मैं अपनी पत्नी की लाश सरकार को दान करना चाहता हूँ

बुधवार की दोपहर 12 वर्षीय वंश किसी अन्य दोपहर की तरह ही वह नई दिल्ली में सर गंगा राम अस्पताल के बगल में एमसीडी पार्क में बिता रहा था। उसने अपने दादा की गोद में सर रखा हुआ था, और वह अपनी पसंदीदा लाल फेरारी खिलौना कार के साथ खेला रहा था। उसने महसूस किया की उसका गला सूख गया है और पेट में भी भूख है।

लेकिन सर में भयंकर दर्द की वजह से वह बोल नहीं पा रहा था । उसके दादा जो आमतौर पर शांत रहते हैं आज सरकार के 500 और 1000 रूपये के नोट को रद्द करने के फैसले पर बेहद गुस्सा हैं ।

“मैं पिछले चार दिनों में अपने पोते के इलाज में 70,000 रूपये से अधिक खर्च चूका हूँ। आज हम अटक गए हैं। मेरे पोते के मस्तिष्क में एक थक्का है और बैंक में पैसा नहीं है। अस्पताल नकदी नहीं ले रहा है। अब हम क्या करें?” उन्होंने अफसोस जाहिर किया।

उन दोनों ने पूरे दिन कुछ भी नहीं खाया था। कैंटीन स्टाल पर बैठा व्यक्ति हाल ही में प्रतिबंधित कर दिए गए नोटों को स्वीकार नहीं करेगा।

केंद्र सरकार के आदेश के मुताबिक पुराने नोटों को स्वीकार करने में सरकारी अस्पतालों को छूट है, लेकिन इस आदेश ने निजी अस्पतालों को यह छूट न देकर लोगों को मझधार में छोड़ दिया है। इससे एक अराजक स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिससे अमीर और गरीब समान रूप से प्रभावित हैं।

इसी तरह के दृश्य केमिस्ट की दुकानों पर भी दिख रहे हैं – वहाँ भ्रम है और लंबी कतारें हैं। एक दवा की दुकान है जिसका मैंने दौरा किया, वहां उपद्रव की स्थिति थी, एक जवान औरत दुकानदार के साथ बहसबाजी में उलझी हुयी थी।

उसने मुझे बताया कि उसके पास केवल डिनोटिफाइड मुद्रा थी और उसके खाते में पर्याप्त पैसा नहीं था। जब दुकानदार अंत में सामने आकर चिल्लाया, तब वह भी चिल्लायी, “सरकार तो आदेश दे देती है और हमें खामियाजा भुगतना पड़ता है …”, उसने सिफ़ारिश की “मुझे सिर्फ तीन दिनों के लिए दवा दे दीजिए”।

वापस एमसीडी पार्क में, किशन, उत्तर प्रदेश में पीलीभीत से एक छोटे किसान है, वह हवा में 1,000 रुपये के नोटों का एक बंडल चमक रहा है। वह जानना चाहता है कि अगर वह इस पैसे से अपनी बेटी को उचित उपचार नहीं दिला सकता तब यह किस काम का है।

उसकी बेटी कैंसर से पीड़ित हैं और गंभीर स्थिति में है। वह इस आशा में कल रात घर से निकला कि उसकी बेटी का इलाज हो जाएगा लेकिन आज वह उसे भर्ती कराने के लिए संघर्ष कर रहा है। उसने बताया कि यह नकदी उसने परिवार के सभी गहने और कीमती सामान को बेचने के बाद जुटाई है जो अब किसी लायक नहीं रही। वह कहता है, “मेरे पास बस यही नकदी है । मेरी बेटी ज़िन्दगी और मौत के बीच जूझ रही है । मैं बेहद लाचार हूँ । कुछ नहीं कर सकता ।”

बातचीत के दौरान आसपास भीड़ बढ़ गयी है । यह भीड़ बेहद निराशा और गुस्से में है । करीब बैठे एक व्यक्ति धुलेराम ने लगभग फूटफूट कर रोते हुए बताया, “मेरी पत्नी मृत्युशय्या पर है । डॉक्टर कहता है कि उसे घर ले जाओ जिससे वह अपनी आखरी साँसे अपने घर में ले सके । लेकिन मेरे पास अस्पताल से छुट्टी कराने की औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए पैसा नहीं है । अगर में पत्नी मर जाती है, तो मैं सरकार को बताना चाहता हूँ कि मैं उसकी लाश को सरकार को दान करना चाहता हूँ।”

मेरे कानों में अभी धुलेराम के शब्द गूँज रहे हैं । मैं सरकार के इस फैसले पर पुन:विचार करने पर मजबूर हूँ।

मरीजों की परेशानियाँ और पार्क में रिश्तेदारों के दुःख को देख कर मुझे समझ आ रहा है कि सत्ता के गलियारों में लिए गए फैसलों के आम आदमी की ज़िन्दगी पर प्रभाव को एयर कंडिशन्ड कमरों में बैठ कर नहीं समझा जा सकता।

 

मूल लेख dailyo.in पर प्रकाशित हुआ है। जिसका सियासत के लिए हिंदी अनुवाद मुहम्मद जाकिर रियाज़ ने किया है।