पिछले पांच साल से उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता निष्ठापूर्वक भाजपा विरोधी मतदान करने के बावजूद चुनाव परिणाम पर कोई प्रभाव डालने में नाकाम रहे हैं। लोकतंत्र बहुमत का खेल है, और देश में हिंदुओं का विशाल बहुमत है। मुसलमान वोटर किसी बड़े हिंदू समुदाय के साथ जुड़ कर ही चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता आम तौर पर पिछड़ी और दलित जातियों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों को समर्थन देते रहे हैं। बाकी जगहों पर वे कांग्रेस के निष्ठावान वोटर हैं। दिक्कत यह है कि कथित रूप से सेकुलर राजनीति करने वाली इन पार्टियों को हिंदू मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने त्याग दिया है। मसलन, ऊंची जातियों, गैर-यादव पिछड़ी जातियों और गैर-जाटव दलित जातियों का बहुतांश भाजपा को अपनी स्वाभाविक पार्टी मानने लगा है। यह हिंदू राजनीतिक एकता का नज़ारा है जिसके तहत 42 से 50 फीसदी के आसपास हिंदू वोट एक जगह जमा हो जाते हैं। 2017 के उप्र चुनाव में भी यही हुआ था, और इस चुनाव में भी यही हुआ है। इस बड़ी हिंदू गोलबंदी से पैदा हुए डर के कारण गैर-भाजपा पार्टियों ने मुसलमान वोटरों को अहमियत देनी भी बंद कर दी है। ध्यान रहे कि 2014 से पहले यही दल मुसलमान वोटरों को अपनी चुनावी रणनीति में महत्वपूर्ण भूमिका देते थे जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप भाजपा हिंदू बहुसंख्यकों को अपने पक्ष में गोलबंदी कर लेती थी। इस हिंदू गोलबंदी में नया पहलू अति-पिछड़ी और अति-दलित जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली छोटी और नामालूम किस्म के संगठनों के समर्थन का है। ऐसी करीब चालीस पिछड़ी और करीब तीस दलित जातियां 2014 से ही धीरे-धीरे भाजपा की तरफ झुकती जा रही हैं। ये जातियां महसूस करती हैं कि ब्राह्मणवाद विरोध के नाम पर होने वाली सामाजिक न्याय की अाम्बेडकरवादी और लोहियावादी राजनीति से उन्हें कुछ भी नहीं मिला है। न तो उन्हें आरक्षण के लाभ मिले हैं, और न ही प्रतिनिधित्व में हिस्सा। भाजपा उन्हें राजनीति के मैदान में उचित मौका देने का आश्वासन देती है और वे फिलहाल इस पर भरोसा भी कर रहे हैं। अगर किसी संख्यात्मक रूप से शक्तिशाली अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर राजनीतिक व्यर्थता का एहसास पनपने लगे तो उसके दूरगामी परिणाम लोकतंत्र के लिएखतरनाक निकल सकते हैं।
अभय कुमार दुबे, निदेशक, भाषा कार्यक्रम सीएसडीएस