ख्वाजा हैदर अली आतिश अठारवीं सदी के मशहूर शायरों में से एक है, जिन्होंने उर्दू की क्लासिकी शायरी के ख़ज़ाने में खूब इज़ाफ़ा किया। उनके आबा व अजदाद ब़गदाद से शाहजहाँ आबाद(आगरा) आये और बाद में आतिश ने फैज़ाबाद को अपना मसकन बनाया। उनकी ये ग़ज़ल नये ज़माने के शायरी के शायक़ीन में भी काफी मशहूर रही। इस ग़ज़ल के मुख्तलिफ शेर अलग अलग ग्लूकारों ने गाये हैं।
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर तालि-ए-बेदार ने सोने न दिया
खाक पर संगे दरे यार ने सोने न दिया
धूप में साया ए दीवार ने सोने न दिया
शाम से वस्ल की आँख न झपकी ता सुबह
शादिए दौलते दीदार ने सोने न दिया
दर्द-ए-सरे शाम से उस ज़ुल्फ़ के सौदे में रहा
सुबह तक मुझको शब-ए-तार ने सोने न दिया
एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलू-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया
रात भर की दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
रंजो मेहनत के गिरफ्तार ने सोने न दिया
तकिया तक पहलू में उस गुल ने न रखा ‘आतिश’
गैर को साथ कभी यार ने सोने न दिया