मोहर्रम के महीने के दो अजीम सानेहा

(मौलाना मोहम्मद जकीरउद्दीन)मोहर्रम का महीना इस्लामी तकवीम का पहला महीना है जिसकी बुनियाद नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की मदीना हिजरत के वाक्ये पर रखी गई है। इससे पहले की तकवीमें किसी अहम शख्सियत के यौमे विलादत या किसी वाक्ये पर मबनी होती थीं।

जैसा कि सन ईसवी हजरत ईसा (अलैहिस्स्लाम) के यौमे विलादत से वाबस्ता है तो यहूदी सन हजरत सुलेमान (अलैहिस्सलाम) की तख्तनशीनी के एक पुर शिकवा वाक्या है। इसी तरह बिक्रमी सन राजा बिक्रमाजीत की पैदाइश की याद दिलाता है। लेकिन इस्लामी सन नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की हिजरत के उस अजीमुश्शान वाक्ये की यादगार है जिससे इस्लाम को सरबुलंदी और इकबाल नसीब हुआ।

इससे इस्लामी एत्तेहाद की इब्तिदा और इस्लामी मेलजोल व बराबरी की शुरूआत हुई। मक्का में मुसलमान मजलूम और मगलूब थे मगर हिजरत के बाद वह फातेह और गालिब हो गए। मुसलमान अपने दीन का एलानिया इजहार करने लगे, लोग जौक दर जौक इस्लाम में दाखिल होने लगे और हक का बोलबाला हो गया। इसलिए इक्कीस हिजरी में हजरत उमर फारूक (रजि0) की खिलाफत में उनके सामने एक तहरीर पेश हुई जिस पर तारीख की जगह पर शाबान लिखा हुआ था।

हजरत उमर फारूक (रजि0) ने दरयाफ्त किया कि यह कैसे मालूम हो कि यह गुजिश्ता शाबन की तहरीर है या कि मौजूदा शाबान की? इस मसले पर मजलिसे शूरा मुनअकिद हुई और हजरत अली की राय पर सबका एत्तेफाक हुआ कि हिजरते नबवी (सल0) से सन हिजरी का आगाज किया जाए।

मोहर्रम महीने की तारीख की अहमियत इसलिए भी बढ़ जाती है कि इसी महीने में हजरत आदम (अलैहिस्सलाम) की तौबा कुबूल हुई, इसी महीने में हजरत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) पैदा हुए, इसी महीने में हजरत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) को जिस आग में डाला गया उस आग को अल्लाह ने गुलजार बना दिया, इसी महीने में हजरत नूह (अलैहिस्सलाम) की कश्ती तूफान से किनारे लगी, इसी महीने में हजरत यूसुफ (अलैहिस्सलाम) को कैदखाने से रिहाई मिली, इसी महीने में हजरत यूनुस (अलैहिस्सलाम्) मछली के पेट से बाहर निकले, इसी महीने में हजरत अयूब (अलैहिस्सलाम) ने बीमारी से निजात पाई, हजरत सुलेमान (अलैहिस्सलाम) को पूरी दुनिया की बादशाहत इसी महीने में अता हुई, हजरत याकूब (अलैहिस्सलाम) की बीनाई भी इसी महीने में वापस आई और इसी महीने में हजरत मूसा (अलैहिस्सलाम) पैदा हुए।

अल्लाह तआला ने इसी महीने की दसवीं तारीख को आसमान, पहाड़ कलम और कुर्सी को पैदा फरमाया जबकि रिवायात के मुताबिक कयामत भी इसी दिन आएगी। इसी महीने में उमर फारूक (रजि0) की शहादते उजमा का सानेहा पेश आया और इसी महीने में नवासा-ए-रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) हजरत हुसैन (रजि0) ने जामे शहादत नोश किया।

बहरहाल हम यहां आखिर में जिक्र की गई दो शख्सियात अमीरूल मोमिनीन हजरत उमर फारूक (रजि0) और नवासा-ए-रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) हजरत हुसैन इब्ने अली (रजि0) की शहादत का मुख्तसर जिक्र कर रहे हैं जिन्होंने खुदा की राह में शहादत पाई।

इस्लाम के गलबे के बाद अगर मोहर्रम महीने में किसी बड़ी शख्सियत का सबसे बडा सानेहा पेश आया तो वह अमीरूल मोमिनीन सैयदना हजरत उमर फारूक (रजि0) की शहादते उजमा का सानेहा है। सैयदना हजरत उमर फारूक (रजि0) उन जलीलुल कद्र हस्तियों में से थे जिन्होंने इस्लाम के लिए बेशुमार खिदमात सर अंजाम दी। आप (रजि0) को मुरादे मुस्तफा भी कहा जाता है कि आप (रजि0) का कुबूले इस्लाम रसूले खुदा (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की दुआओं का समर था।

अल्लाह तआला ने हजरत उमर फारूक (रजि0) को दौलते इस्लाम से नवाजा तो मुसलमानों को फरहत व इंबिसात के साथ बड़ी तकवियत हासिल हुई। इससे पहले मुसलमानों को मक्का के काफिरो की तरफ से तरह-तरह की तकलीफों में मुब्तला किया जाता था। कोई मुसलमान खुलेआम इबादत नहीं कर सकता था। आप के कुबूले इस्लाम के इस्लाम के तमाम दुश्मनों के अजायम खाक में मिल गए।

दीने इस्लाम से तरवीज व तरक्की में तेजी आने लगी। अब मुसलमान अल्लाह तआला की इबादत एलानिया तौर पर करने लगे। सूरा इंफाल में अल्लाह का इरशाद है- ‘‘ ऐ नबी ! तुझे अल्लाह काफी है और मोमिनों में से तेरे वह गुलाम जो तेरे फरमांबरदार है।’’ जहूर मुफस्सिरीन का कहना है कि यह आयत उस वक्त नाजिल हुई जब सैयदना फारूके आजम (रजि0) इस्लाम में आए। अल्लाह तआला ने आप (रजि0) की राय की ताईद में कई कुरआनी आयतें नाजिल फरमाईं।

अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) का फरमान भी है कि मेरे बाद अगर कोई नबी होता तो उमर होते।
आप (रजि0) का दस साला अहदे खिलाफत आलमी तारीख का वह सुनहरी दौर है जिसे रहती दुनिया तक एक मिसाली दौर की हैसियत से याद रखा जाएगा। आप ने बाइस लाख स्क्वायर मील के इलाके पर मुहीत एक ऐसा मिसाली निजामे हुकूमत कायम किया जो हर दौर के लिए काबिले तकलीद है।

आप (रजि0) ने खिलाफते इस्लामिया को फतेह के जरिए बेपनाह वुसअत दी। सत्ताइस जिलहिज्जा को एक ईरानी मजूसी अबू लौ लौ ने आप (रजि0) को नमाजे फजिर की अदाएगी के दौरान तेज दो धारी खंजर मारकर शदीद जख्मी कर दिया जबकि एक मोहर्रम को इसी जख्म की वजह से आप (रजि0) ने शहादत का अजीम मरबता पाया।

हजरत उमर फारूक की शहादत के बारे में यूं वारिद है कि हजरत मुगीरा बिन शाबा (रजि0) का एक गुलाम अबू लौ लौ एक मजूसी था। यह मजूसी एक बार हजरत उमर फारूक (रजि0) के पास अपने मालिक की शिकायत लेकर आया कि उसका मालिक मुगीरा बिन शाबा (रजि0) उससे रोजाना चार दरहम वसूल करते हैं। आप उसमें कमी करा दीजिए।

अमीरूल मोमिनीन ने फरमाया तुम बहुत से काम के हुनरमंद हो तो चार दरहम रोज के तुम्हारे लिए ज्यादा नहीं है। यह जवाब सुनकर वह गुस्से में आग बबूला हो गया और आप को कत्ल करने का मुकम्मल इरादा कर लिया और अपने पास एक जहर आलूद खंजर रख लिया।

सत्ताइस (27) जिल हिज्जा तेइस (23) हिजरी बरोज बुध आप फजिर की नमाज की अदाएगी के लिए जब मस्जिदे नबवी में तशरीफ लाए और नमाज पढ़ाने के लिए खड़े हुए तो इस्लाम दुश्मन मजूसी अबू लौ लौ आप पर हमलावर हो गया और इतना सख्त वार किया कि आप बुरी तरह जख्मी हो गए और तीन दिन के बाद दस साल छः महीना और चार दिन मुसलमानों की खिलाफत के मामले अंजाम देने के बाद जामे शहादत नोश फरमाया।

वह मोहर्रम ही का महीना था जिस में हजरत इमाम हुसैन ने भी हक की खातिर अपने बहत्तर नौजवानों को कर्बला के मैदान में कुर्बान करने के बाद खुद भी कुर्बान हो गए। वह हुसैन (रजि0) जिन्होंने नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की सरपरस्ती और आगोशे फातिमा (रजि0) में परवरिश पाई। खुद नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने जिनका नाम हुसैन रखा, कान में अजान दी, खुद शहद चटाया और मुंह का लुआब उनके मुंह में डाला जिनसे नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) बेपनाह मोहब्बत फरमाते, जिनको नबी रहमत (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) गोद में उठाते, सीने पर खिलाते, होंटो पर बोसा देते और चेहरा चूमते।

जिनको नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने अपनी जिंदगी की बहार कहा और यह भी कहा हसन व हुसैन दोनों मेरे दुनिया के फूल हैं और यह भी फरमाया कि हसन (रजि0) और हुसैन (रजि0) जन्नत के जवानों के सरदार हैं। आखिर उनकी वालिदा भी तो जन्नत की औरतों की सरदार जो थी जिनके लिए आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने दुआ फरमाई और फरमाया यह दोनों मेेरे और मेरी बेटी के बेटे हैं।

ऐ अल्लाह ! मैं इनसे मोहब्बत करता हूं तू भी इनसे मोहब्बत फरमा और जो इनसे मोहब्बत करे उससे भी मोहब्बत फरमा। जिनकी किस्मत कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) इन शहजादों को अपने साथ लिपटा कर रखते थे। जो चेहरे में आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) से मुशाबहत रखते थे और धड़ में अपने वालिद हजरत अली से। जिनको उनके भाई के साथ नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) अपने कंधे पर सवार किया करते थे। जो जुमा के खुतबे में भी अपने भाई के साथ गिरते पड़ते आ जाते तो आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) खुतबा रोक कर मिम्बर से उतर कर उन्हें उठा लेते हैं और फरमाते- बेशक अल्लाह तआला ने सच फरमाया है कि तुम्हारे माल व औलाद आजमाइश है, मैंने इन दोनों को देखा तो सब्र न कर सका।

इसके बाद आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) खुतबा मुकम्मल करके उनके बारे में फरमाते- ‘‘ हुसैन मुझ से है और मैं इससे हूं, अल्लाह भी इससे मोहब्बत करता है जो हुसैन से मोहब्बत करता है।’’ एक बार फरमाया -‘‘ जो हसन व हुसैन से मोहब्बत रखे उसने मुझ से मोहब्बत रखी और जो इनसे बुग्ज रखे उसने मुझ से बुग्ज रखा।’’ आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) से पूछा गया कि आप अहले बैत में से सबसे ज्यादा मोहब्बत किससे करते हैं? फरमाया -‘‘ हसन व हुसैन से।’’ और आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) हजरत फातिमा (रजि0) से फरमाया करते थे कि मेरे दोनों बेटों को बुलाओं और फिर उन्हें सूंघते और अपने साथ चिपटाते।

हजरत हुसैन भी उसी यहूदी सबाई टोले की साजिश और बेवफाई का शिकार हुए जिसने पहले हजरत उस्मान (रजि0) को शहीद कराया फिर खिलाफते अली (रजि0) के जमाने में हजरत अली (रजि0) की बातें मानने से इंकार किया जिनकी खुफिया कोशिशों से हजरत अली (रजि0) और हजरत मआविया (रजि0) में बदजनी पैदा हुई जिनके भड़काने से जंगे जमल, सफीन और नहरवान बरपा हुई और उन्होंने ही सुलह नहीं होने दी।

हजरत हसन (रजि0) ने हजरत मआविया (रजि0) से सुलह की तो उन्हें तकलीफे पहुंचाई। आखिरकार उन्हें जहर देकर शहीद कर दिया। (हजरत हसन की शहादत का गम यह नहीं मनाते क्योंकि उनके सुलह करने पर वह राजी न थे)। इसी आले इब्ने सबा ने हजरत हुसैन (रजि0) को हजारों की तादाद में खत लिखकर कूफा बुलवाया और जब उन्होंने भी सुलह की बात की तो इस डर से कि उनके मक्र व फरेब का परदा फाश न हो जाए उन्हें शहीद करवा दिया गया।

हजरत हुसैन (रजि0) ने हक की आवाज बुलंद करने के लिए तलवार हाथ में ली और मर्दानावार मुकाबला किया और लड़ते लड़ते शहीद हो गए। जिस शख्स के हाथ से हजरत इमाम हुसैन (रजि0) शहीद हुए वह किब्ला आले मदहल का आदमी था। अगरचे उसके बारे में और भी कौल है। यह शख्स आप का सर तन से जुदा करके इब्ने जयाद के पास लेकर गया। उसने सर मुबारक यजीद के पास भेज दिया।

उधर उमर बिन साद भी हजरत इमाम हुसैन (रजि0) के घर वालों को लेकर इब्ने जयाद के पास पहुंच गया। उनका सिर्फ एक लड़का अली बिन हुसैन (रजि0) (हजरत जैनुल आब्दीन) बचा था। जो इस रिवायत के रावी अबू जाफर बाकर के वालिद थे। तारीखे तिबरी की रिवायत में है कि सनान बिन अनस नखई ने शहीद किया और खौली अल सजी ने सर काटा। आप की शहादत की पेशगोई खुद नबी करीम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने की थी। इसलिए हदीस है –

हजरत अनस बिन मालिक (रजि0) से रिवायत है कि बारिश के फरिश्ते ने आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की बारगाह में हाजिरी की इजाजत चाही तो आप ने उसे शर्फे बारयाबी का मौका इनायत फरमाया। आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने हजरत उम्मे सलमा से फरमाया कि दरवाजे की तरफ ध्यान देना कि कोई अन्दर न आने पाए लेकिन हजरत इमाम हुसैन (रजि0) कूदते-फांदते आप (सल0) तक पहुंच गए और आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के कंधे पर कूदने लगे। फरिश्ते ने फरमाया- ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम)! क्या आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) इस (इमाम हुसैन) से मोहब्बत करते हैं? आप (सल0) ने फरमाया- हां, क्यों नहीं।

फरिश्ते ने कहा कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की उम्मत इसे कत्ल कर देगी अगर आप चाहें तो वह मिट्टी लाकर आप को दिखला दूं जहां इसे कत्ल किया जाएगा। फिर फरिश्ते ने अपना हाथ जमीन पर मारा और लाल रंग की एक मुट्ठी भर मिट्टी अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की खिदमत में रख दी। (मसनद अहमद)

सैयदना इमाम हुसैन (रजि0) की शहादत बिला शुब्हा सब्र व इस्तकामत, रजा व जांनिसारी और इताअते इलाही की लाजवाल मिसाल और बेहतरीन नमूना है। ऐन मैदाने जंग में जब कि तीरो की बारिश, नेजो की चमक और तलवारों की झंकार से घोड़े भी आगे बढ़ने से इंकार कर देते, बड़े-बड़े सूरमाओं के दिल दहलते और कदम उखड़ने लगते। उस ऐन मैदाने जंग में भी हजरत हुसैन (रजि0) रोजे से हैं, मैदाने जंग में भी कोई नमाज कजा नहीं होती, अहले बैत की औरते इस सख्त आजमाइश में भी जबकि कलेजे मुंह तक आ गए उस वक्त भी बेपर्दा नहीं हुईं।

यही वह अजमियत, तकवा और शौके शहादत है जिसने हजरत हुसैन (रजि0) को आला मकाम तक पहुंचा दिया। यही अज्म व हौसला हर मुसलमान के दिल में हक के लिए हमेशा मौजूद होना चाहिए। अल्लाह हमें इन अजीम शहीदों के नक्शे कदम पर चलने की तौफीक अता फरमाए- आमीन।

—————–बशुक्रिया: जदीद मरकज़