म्यांमार में थम नहीं रही मुस्लिम नस्लकुशी की वारदातें

म्यांमार में मुसलमानों के लिए रोज बरोज जमीन तंग होती जा रही है। 02 अप्रैल को राजधानी यंगून में पेश आने वाले आतिशजदगी के वाक्ये ने पूरी तरह से यह उजागर कर दिया है कि बौद्ध मजहब के पैरोकार जो अपने को दुनिया का सबसे अमन पसंद मजहब करार देते हैं वहीं म्यांमार में मुसलमानों के खिलाफ कत्ल व गारतगरी और खूंरेजी का एक अर्से से बाजार गर्म किए हुए हैं और वहां के मुस्लिम बाशिंदो पर मुसलसल मजालिम ढाने का सिलसिला जारी रखे हुए हैं।

न वहां की हुकूमत बौद्ध भिक्षुओं पर कोई फंदा डालने में कामयाब हो रही है और न ही जम्हूरियत की अलमबरदार नोबुल अमन की इनाम याफ्ता आंग सान सू की जुल्म व जब्र के खिलाफ अपनी जबान खोलने को तैयार दिखाई दे रही हैं। नतीजा यह कि जम्हूरियत की जानिब तेजी से कदम बढ़ाते म्यांमार में वहां के मुसलमान अपने को इंतिहाई गैर महफूज महसूस करते हुए खौफ और दहशत की जिंदगी जीने को मजबूर हैं।

न यूएन उनकी मदद में कोई करारदाद मंजूर करा पाया है, न इस्लामी मुल्कों की जानिब से उनकी मदद की कोई तदबीर निकल पाई है और सबसे बढ़कर अमेरीका जो अपने आप को इंसानी हुकूक का सबसे बड़ा चैम्पियन करार देता है म्यांमार की थेन सेन हुकूमत के खिलाफ कोई इकदाम करने को तैयार नजर आ रहा है। उल्टे उस पर जो पाबंदियां लगी थी उन्हें खत्म करके हर तरह इमदाद व तआवुन से नवाज रहा है।

राजधानी यंगून में वाके मस्जिद मदरसा और हिफ्ज के तलबा (बच्चों) की रिहाइश में पिछले दो अप्रैल को आतिशजदगी का जो वाकिया पेश आया था उसने पूरे म्यांमार के मुसलमानों को बुरी तरह खौफ और दहशत में मुब्तला कर दिया है। मुसलमानों में इस वाक्ये ने गम व गुस्से को बढ़ा दिया है।

आतिशजदगी में मरने वाले बच्चों की तदफीन के वक्त नौजवान मुसलमानों में जो गुस्सा पाया जा रहा था वह इसी का इशारा था कि अब पानी सर से ऊंचा हो गया है। अगर उनके खिलाफ हो रहे मजालिम का सिलसिला नहीं रूका तो तमाम खराब हालात और बेसरोसामानी के बावजूद अपने तौर से मुकाबला करने को मजबूर होंगे और हालात के बेकाबू होने की सारी जिम्मेदारी मौजूदा थेन सेन सरकार की होगी जो पुलिस और बौद्ध इंतिहा पसंदों की खुले-छिपे दोनों तरह से पुश्तपनाही हो रही है।

मस्जिद, मदरसा और बच्चों की रिहाइश की इमारत में होने वाली आतिशजदगी के सिलसिले में हुकूमत और पुलिस की तरफ से यही कहा जा रहा है कि शार्ट सर्किट की वजह से यह हादिसा पेश आया लेकिन मुकामी मुस्लिम बाशिंदो को पुलिस और सरकार के इस दावे में कोई सच्चाई नजर नहीं आ रही है बल्कि यह कहा जा रहा है कि जिन मुसलमानों से यह कहलाया गया कि यह महज हादिसा है तो उसके बारे में आम मुसलमानों का यह ख्याल है कि इंतेजामिया ने मुसलमानों को बंदूक की नाल पर यह बयान देने पर मजबूर किया कि आग शार्ट सर्किट से लगी है।

वाजेह हो कि पिछले साल म्यांमार की रखाईन रियासत में जो फिरकावाराना फसाद फूट पड़े थे उनमें दो सौ से ज्यादा मुसलमानों की जाने बौद्ध इंतिहापसंदों ने ली थीं और हजारों मकानों समेत कई मस्जिदों को भी आग के हवाले कर दिया था जिसके नतीजे में डेढ़ लाख से ज्यादा मुसलमानों को पनाह लेने के लिए पड़ोसी मुल्क जाने पर मजबूर होना पड़ा था। अगरचे मुसलमानों के खिलाफ इन वाकियात के बाद तशद्दुद (हिंसा) की कोई बड़ी वारदात नहीं पेश आई थी लेकिन उन्हें दहशतजदा रखने के वाकियात लगातार हो रहे थे।

पिछली बीस मार्च को वुस्त (मध्य) म्यांमार में बौद्ध पैरोकारों और मुसलमानों में टकराव के बाद हालात इतने बिगड़ गए कि हुकूमत को तीन शहरों में इमरजेंसी लगाने का हुक्म देना पड़ा। लेकिन इकदामात के बावजूद फिरकावाराना फसादात में कमी का कोई रूझान नहीं दिखाई दिया इसकी यह वजह बताई गई कि पुलिस और फौज ने बौद्ध इंतिहापसंदों की पुरतशद्दुद (हिंसक) कार्रवाइयों को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जिसका नतीजा है कि तकरीबन पचास लोग मारे गए और कई मस्जिदों समेत सैकड़ों घरों को आग के हवाले कर दिया गया।

इमरजेंसी और कर्फ्यू के नाफिज होने के बाद भी हालत काबू में न आएं तो समझ में आता है कि तशद्दुद के कुसूरवार लोगों को कहां से शह मिल रही है। इन वाकियात के बाद यूएन के खुसूसी एलची विजय नाम्यार ने मुतास्सिरा मेकतेला और यामतीन शहरों का दौरा किया। एक पनाहगजीन कैम्प में मुतास्सिरा मुसलमानों से बातचीत के बाद उन्होंने बताया कि थाईलैण्ड में म्यांमार के महाजरीन कैम्प में लगी आग से मरने वालों की तादाद 42 बताई गई जबकि मेकतेला शहर में जहां मुसलमानों के खिलाफ बौद्धों के हमलों के बाद तकरीबन दस हजार लोग अपना घर बार छोड़ने को मजबूर हुए।

याद रहे कि 28 मार्च को यूएन के खुसूसी रिपोर्टर टाम्स ओजया कोयंटाना ने कहा था कि उन्हें रिपोर्ट मिली है कि अक्सर फौजी और पुलिस अहलकार खामोश तमाशाई बने रहते हैं और उनकी आंखों के सामने मजालिम के पहाड़ तोड़े जाते हैं। मेकतेला शहर में बौद्ध इंतिहा पसंदों के मुनज्जम हुजूम मुसलमानों उनके घरों और बस्तियों को तबाह करते रहे और सरकारी कारिंदे मुंह ताकते रहे।

यूएन के खुसूसी रिपोर्टर की इंसानी हुकूक की पामाली से मुताल्लिक रिपोर्ट को म्यांमार हुकूमत ने सख्ती से नकार दिया और इसके बाद ही यंगून के मदरसा में आतिशजदगी का वाकिया पेश आया। मस्जिद में वाके इस मदरसे का नाम ‘मदरसा सादिकिया’ है और इसके नाजिम हिन्दुस्तान निजाद (मूल) अस्सी साला बुजुर्ग हाशिम हैं।

उनके मुताबिक वह इशा की नमाज के बाद घर चले गए और जब सुबह को वापस मदरसा लौटे तो उनकी आंखों के सामने कयामत का मंजर था। पुलिस और सरकारी अमला आतिशजदगी के लिए मदरसा इंतेजामिया को कसूरवार ठहरा रहा है। उसके मुताबिक उन्हें मदरसा के अन्दर कैरोसिन का एक कनस्तर मिला इसी वजह से आग ने खौफनाक रूख अख्तियार कर लिया और तेरह बच्चे दम घुंटने के सबब फौत हो गए जबकि मुकामी लोगों का कहना है कि बौद्ध इंतिहापसंदों ने यह कार्रवाई अंजाम दी है और वह अपने साथ पेट्रोल भी लाए थे।

म्यांमार में मुसलमानों के नस्ली सफाए की जो मुहिम पिछले साल रखाईन सूबे से शुरू की गई थी और जहां सैकड़ों मुसलमानों को हलाक हजारों मकानों और कई मस्जिदों को शहीद करने की शर्मनाक वारदातें अंजाम दी गई थी और लाखों मुसलमानों को पनाह गजीन कैम्पों में जिंदगी गुजारने को मजबूर होना पड़ा था। धीरे-धीरे बौद्धो की मजहबी नफरत पूरे म्यांमार को अपनी जद में लेती जा रही है।

वैसे म्यांमार में मुसलमानों के खिलाफ जमीन तंग होने का सिलसिला उन्नीस सौ साठ में शुरू हुआ था उस वक्त के एक बर्मी अखबार ने मुसलमानों की बुरी हालत का नक्शा इन लफ्जों में खींचा था -‘‘ अगर आप दाढ़ी रखते हैं और इस्लामी नाम है तो पासपोर्ट बतलाएं’’ ‘‘अगर आप खुद को मुसलमान जाहिर करते हैं तो सरकारी नौकरी आसानी से नहीं मिलेगी।’’ ‘‘अगर आप अपने इस्लाम को नहीं छिपा सकते तो आप को तिजारती रियायतें हासिल नहीं होंगी’’, ‘‘ अगर आप बर्मा (म्यांमार) के अन्दर कहीं सफर करेंगे तो इमीग्रेशन अमला आप को ‘कला’ (गैर मुल्की) कहकर झट धर लेगा’’, ‘‘ अगर आप पर इमीग्रेशन अमले को शक हो गया तो आप को अदालत के सुपुर्द कर दिया जाएगा’’ और ‘‘अगर आप पर गैर मुल्की होने का शुब्हा हुआ तो अदालत में चार गवाह पेश कीजिए’’ लेकिन उन्नीस सौ बयासी में एक अजीब तरह के कानून के तहत वहां के मुसलमानों की बर्मी शहरियत के हुकूक छीन लिए गए और उनसे कहा गया कि वह इस बात को साबित करें कि उनके पुरखे अट्ठारह सौ बत्तीस से वहां रह रहे हैं।

तभी उनको शहरी हुकूक मिलंगे। म्यांमार के मुसलमान इस तरह की कानूनी बंदिशों में जीने को मजबूर हैं। उनके साथ होने वाली नाइंसाफी पर यूएन खामोश है, अमरीका की जबान बंद है। जम्हूरियत और हुकूके इंसानी के अलमबरदार मगरिबी मुल्कों की जबानों पर ताले पड़े हुए हैं। म्यांमार के सिलसिले में अगर कोई बात होती है तो जम्हूरियत के कयाम की होती है।

आंग सान सू की की भी पुरअसरार (रहस्यमय) खामोशी यह बयान कर रही है कि मुसलमानों के सिलसिले में पूरा म्यांमार एक तरह से सोच रहा है। इंसानी हुकूक की पामाली की बदतरीन मिसाल आज भी दुनिया में शायद ही कहीं हो।

———बशुक्रिया: जदीद मरकज़