मेहनत के ज़रीया हासिल करने की ताकीद

और नहीं मिलता इंसान को मगर वही कुछ जिस की वो कोशिश करता है। (सूरतुल नज्म: ३९)
ये हुक्म सेहत मूसा और इब्राहीम अलैहिमुस्सलाम में भी मौजूद था और शरीयत इस्लामी में भी ये क़ानून बाक़ी है, लेकिन बाअज़ कज फ़हमों ने इस आयत को ऐसे मआनी पहनाए हैं, जिन से मुतअद्दिद दूसरी आयात की तरदीद और तक़ज़ीब होती है, इसलिए हमें बड़े इत्मीनान से इन बातिल मआनी का जायज़ा लेना चाहीए और इसके हक़ीक़ी मफ़हूम को समझने की कोशिश करनी चाहीए, क्योंकि ये तरीक़ा किसी भी तरह मुस्तहसिन नहीं कि एक आयत की ऐसी मनमानी तशरीह की जाये, जिससे मुतअद्दिद आयात की तग़लीत होती हो।

इश्तिराकी ज़हनीयत रखने वाले जो मेहनत को ज़रूरत से ज़्यादा एहमीयत देते हैं, वो इस आयत का ये मफ़हूम बयान करते हैं कि हर इंसान सिर्फ़ इसी चीज़ का हक़दार है, जो इसने अपनी मेहनत और कोशिश से हासिल की हो और अपने इस नज़रिया को क़ुरआन-ए-करीम की इस आयत की तरफ़ मंसूब करते हैं।

अगर वो ऐसा ना करते तो हमें उन से किसी बहस की ज़रूरत ना थी। हर शख़्स अपनी पसंद के मुताबिक़ जिस नज़रिया को चाहे अपनाए। लेकिन अपने मन घड़त नज़रियात को क़ुरआन की तरफ़ मंसूब करना एक ऐसी ज़्यादती है, जिस पर रहना हमारे लिए मुम्किन नहीं। हम इन साहिबान से पूछते हैं कि क्या क़ुरआन-ए-करीम की मुतअद्दिद आयात में मीरास के अहकाम मज़कूर नहीं?।

बाप के मरने के बाद औलाद को जो जायदाद मनक़ूला और ग़ैर मनक़ूला विरसा में मिलती है, क्या इस में उन की मेहनत और कोशिश का कोई दख़ल था?। जब कि ऐसे जायदाद का क़ुरआन ने उन्हें कामिल मालिक ठहराया है। ख़ुसूसन बच्चीयां या शीर ख़ार बच्चे, जिन्होंने किसी तरह भी इस जायदाद के बनाने में कोई हिस्सा नहीं लिया, वो भी वारिस होते हैं। इसके इलावा ज़कात-ओ-सदक़ात जब कोई शख़्स किसी मुस्तहिक़ को देता है तो मुस्तहिक़ इसका कामिल मालिक बन जाता है।