मूसीक़ी (संगीत कला) का सुनहरा दौर वापस नहीं आ सकता : मन्ना डे

अपने वक़्त के मशहूर गुलूकार मन्ना डे जिन्होंने मुंबई में अपना बंगला फ़रोख्त करके बैंगलौर में मुस्तक़िल ( स्थायी) सुकूनत इख्तेयार कर ली है, ने आज मीडीया से बातचीत करते हुए कहा कि फिल्मों में मूसीक़ी का सुनहरा दौर वापस नहीं आ सकता।

अब शोर-ओ-गुल को मूसीक़ी का नाम दिया जा रहा है। अब नौशाद, ग़ुलाम मुहम्मद, बर्मन दा, वसंत देसाई, मदन मोहन, रौशन और सलील चौधरी जैसे मूसीक़ार कहां हैं ? अपने ज़माना में क्लासीकल गानों के लिए मशहूर मन्ना डे ने ज़ईफ़ अलामरी की वजह से अपनी फ़िल्मी मसरुफ़ियात तर्क कर दी हैं।

लागा चुनरी में दाग़, ज़िंदगी कैसी है पहेली, फूल गेंदवा ना मॉरो, किस ने चिलमन से मारा, जीवन से लंबे हैं बन्धू जैसे गानों को भुला कोई भूल सकता है। मन्ना डे ने कहा कि अब उनकी उम्र 90 साल से भी तजावुज़ कर चुकी है और लाज़िमी बात है कि अब इनके लिए केयर कोई मानी नहीं रखता । अज़मत रफ़्ता ( सम्मान/ इज़्ज़त) की याद से ही वो अपना दिल बहला लेते हैं और पुराने गानों को अक्सर-ओ-बेशतर सी डी प्लेयर पर सुन लेते हैं।