मज़हब साईंस और इस्लाम

इस सिलसिले में सब से पहले दो बातें ज़हन मे रख लेनी चाहीए। क़ुरान कहता है कि कायनात हस्ती के जिस गोशे पर नज़र डालोगे, इन में एक हक़ीक़त उभरी हुई दिखाई देगी, बशर्तिके देखने से इंकार ना करो। वो किया है? क़वानीन फ़ित्रत की वहदत यानी हर जगह एक ही क़ानून एक ही तरह का काम कर रहा है। कोई गोशा ऐसा नहीं, जो अपने क़ानून ख़लक़-ओ-फे़अल में दूसरों से ज़रा भी अलग हो। बिलाशुबा भेस बहुत से हो गए हैं और नाम भी यकसाँ नहीं, मगर हक़ीक़त एक ही है और जूंही सामने के पर्दे हटाते हो, असलीयत की बेलाग वहदत आ खड़ी होती है।
वो कहता है जब कायनात हस्ती के हर गोशे में वहदत क़ानून की बुनियादी असल काम कर रही है तो क्यों कर हो सकता है कि आमाल इंसानी का कोई गोशा इस से बाहर हो? और वहां भी कोई क़ानून काम ना कर रहा हो? और वो वैसा ही ना हो जैसा तमाम गोशों में है?। वो कहता है ये गोशा भी दूसरे गोशों के साथ जुड़ा हुआ है। ठीक इसी तरह जिस तरह यहां का हर गोशा दूसरे गोशा से मरबूत है। यहां भी वही क़ानून काम कर रहा है, जो आलम माद्दी के तमाम गोशों में कारफ़रमा है और यहां के भी वही अहकाम-ओ-नताइज हैं, जो दूसरे गोशों में नज़र आरहे हैं। मसला अगर आलम माद्दी में तुम देखते हो, आग का ख़ास्सा जलाना है और एसा नहीं हो सकता कि आग रोशन हो और उसके शोलों से ठंडक निकले तो तुम्हें इस से इंकार नहीं करना चाहीए कि यहां भी कोई बात आग की तरह हो सकती है और जब वो जूहूर में आ जाए तो इस से गर्मी निकलेगी, ठंडक नहीं निकल सकती, यानी माद्दियात के ख़वास की तरह मानवयात के भी ख़ाहिश हैं और ख़वास-ओ-नताइज का एक ही आलमगीर क़ानून यकसाँ तौर पर दोनों जगह काम कर रहा है।
वो कहता है जिस तरह यहां हर बात के लिए फ़ित्रत के मुक़र्ररा क़वानीन हुए, इसी तरह क़ौमों और जमातों की सआदत-ओ-शिक़ावत और हयात-ओ-ममात का भी एक क़ानून हुआ और जिस तरह फ़ित्रत के तमाम क़वानीन यकसाँ हैं, आलमगीर हैं, ग़ैर मुतबद्दल हैं, इसी तरह ये क़ानून भी हमेशा एक ही तरह रहा है और हमेशा एक ही तरह के अहकाम-ओ-नताइज ज़ाहिर हुए हैं। ज़बानों और क़ौमों के इख़तिलाफ़ से इस की तासीर महतलफ़ नहीं हो सकती।