मोअज्जन मक्का मस्जिद के ख़ानदान के साथ हुकूमत का मुआनिदाना(ना मोनासिब) रवैय्या

नुमाइंदा ख़ुसूसी- दीन इस्लाम में मोअज्जन हज़रात को काफ़ी अहमीयत दी गई। देनी-ओ-दुनयवी एतबार से उन का बहुत ऊंचा दर्जा बताया गया है। तारीख़ इस्लाम के मुताला से पता चलता है कि मोअज्जन हज़रात ने हर दौर में अहम ख़िदमात अंजाम दी हैं। अहादीस मुबारका में भी मोअज्जनों की फ़ज़ीलत-ओ-अहमीयत को बताया गया है लेकिन अफ़सोस कि आज मोअज्जन हज़रात को मुआशरा में वो मुक़ाम-ओ-मर्तबा हासिल नहीं है जैसा कि इस्लाम ने उन्हें दिया है। देखा जाय तो मोअज्जन हज़रात और उन के ख़ानदानों का शुमार इंतिहाई ग़रीब तबक़ा में होने लगा है। वो इंतिहाई कसमपुर्सी की ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं।

आम मुस्लमान भी इस जानिब कोई तवज्जा नहीं देते जबकि सरकारी सतह पर तो कोई पूछने वाला ही नज़र नहीं आता। हद तो ये है कि मोअज्जनों की अक्सरीयत की ग़ुर्बत का हाल ये है कि वो अपनी औलाद को अच्छी तालीम-ओ-तर्बीयत दिला सकते हैं और ना ही वो उन की शादीयों की अंजाम दही की इस्तिताअत(माली ताकत) रखते हैं। एक तरह से मोअज्जन हज़रात की क़दर हमारे मुआशरा में कम होगई है। मोअज्जनों की हालत-ए-ज़ार के बारे में जब हम ने लिखने के बारे में सोचा तो अचानक ज़हन में तारीख़ी मक्का मस्जिद के काबिल तरीन साबिक़ मोअज्जन हाफ़िज़-ओ-क़ारी मुहम्मद अब्दुल हादी का ख़्याल आगया।

इस तरह हम ने सोचा कि इस मर्तबा उन के ख़ानदान की हालत-ए-ज़ार के बारे में लिखा जाय। क़ारईन आप को बतादें कि हाफ़िज़-ओ-क़ारी मुहम्मद अब्दुल हादी ने तारीख़ी मक्का मस्जिद में बहैसीयत मोअज्जन 38 साल ख़िदमात अंजाम दिं। 26 नवंबर 2011 -को उन का इंतिक़ाल हुआ। वाज़ेह रहे कि मक्का मस्जिद और शाही मस्जिद बाग़ आम्मा रियास्ती हुकूमत के महिकमा अक़लीयती बहबूद के तहत हैं और इन दोनों मसाजिद के अइम्मा-ओ-मोज़नीन के इलावा दीगर स्टाफ़ को इस महिकमा की जानिब से तनख़्वाहें अदा की जाती हैं लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि 58 साल की उम्र में इंतिक़ाल कर जाने वाले हाफ़िज़-ओ-क़ारी अब्दुल हादी के इंतिक़ाल के वक़्त भी हुकूमत की जानिब से कोई इमदाद नहीं की गई और तक़रीबन 8 माह के बाद भी मरहूम मोअज्जन साहब की बेवा को कोई मुआवज़ा ना मिल सका।

जबकि ये ख़ानदान इंतिहाई कसमपुर्सी की ज़िंदगी गुज़ार रहा है। इन के इंतिक़ाल के बाद उनके फ़र्ज़ंद (बेटे)अबदुल बसीर मक्का मस्जिद में मोअज्जन की हैसियत से ख़िदमात अंजाम दे रहे हैं। आप को ये जान कर हैरत होगी कि इस नौजवान को भी 8 माह के दौरान हुकूमत एक रुपया तनख़्वाह तक अदा करने से क़ासिर रही। वो अस्र, मग़रिब और इशा में अज़ां देते हैं। इस सिलसिला में राक़िम उल-हरूफ़ ने मरहूम मोअज्जन साहब की बेवा से मुलाक़ात की। उन्हों ने बताया कि हम ग़रीब और मुस्तहिक़ लोग हैं। मेरे शौहर का 38 साल तक ख़िदमत अंजाम देने के बाद इंतिक़ाल हुआ। इस वक़्त हमें तयक्कुन दिया गया था कि दो लाख रुपये मुआवज़ा दिया जाएगा और हाल ही में ये इत्तिला भी मिली कि दो लाख रुपये मंज़ूर किए जा चुके हैं लेकिन अब तक एक पैसा भी नहीं दिया गया।

आईशा बेगम के मुताबिक़ मक्का मस्जिद जैसी तारीख़ी मस्जिद के मोअज्जन के साथ इस तरह का सुलूक अफ़सोसनाक है। उन्हों ने ज़ोर दे कर कहा कि होना तो ये चाहीए था कि इंतिक़ाल के फ़ौरी बाद रक़म दे दी जाती। बेवा को वज़ीफ़ा (पेनशन) मुक़र्रर किया जाता और फ़र्ज़ंद (बेटे)की मुलाज़मत मुस्तक़िल की जाती लेकिन ऐसा ना हो सका। आईशा बेगम ने बताया कि इन के शौहर ने 70 रुपये माहाना तनख़्वाह से काम शुरू किया था और जब इंतिक़ाल करगए उस वक़्त उनकी तनख़्वाह 10,900 रुपये थी। इस नेक सिफ़त शख़्स की मौत ऐसे वक़्त हुई जब वो घर के क़रीब मस्जिद वाहिद उलनिसा-बेगम में इमामत के लिए आगे बढ़ रहे थे कि अचानक उन के क़लब पर हमला हुआ और वहीं उन की रूह क़फ़स-ए-उंसरी से परवाज़ कर गई (मौत हो गइ)। ऐसे नेक दिल और दयानतदार-ओ-ईमानदार शख़्स के साथ अक़लीयत दोस्त होने का दावा करने वाली हुकूमत का ये सुलूक है।

कम अज़ कम महिकमा अक़लीयती बहबूदको इस बारे में तो सोचना चाहीए था कि ये मुआमला हैदराबाद ही नहीं बल्कि हिंदूस्तान की तारीख़ी मस्जिद, मक्का मस्जिद के मोअज्जन से ताल्लुक़ रखता है। वाज़ेह रहे कि मक्का मस्जिद में 24 अरकान आमिला है। मुस्लियों की तादाद मस्जिद की तारीख़ी अहमीयत के लिहाज़ से ये अमला इंतिहाई नाकाफ़ी है। स्टाफ़ ने भी हाफ़िज़-ओ-क़ारी अब्दुल हादी मरहूम के ख़ानदान के साथ हुकूमत के मुआनिदाना(ना मोनासिब) रवैय्या की मुज़म्मत की और अफ़सोस का इज़हार किया। इन लोगों का कहना है कि इंतिक़ाल के वक़्त ही मरहूम मोअज्जन साहब के ख़ानदान की इमदाद की जानी चाहीए थी। मक्का मस्जिद के अरकान अमला का ये भी कहना है कि हुकूमत हाफ़िज़-ओ-क़ारी अब्दुल हादी मरहूम के ख़ानदान को फ़ौरी मुआवज़ा अदा करे।

बेवा को वज़ीफ़ा मुक़र्रर करे और साथ ही मरहूम के फ़र्ज़ंद (बेटे) मुहम्मद अबदुल बसीर की मुलाज़मत को मुस्तक़िल किया जाय। यहां इस बात का तज़किरा ज़रूरी होगा कि तक़रीबन 5 अकऱ् अराज़ी पर फैली इस तारीख़ी मस्जिद में ना सिर्फ स्टाफ़ की कमी है बल्कि स्टाफ़ की तनख़्वाहें भी बहुत कम हैं। महंगाई के इस दौर में नाकाफ़ी तनख़्वाहें मुलाज़मीन के लिए मसाइल-ओ-मुश्किलात ही पैदा कर सकती हैं। ऐसे में महिकमा अक़लीयती बहबूद को चाहीए कि वो इन दोनों मसाजिद के आइमा-ओ-मोअज्जन साहिबान के इलावा दीगर स्टाफ़ की तनख़्वाहों में महंगाई को देखते हुए वाजिबी इज़ाफ़ा करे और जो अक़लीयत दोस्त होने का वो दावा करती है इस का सबूत दे।