मुहम्मद (सल्ल.) ने रेगिस्तान में नए संसार का निर्माण किया : प्रोफेसर केएस रामकृष्ण राव

हैदराबाद। गवर्नमेंट कालेज फॉर वूमेन मैसूर यूनिवर्सिटी में दर्शन शास्त्र विभाग के प्रमुख प्रोफेसर केएस रामकृष्ण राव ने इस्लाम पर लिखी किताब ‘इस्लाम एंड मॉडर्न एज’ का दोबारा प्रकाशन मार्च 1978 में करवाया था। यहां एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि मुहम्मद (सल्ल.) का जन्म अरब के रेगिस्तान में मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार 20 अप्रेल 571 ईस्वी में हुआ। ‘मुहम्मद’ का अर्थ होता है ‘जिस की अत्यन्त प्रशंसा की गई हो। मेरी नज़र में आप अरब के सपूतों में महाप्रज्ञ और सबसे उच्च बुद्धि के व्यक्ति हैं।
क्या आपसे पहले और क्या आप के बाद, इस लाल रेगिस्तान में जन्मे सभी कवियों और शासकों की अपेक्षा आप का प्रभाव कहीं अधिक व्यापक है। जब आप पैदा हुए तो अरब उपमहीद्वीप केवल एक सूना रेगिस्तान था। एक नए जीवन का, एक नई संस्कृति और नई सभ्यता का। आपके द्वारा एक ऐसे नये राज्य की स्थापना हुई, जो मराकश से लेकर इंडीज़ तक फैला और जिसने तीन महाद्वीपों-एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विचार और जीवन पर अपना अभूतपूर्व प्रभाव डाला।
मुहम्मद (सल्ल.) की सशक्त आत्मा ने इस सूने रेगिस्तान से एक नए संसार का निर्माण किया। मैंने जब पैग़म्बर मुहम्मद के बारे में लिखने का इरादा किया तो पहले तो मुझे संकोच हुआ, क्योंकि यह एक ऐसे धर्म के बारे में लिखने का मामला था जिसका मैं अनुयायी नहीं हूँ और यह एक नाजुक मामला भी है क्योंकि दुनिया में विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोग पाए जाते हैं और एक धर्म के अनुयायी भी परस्पर विरोधी मतों और फ़िरक़ों में बंटे रहते हैं।

 

हालाँकि कभी-कभी यह दावा किया जाता है कि धर्म पूर्णतः एक व्यक्तिगत मामला है, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि धर्म में पूरे जगत् को अपने घेरे में ले लेने की प्रवृत्ति पाई जाती है, चाहे उसका संबंध प्रत्यक्ष से हो या अप्रत्यक्ष से। वह किसी न किसी तरह और कभी न कभी हमारे हृदय, हमारी आत्माओं और हमारे मन और मस्तिष्क में अपनी राह बना लेता है। चाहे उसका ताल्लुक़ उसके चेतन से हो, अवचेतन से हो या किसी ऐसे हिस्से से हो जिसकी हम कल्पना कर सकते हों।

 

यह समस्या उस समय और ज़्यादा गंभीर और अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है जबकि इस बात का गहरा यक़ीन भी हो कि हमारा भूत, वर्तमान और भविष्य सब के सब अत्यंत कोमल संवेदनशील रेशमी सूत्र में बंधे हैं। यदि हम ज्यादा संवेदनशील हुए तो फिर हमारे संतुलन केंद्र के अत्यंत तनाव की स्थिति में रहने की सम्भावना बानी रहती है। इस दृष्टि से तो दूसरों के धर्म के बारे में जितना काम कहा जाए उतना ही अच्छा है। हमारे धर्मों को तो बहुत छिपाकर रहना चाहिए, उनका स्थान तो हमारे दिल के अदंर होना चाहिए और इस सिलसिले में हमारी जुबान बिलकुल नहीं खुलनी चाहिए।

 

समस्या का दूसरा पहलू यह भी है कि मनुष्य समाज में रहता है और हमारा जीवन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे लोगों के जीवन से जुड़ा होता है। हम एक ही धरती का अनाज खाते हैं, एक ही जलस्रोत का पानी पीते हैं, एक ही वायुमंडल की हवा में सांस लेते हैं। ऐसी दशा में भी जबकि हम अपने निजी विचारों व धार्मिक धारणाओं पर कायम हों।

 

अगर हम थोड़ा यह भी जान लें कि हमारा पड़ौसी किस तरह सोचता है। उसके कर्मों के मुख्य प्ररेणास्रोत क्या हैं, तब यह जानकारी कम से कम अच्छे माहौल के साथ तालमेल पैदा करने में सहायक बनेगी। यह बहुत ही पसंदीदा बात है आदमी को संसार में धर्मों के बारे में उचित भावना के साथ जानने की कोशिश करनी चाहिए ताकि आपसी जानकारी और मेलमिलाप को बढ़ावा मिले और हम बेहतर तरीके से अपने करीब या दूर के पड़ोस के लोगों की मदद कर सकें।