‘मोदी के मोहताज नहीं आज़मगढ़ के मुसलमान’

कुछ ही दिन पहले आज़मगढ़ में अपने इंतेखाबी दौरे के दौरान बीजेपी के लीडर अमित शाह ने आज़मगढ़ को ‘दहशगर्दो का अड्डा बताया क्योंकि आज़मगढ़ के लोगों को हुकूमत से कोई डर नहीं रहा’ |

अमित शाह के इस मुतनाज़ा बयान की तकरीबन सभी सियासी पार्टियों ने मुज़म्मत की और इसे ‘सियासत से हौसला अफ्ज़ाई बताया था’| हालांकि बाद में सफ़ाई देते हुए अमित शाह ने कहा कि वो सिर्फ़ सरकारी आंकड़ों और पुराने मामलोँ पर ही बात कर रहे थे | लेकिन आज़मगढ़ में इस बात को लेकर ख़ासा ग़ुस्सा है कि सियासी पार्टियों ने अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ उनके शहर के बारे में इस तरह के तब्सिरे किये हैं |

शहर की सँकरी गलियों में कूड़े के ढ़ेर, बुनियादी सहूलियात की कमी , न के बराबर सनत और उससे जुड़ी हुई नौकरियों की गैर-मौजूदगी |

कुछ यही मंज़र है आज़मगढ़ का, जहाँ जाने-माने उर्दू दानिश्वर शिबली नोमानी और कैफ़ी आज़मी जैसे भी पैदा हुए और एक ज़माने में माफ़िया डॉन रहे अबू सलेम भी |

इलाक़े के नौजवानो को लगता है कि लीडरों ने आज़मगढ़ का इस्तेमाल अपने फ़ायदे के लिए किया है तो बुज़ुर्गों को आने वाली नस्ल के महफूज़ रहने का ख़ौफ़ सता रहा है |

जावेद ख़ान एक अमीर खानदान से हैं और उनके यहाँ न तो गाड़ियों की कमी है और न ही मवेशियों की | जावेद ख़ान तकनीक से रूबरू और पढ़े-लिखे जावेद को सिर्फ़ अपने शहर पर लगने वाले इल्ज़ामो का मलाल है |

वे कहते हैं, “लीडरों को इस बारे में मालूमात ही नहीं कि शहर में मुसलमान रावण दहन में शामिल होते हैं और बारह वफ़ात के जुलूस के दौरान हिन्दू उनका इस्तक़बाल करते हैं | चंद भटके हुए नौजवानों की वजह से पूरे शहर पर इल्ज़ाम लगाना ग़लत है. हम दूसरे शहर जाते हैं तो होटलों में हमें कमरे नहीं मिलते और लोग घर किराए पर नहीं देते” |

ज़्यादातर लोगों को अफसोस है कि चाहे वह 1990 के दहा का गुलशन कुमार कत्ल केस हो या फिर मुंबई के बम धमाके, आज भी बाहरी लोग उनमें आजमगढ़ के लोगों का मुबय्यना तौर पर हाथ होने की बात दोहरा जाते हैं |

अफ़सोस ये भी है कि साल 2008 में बटला हाउस मुठभेड़ का ठीकरा आज़मगढ़ पर फ़ोड दिया गया | ‘सच दुनिया को मानना पड़ेगा’ शहर के बुज़ुर्गों को लगता है कि आज़मगढ़ से बाहर निकलने वाली हर चीज़ ख़राब नहीं होती और ये सच दुनिया को मानना पड़ेगा |

बनवारी लाल जालान अब बुज़ुर्ग हो चले लेकिन आज भी आज़मगढ़ के सबसे मशहूर सहाफियों में उनका नाम शुमार है |उन्होंने बताया, “जो आज़मगढ़ को दहशतगर्दों का गढ़ बताते हैं वो सिरफ़िरे लोग हैं | अबू सलेम 12 -14 साल के थे, तभी मुंबई चले गए थे | अब उनके तार किसी माफ़िया से रहें भी हों तो इसमें आज़मगढ़ का क्या कसूर | लाखों की आबादी में चार लाख लोग बाहर ही रहते हैं किसी लीडर ने कभी सोचा कि क्या करें जिससे नौजवान ग्रुप ज़िला छोड़ कर न जाए?”

आज़मगढ़ में 12 मई को वोटिंग होनी है लेकिन शहर के आम शहरियो को बदलाव और तरक्की की उम्मीद से ज्यादा ‘आज़मगढ़ को दहशतगर्द’ कहे जाने की फिक्र है |

किसी बड़े लीडर या फिर मुकामी लीडरों ने शायद ही ग़ौर किया हो कि शहरियों के लिए कितना मुश्किल हो जाता है बाहर जाकर आज़मगढ़ की तरफ़दारी करना |

आज़मगढ़ के सबसे मशहूर मुकामो में से एक है आज़ादी से पहले से चल रहा शिबली स्कूल और उसके ठीक पीछे वाके शिबली अकादमी |

उमैर नदवी यहां के चीफ हैं और इस बात से मजरूह हैं कि उनके शहर को दहशतगर्दों से ही जोड़ा जाता रहा है | वे कहते हैं, “हिंदुस्तान की सियासत जिस सिम्त में जा रही है, उससे हमें डर लगता है. चाहे अमित शाह हो या दूसरा कोई, किसी को पूरे आज़मगढ़ पर ऐसा कड़वा इल्ज़ाम लगाने की ज़रूरत नहीं है | मोदी या किसी और लीडर के मोहताज नहीं हैं यहां के मुसलमान |

हिन्दुओं और मुसलमानों में हमने कभी फ़र्क नहीं समझा है और ये हमारी तालीम का भी हिस्सा है” |
हालांकि तमाम सियासी पार्टियां के लीडर बात से इनकार करते हैं कि आज़मगढ़ को दहशतगर्दों से जोड़ा जाता रहा है | रमाकांत यादव इस हल्के से भाजपा के उम्मीदवार हैं और पहले भी एमपी रह चुके हैं |

वे कहते हैं कि “अमित शाह के बयान को मुखालिफो ने तोड़-मरोड़ कर पेश किया है | आप मीडिया वालों का फर्ज़ है उसे सही नुके नज़र में देखें”.

बहरहाल आज़मगढ़ में सच्चाई ये भी है कि सड़कों पर चलने वाले नौजवान कैमरे के सामने बात करने से कतरा जाते हैं, क्योंकि इंतेखाबी मौसम के बीच भी ज़्यादातर को डर है कि कल को उनके दरवाज़े पर भी देर रात दस्तक न दी जाए |

————बशुक्रिया: बीबीसी