मैं ‘याकूब’ हूं मगर कब तक ?

By Wasim Akram Tyagi

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यहां कोई एक घटना नहीं हैं बल्कि घटनाओं के सिलसिले हैं, सिलसिले भी एसे जो कभी थमने का नाम ही नहीं लेते। सवाल यह नहीं है कि जो याकूब तीस जुलाई को फांसी पर टांग दिया गया क्या एसे याकूब अभी भी हैं ? सवाल यह है कि जो याकूब कुछ महीने पहले अपनी जिंदगी के आठ साल जेल में गुजारने के बाद अदालत से बाइज्जत बरी होते हैं एसे याकूब आखिर कब तक ? आतंकवाद के नाम पर जो आतंक एक ही समुदाय के मन में बैठाया गया है क्या उस समुदाय को ‘पुलिसिया आतंक मुक्त किया जायेगा ? बार बार तथाकथित ‘आतंकवादी’ सलाखों के पीछे घोर यातनाऐं सहते हुए अपनी जिंदगी के दस, पंद्रह साल गुजार आते हैं, मगर उनकी जिंदगी के इस ब्लैक चैप्टर का हिसाब देने वाला उन्हें नहीं मिलता। आखिर क्यों उन पुलिस कर्मियों के खिलाफ कार्वाई नहीं होती जो इन लोगों की जिंदगियों के उन दिनों को लील जाते हैं जिसमें इंसान तरक्की करता है ? आखिर क्यों उनसे मालूम नहीं किया जाता कि क्यों हर बार ‘आतंकवादी’ बाइज्जत बरी हो जाते हैं ? आखिर क्यों पुलिस बार बार पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर एक ही समुदाय में आतंकवादी तलाशती है ? जो कहानियां गिरफ्तारी के दौरान सुनाई जाती है वे अदालत में क्यों नहीं टिक पातीं ? जिस याकूब को दो दिन पहले लखनऊ की अदालत ने बरी किया है, उसे यू.पी. एसटीएफ ने आठ साल पहले गिरफ्तार किया था और साढ़े चार किलो आरडीएक्स भी बरामद करने का दावा किया था। अपनी आठ माह की बच्ची के लिये दवाई लेने जा रहे मोहम्मद याकूब को एसटीएफ ने बिजनौर से ‘दबौचा’ था मगर 12 दिन बाद 21 जून 2007 को लखनऊ से गिरफ्तार दिखाया था। क्या सारा का सारा ब्लू प्रिंट पहले से ही तैयार था कि कहां से गिरफ्तार करना है और कहां पर गिरफ्तारी दिखानी है ? उत्तराखंड से सटे हुए बिजनौर से गिरफ्तार करके एक याकूब को यूपी एसटीएफ राजधानी लखनऊ ले जाकर गिरफ्तारी दिखाती है और उसके आतंकवादी होने का दावा करती है। पुलिस की कहानी को ‘सच’ मानकर मीडिया उसे क्रॉस चैक तक नहीं करता न ही सवाल उठाता, बल्कि अखबारों से लेकर टेलीविजन तक पर याकूब को आतंकवादी बताया जाता है। सवाल है कि अब जब वह बाइज्जत बरी हो गया है क्या अब भी उसी ‘जोश’ के साथ टेलीविजन के एंकर, अखबारों के पन्ने चीख चीख कर कहेंगे कि वह आतंकवादी नहीं था ? सवाल यह भी है कि जिस एसटीएफ ने याकूब के पास से आरडीएक्स बरामद होने का दावा किया था वह अदालत में क्यों नहीं टिक पाया ? अगर वह याकूब के पास से बरामद ही नहीं हुआ था तो फिर एसटीएफ के पास वह आरडीएक्स कहां से आया ? किसके इशारे पर याकूब को गिरफ्तार किया गया ? किस अधिकारी के कहने पर उसके आतंकवादी होने का दावा पेश किया गया ? आखिर एसटीएफ के पास वह आरडीएक्स कहां से आया जिसे याकूब से बरामद दिखाया गया था ? क्या एसटीएफ खुद आरडीएक्स बनाती है और उसे किसी भी नाम विशेष के व्यक्ति से बरामद दिखाकर आतंकवादी होने का आरोप लगाकर जेल में डाल देती है ? क्या एसटीएफ के उन अधिकारियों के खिलाफ कार्रावाई नहीं होनी चाहिये जिन्होंने उसे आतंकवादी बताकर उसकी जिंदगी के आठ साल खत्म कर दिये ? अभी पिछले दिनों जब याकूब मैमन को फांसी दी गई तो कुछ लोगों ने “मैं याकूब हूं” लिखा था, इसके पीछे उस ‘गुस्से’ का इजहार किया गया था कि मैमन का जुर्म इतना बड़ा नहीं था कि उसे फांसी दी जाये। मगर “मैं कब तक याकूब बनता रहुंगा” क्या इस सवाल का जवाब भारतीय राज्य व्यवस्था से नहीं पूछा जाना चाहिये ? पुलिस, एसटीएफ, की आंखों पर लगा पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने का चश्मा आखिर कब हटेगा ? आखिर कोई समुदाय कब तक ‘याकूब’ होने के दंश को झेलता रहेगा ? नाम, विशेष पहचान के आधार पर होने वाली गिरफ्तारियां आखिर कब रुकेंगी ? या रुकेंगी भी अथवा नहीं ? पुलिस की इस पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर कार्रावाई करने का खामियाजा समुदाय विशेष के लोगों को अपनी जिंदगी का लंबा वक्त सलाखों के पीछे काटकर भुगतना पड़ रहा है। एक बार गलत तरीके से किसी समुदाय के खिलाफ कार्वाई हो सकती है, दो बार हो सकती है मगर क्या हर बार एसा ही होता रहेगा कि समुदाय विशेष से किसी को आतंकवादी बनाकर गिरफ्तार किया जाये मगर वह अदालत से अपना सबकुछ बर्बाद करने बाद बरी हो जाये इन सवालों के जवाब तलाशना भारतीय राज्य व्यवस्था की जिम्मेदारी है और वह तभी संभव है जब निष्पक्षता सिर्फ किताबों में नहीं बल्कि व्यवहार में लाई जाये। क्या एसा हो पायेगा ?