख जाता है। मुसलमान ने सदा उस पार्टी को समर्थन किया जो सबको लेकर चलने वाली पार्टी थी। उसके बावजूद मुसलमानों उसका हक नहीं मिला। उसे उसका न को सही नुमाइंदा मिला, न ही उसका सही मुआवजा। कभी उसे सुरक्षा दिये जाने के नाम पर ठगा गया, तो सेक्यूलरिज्म के नाम पर। भारत का मुसलमान ठीक आज उसी मुद्रा में खड़ा है, भले ही उसे फर्जी केसेज में फंसाकर जेल भेजा जा रहा है या फाँसी पर लटकाया जा रहा है। जहाँ दूसरे समूदाय का व्यक्ति निर्दोष होने पर आसानी से छुट जाता है, वहीं मुसलमान को सालों-साल जेल में सड़ना पड़ता है। तब भला ऐसे सेक्यूलर होने का क्या फायदा। भारत में मुसलमानों की इतनी बड़ी तादाद होने के बावजूद आज तक कोई ऐसा नेता नहीं आया जो इनकी नुमाईंदगी कर सके। जब कोई उठा भी तो उसे ‘जिन्ना’ कहकर इस तरह संबोधित किया गया कि उसे खुद पीछे हट जाना पड़ा। यह बहुत शातिर तरीके से किया गया। काँग्रेस, भाजपा हो या दूसरी पार्टियां जो कोई भी, ये सभी शुरू से जानती हैं कि भारतीय मुसलमान सब कुछ बरदास्त पर सकता पर ‘जिन्ना’ होना नहीं। मुसलमान जानता है कि जिन्ना ने क्या किया। उसे मालूम है कि कैसे जिन्ना मुसलमानों के नेता बने और पाकिस्तान मांग लिया। पाकिस्तान भी बना तो किससे लिए? वह आम मुसलमानों के लिए नहीं था। वह इलिट क्लास के मुसलमानों के लिए था। जो उस समय का बुर्जुआ मुस्लिम था। उसे सत्ता चाहिए थी। और वे लेकर रहे। चाहे वह कितने मासूम लोगों के लाशों पर चल कर बना। जो धन-दौलत और रसूख वाले थे वे पाकिस्तान चले गये। पर जो पीछे छुटे वे वो मुसलमान थे जो न तो रईस थे और न राजनीतिक रसूख वाले। उन्हें अपने देश और ज़मीन से प्रेम था। दरअसल, वो जा ही नहीं सकते थे। क्योंकि उनके पास इतनी औकात ही नहीं थी कि जितना यहाँ घर-बार छोड़ें वो वहाँ जाकर पा लें। यह उनके पहुँच से बाहर था। उनका लाहौर या कराँची में कोई जानने वाला नहीं था। कुछ लोग गलती से धार्मिक भाउकता में चले भी गये तो वह मुहाजिर कहलाये। न हिन्दूस्तान रहे और न पाकिस्तान के।
जब कभी उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे राज्यों से जहाँ मुसलमान को उसका सही प्रतिनीधित्व नहीं मिल पाता, तो उनके मन को ठेस लगता है। इस बार मुलायम सिंह यादव ने भी मुसलमानों को ठेंगा दिखा दिया। रहा-गया कसर बिहार से लालू यादव और नीतीश कुमार ने पूरा किया। किसी एक ने भी किसी मुस्लिम का नामांकन राज्यसभा के लिए नहीं किया। दूसरी तरफ काँग्रेस से उम्मीद करना ही बेकार है, क्योंकि उसे आजकल हिंदू वोट अधिक दिखता है। जैसे कुछ साल पहले तक मुसलमान वोट दिखता था।
अब सवाल यह उठता है कि ऐसे समय में मुसलमानों को अपना नेता क्यों नहीं चुनना चाहिए। क्यों मुसलमानों को असदुद्दीन ओवैसी जैसों को अपना नेता नहीं मान लेना चाहिए। कब तक दूसरों के पीछे चलकर अपनी नुमाइंदगी तलाशते रहेंगे मुसलमान। क्या दलितों का उद्धार किसी उच्चि जाति वालों ने किया। नहीं, दलितों के स्वाभिन को जगाया एक दलित ने। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने उनका उद्धार किया। क्या ओवैसी को कम्यूनल मान लेने से मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक की नज़र से देखा जाना बंद हो जाएगा। यह कभी खत्म नहीं होने वाला। जब तक मुसलमान तन कर खड़े होंगे। उनकी अग्नि परीक्षा ली जाती रहेगी। जब-जब मुसलमान उठने की कोशिश करेगा उसे जिन्ना कह कर ही पुकारा जाएगा। कोई नहीं चाहता मुसलमानों का कोई नेता पैदा हो। कोई राजनीतिक दल नहीं चाहेगा कि उसे एक मुस्त में मिलने वाला इतना बड़ा वोट किसी और के खाते में जाए। कब तक मुसलमानों के जिन्ना कहकर चिढ़ाया जाता रहेगा और मुसलमान चिड़ते रहेंगे। वह दिन कभी नहीं आएगा जब उन्हें अब्दूल कलाम आजाद कहकर संबोधित किया जाए। वे कभी नहीं कहने वाले कि लाओ देता हूँ तुम्हारे हिस्से की भागीदारी।
मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह हक की बात कहने में भी हिचकते है। कुछ लोग कह सकते हैं कि धर्म के नाम पर पार्टी की आवश्यता क्यों। तो सवाल उठाने वाले व्यक्ति जो कोई भी हो उसे बताना होगा कि भाजपा या बसपा उन जैसी पार्टियों की आवश्यकता क्यों थी। जहिर है कोई भी पार्टी आज सबको लेकर नहीं चल रही है। काँग्रेस का दिया दर्द बहुत है मुसलमानों के पास। वह आगे से बोती है और बाजपा काटती है। यह कब तक चलेगा। औवेसी पर किसी का एजेंट होने का जितना भी तोहमत लगा हो, लेकिन साबित करने वाले एक भी नहीं हैं। एक बात तो माननी पड़ेगा कि ओवैसी में कुछ तो बात है जो विरोधी इतना घबराये हुए हैं। ऐसा बिहार में भी लगा और अधिकतर लोगों ने मान भी लिया। नतीजा आपके सामने है। अब तो सेक्यूलर नेताओं ने भी अँगुठा दिखा दिया। जिन्होंने ओवैसी पर वोटकटुआ होने का आरोप लगाया था। बिहार और यूपी में कहीं से भी किसी मुसलमान को नहीं चुना गया। क्यों? वह इसलिए क्योंकि ऐसा करने से आजकल हिंदू वोट नाराज हो जा रहा है। जैसाकि काँग्रेस के साथ लोकसभा में हुआ। इन दिनों ये सभी पार्टियां हिंदू बने रहने की चेष्टा कर रही हैं। इन दिनों ये सभी गाय और काश्मीर जैसे मुद्दों पर भक्ति भरे नारे लगा रही हैं। जाहिर है केंद्र में बैठने के लिए सबका वोट चाहिए।
सोचने वाली बात है कि वे कौन लोग है जो ओवैसी जैसे नेताओं पर भाजपा का एजेंट होने का इल्जाम लगाते हैं। क्या ये वे लोग नहीं हैं जिन्होंने अभी-अभी मुसलमानों को राज्यसभा में नहीं भेजने का फैसला किया है। क्या मुसलमानों के ये हमदर्द नेता कभी खुलकर सामने आते हैं जब मुसलमानों का फर्जी इंकाउंटर किया जाता है या जेलों में डाला जाता है। ओवैसी तो कम-से-कम उन सबसे बेहतर है जो खुलकर ऐसी नाइंसाफियों के खिलाफमान बोलता में बोलता है। कोई तो है जो अपने साथ दलितों को लेकर चलने की बात करता है। अगर वह भी चाहता तो कम्यूनल कहलाने के जगह, किसी बड़ी पार्टी के चेला बन जाता। जैसा कि अहमद पटेल, सलमान खुर्शीद, मुख्तार अब्बास नकवी या सैयद सहनवाज हुसैन जैसे नेताओं ने किया। पर सवाल यह है कि उनके सेक्यूलर हो जाने मुसलमानों का क्या भला हुआ। क्या ये नेता कोई ऐसी पॉलिसी बनवा पाए जैसा कि मुलायम या मायावती ने अपनी जातियों के लिए किया। अगर मान लीजिए ओवैसी कम्यूनल है तो फिर भी सेक्यूलर कौन है?
हबीब-उर-रहमान
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