यह कैसा हज था?

रबी बिन सुलेमान कहते हैं कि मैं हज के लिए जा रहा था। मेरे साथ मेरे भाई थे और एक जमाअत थी। जब कूफा पहुंचे तो वहां जरूरियाते सफर खरीदने के लिए बाजारों में घूम रहा था कि एक वीरान सी जगह में एक खच्चर मरा हुआ था और एक औरत जिसके कपड़े बहुत पुराने थे, चाकू लिए हुए उसके गोश्त के टुकड़े काट काट कर एक थैले में रख रही थी। मुझे यह ख्याल हुआ कि यह मुर्दार गोश्त ले जा रही है। इस पर हरगिज खामोश न रह सका। अजब नहीं यह कोई भिकारी औरत है। यही पका कर लोगों को खिला देगी। मैं चुपके से उसके पीछे हो लिया। इस तरह कि वह मुझे न देखे। वह औरत एक बड़े मकान में पहुंची जिसका दरवाजा भी ऊंचा था। उसने दरवाजा खटखटाया। अन्दर से आवाज आई कौन है? उसने कहा खोलो मैं ही बदहाल हूं।

दरवाजा खोला गया और उसमें से चार लड़कियां आईं जिनके चेहरे से बदहाली और मुसीबत के आसार जाहिर हो रहे थेे। वह औरत अन्दर गई और थैला उन लड़कियों के सामने रख दी। मैंने देखा अन्दर से घर बिल्कुल बर्बाद खाली था। उस औरत ने रोते हुए लड़कियों को आवाज दी कि लो इसको पका लो और अल्लाह का शुक्र अदा करो कि अल्लाह तआला का अपने बंदो पर अख्तियार है उसी के कब्जे में लोगों के दिल हैं। वह लड़कियां उसको काट काट कर आग पर भूनने लगीं।

मुझे बहुत तंगी हुई। मैंने बाहर से आवाज दी- ऐ अल्लाह की बंदी अल्लाह के वास्ते इसको न खा। वह कहने लगी तू कौन है? मैंने कहा मैं एक पड़ोसी तू हमसे क्या चाहता है? मैंने कहा मजूसियों के एक फिरके के सिवा मुर्दार का खाना किसी मजहब में जायज नहीं। वह कहने लगी हम खानदाने नबुवत के शरीफ (सैयद) हैं। इन लड़कियों का बाप बड़ा शरीफ था। वह अपने ही जैसों से इनका निकाह करना चाहता था। इसकी नौबत न आई। उसका इंतकाल हो गया। जो तर्के उसने छोड़ा था वह खत्म हो गया। हमें मालूम है कि मुर्दार खाना जायज नहीं। लेकिन इज्तिरार में जायज हो जाता है। हमारा चार दिन का फाका है। रबी कहते हैं कि उनके हालात सुनकर मुझे रोना आ गया और मैं रोता हुआ दिल लेकर बेचैन वापस हुआ और मैंने अपने भाई से आकर कहा मेरा इरादा तो हज का नहीं रहा। उसने मुझे बहुत समझाया। हज के फजायल बताए कि हाजी ऐसी हालत में वापस लौटता है कि उसपर कोई गुनाह नहीं रहता वगैरह।

मैंने कहा बस लम्बी-चैड़ी बातें न करो। यह कहकर मैंने अपने कपड़े और एहराम की चादरे और जो सामान मेरे साथ था वह सब लिया और नकद छः सौ दरहम थे वह लिए और उनमें से सौ दरहम का आटा खरीदा और सौ दरहम का कपड़ा खरीदा और बाकी दरहम जो बचे वह आटे में छिपाकर उस बुढि़या के घर पहुंचा और यह सब सामान और आटा वगैरह उसको दे दिया। उस औरत ने अल्लाह का शुक्र अदा किया और कहने लगी- ऐ इब्ने सुलेमान! जा अल्लाह तआला तेरे अगले पिछले सब गुनाह माफ कर दे और तुझे हज का सवाब अता करे और अपनी जन्नत में तुझे जगह अता फरमाए। और इसका ऐसा बदल अता फरमाए जो तुझे भी जाहिर हो जाए।

सबसे बड़ी लड़की ने कहा- अल्लाह तआला तेरा अज्र दो गुना करे और तेेरे गुनाह माफ कर दे। दूसरी ने कहा अल्लाह तआला तुझे इससे बहुत ज्यादा अता फरमाए जितना तूने हमें दिया। तीसरी ने कहा अल्लाह तआला हमारे दादा के साथ तेरा हश्र करे। चैथी ने कहा जो सबसे छोटी थी ऐ अल्लाह जिसने हम पर एहसान किया उसका बदल उसको जल्दी अता कर और उसके अगले पिछले गुनाह माफ कर। रबी कहते हैं कि हुज्जाज का काफिला रवाना हो गया। मैं कूफा में ही मजबूर पड़ा रहा कि वह सब हज से फारिग होकर लौट भी आए। मुझे ख्याल हुआ कि इन हुज्जाज का इस्तकबाल करूं। उनसे अपने लिए दुआ कराऊं। किसी की मकबूल दुआ मुझे लग जाए। जब हुज्जाज का एक काफिला मेरी आंखों के सामने आ गया तो मुझे अपने हज से महरूमी पर बहुत अफसोस हुआ और रंज की वजह से आंसू भी निकल आए। जब मैं उनसे मिला तो मैंने कहां अल्लाह तआला तुम्हारा हज कुबूल करे। उनमें से एक ने कहा यह कैसी दुआ है? मैंने कहा ऐसे शख्स की दुआ जो दरवाजे तक की हाजिरी से महरूम रहा हो।

वह कहने लगे बड़े ताज्जुब की बात है। अब तू वहां जाने से इंकार करता है। तू हमारे साथ अरफात के मैदान में नहीं था? तूने हमारे साथ रमी जमरात नहीं की? तूने हमारे साथ तवाफ का लुत्फ नहीं उठाया? मैं अपने दिल में सोंचने लगा कि यह अल्लाह का लुत्फ है। इतने में खुद मेरे शहर के हाजियों का काफिला आ गया। मैंने कहा अल्लाह तआला तुम्हारी सई कुबूल फरमाए। तुम्हारा हज कुबूल फरमाए। वह भी यही कहने लगे कि तू हमारे साथ अरफा में नहीं था? रमी जमरात नहीं की? अब इंकार करता है। उनमें से एक शख्स आगे बढ़ा और कहने लगा कि भाई अब इंकार क्यों करते हो क्या बात है? आखिर तुम हमारे साथ मक्का में पहुंचे थे या मदीना में नहीं थे। जब हम कब्र अतहर की जियारत कर के बाबे जिब्रील से बाहर को आ रहे थे उस वक्त भीड़ की कसरत की वजह से तुम ने मेरे पास अमानत रखवाई थी जिसकी मुहर पर लिखा है- जो हमसे मामला करता है नफा करता है।

यह तुम्हारी थैली वापस है। रबी कहते हैं मैंने उस थैली को इससे पहले देखा भी नहीं था। उसको लेकर घर गया, इशा की नमाज पढ़ी। अपना वजीफा पूरा किया। इसके बाद इस सोंच में जागता रहा कि आखिर यह किस्सा क्या है। इसी में मेरी आंख लग गई। तो मैंने नबी करीम (सल0) की ख्वाब में जियारत की। मैंने नबी करीम (सल0) को सलाम किया और हाथ चूमे। नबी करीम (सल0) ने मुस्कुराते हुए सलाम का जवाब दिया और इरशाद फरमाया- रबी! आखिर हम कितने गवाह इसपर कायम करें कि तूने हज किया। तू मानता ही नहीं।

सुन, तूने उस औरत पर जो मेरी औलाद थी, सदका किया और अपना जादे सफर ईसार करके अपना हज मुल्तवी कर दिया तो मैंने अल्लाह तआला से दुआ की कि वह इसका बदल तुझे अता फरमाए। अल्लाह तआला ने एक फरिश्ता तेरी सूरत बनाकर उसको हुक्म फरमा दिया कि वह कयामत तक हर साल तेरी तरफ से हज किया करे और दुनिया में तुझे यह एवज दिया कि छः सौ दरहम के बदले छः सौ दीनार (अशरफियां) अता की। तू अपनी आंख को ठंडी रख। फिर नबी करीम (सल0) ने भी यही अल्फाज इरशाद फरमाए। रबी कहते हैं कि जब मैं सोकर उठा तो उस थैली को खोला तो उसमें छः सौ अशरफियां थीं। (तामीरे हयात, लखनऊ से माखूज)