मौत और ज़िंदगी आज़माईश हैं

जिसने पैदा किया है मौत और ज़िंदगी को, ताकि वो तुम्हें आज़माए कि तुम में से अमल के लिहाज़ से कौन बेहतर है। और वही दाइमी इज़्ज़त वाला, बहुत बख़्शने वाला है। (सूरत अल‍ मुल्क।२)

पहले फ़रमाया गया कि मौत और हयात का तसलसुल क़ायम करने वाला अल्लाह तआला है। इसी के हुक्म से कोई चीज़ मारज़ वजूद में आती है और इसी के हुक्म से निस्त-ओ-नाबूद होती है। कोई चीज़ ना ख़ुद ब ख़ुद मौजूद हो सकती है और ना अज़ ख़ुद मादूम हो सकती है।

साथ ही उसकी हिक्मत भी बयान कर दी कि इससे मक़सद तुम्हारा इम्तेहान लेना है कि हमने समा-ओ-बसर और फ़हम-ओ-तदब्बुर की जो बेपनाह सलाहीयतें तुम्हें अता फ़रमाई हैं, फिर उस निज़ाम कायनात में तुम्हें आली-ओ-अर्फ़ा मुक़ाम बख्शा है और तुम्हारी रहनुमाई के लिए अंबिया ओ रसूल को मबऊस फ़रमाया है।

देखना ये है कि इन नेअमतों की तुम क़दर पहचानते हो और उन कुव्वतों को अपनी ख़ुशी से रज़ा ए इलाही के हुसूल के लिए सिर्फ़ करते हो या दौलत और इक्तेदार, जवानी और सेहत का नशा तुम्हें बदमस्त कर देता है और तुम अल्लाह तआला की नाफ़रमानी में अपनी क़ुव्वतें और अपना वक़्त ख़र्च करते हो।

अगर इंसान आयत के सिर्फ़ इसी हिस्सा (लयबलूवकुम अय्यूकुम अहसनु अमला) में ग़ौर करे तो उसकी हिदायत पज़ीरी के लिए काफ़ी है। इसके दिल में ये एहसास पुख़्ता हो जाता है कि ये दुनिया इसके लिए इम्तेहान गाह है।

ये हयात-ए-मुसतआर इसके लिए इम्तेहान की मुद्दत है और इम्तेहान वो ले रहा है, जो ज़ाहिर-ओ-बातिन, ख़फ़ी-ओ-जली और ग़ैब-ओ-शहादत का जानने वाला है। अगर ये यक़ीन हासिल हो जाये तो फिर क्या मजाल कि इंसान गुनाहों से अपने दामन-ए-हयात को आलूदा करे।