युवाओं में बढ़ती क़व्वाली की लोकप्रियता

ग़ुलाम हुसैन। मौसीकि और रंगो साज़ के इस दौर में क़व्वाली आज भी अपनी रुहानि ताक़त के दम पर युवाओं को अपनी ओर खिंचतीं है। पोप और रैप के इस दौर में भी क़व्वाली योवाओं के दिल में धड़के यह क़व्वाली के प्रसंगिकता को दर्शाता है। इसका ताज़ा उदाहरण दिल्ली स्थित हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह देखने को मिलता है। जहाँ हर जुमेरात की शाम क़व्वाली का आयोजन किया जाता है जसमें युवाओं की बढ़ती तादात इस बात की गवाही देती है कि क़व्वाली युवाओं को रुहानि सुकून पहुँचती है। किरोड़ीमल कॉलेज की छात्र आक्षी क़व्वाली सुनने में दिलचस्पी रखती हैं, वह हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर पहली दफा आयी हैं और उन्होंने पुरे दो घंटे तक क़व्वाली का आन्नद लिया है। आक्षी ने आगे बताया की वह इससे पहले ऑनलाइन क़व्वाली सुनना करती थी मगर आज पहली दफा सीधे तौर पर क़व्वाली सुनने का सुख प्राप्त किया है। आक्षी के साथ आए उनके मित्र समक्ष ने कहा की क़व्वाली तो हमारे देश के सूफियों की देन है और हम तो इसका हमेशा से ही आन्नद लेते हैं। यहाँ का माहौल और फिर क़व्वाली दोनों मिल कर सोने पर सुहागा हो जाता है। आपको ऐसा नज़ारा और शांति का मिश्रण कंही और नहीं मिलेगा।

अमेरिका से आये छात्रों के एक समूह से कैरेन ने बताय की उनकी टीम यहाँ खूबसूरत म्यूजिक और सूफिज्म के भाव से परिचित होने आयी है। भारत आध्यात्म का विश्व गुरु है , इसलये सूफियों का यह दरबार और यहाँ का माहौल भी एक अलग प्रकार की शांति की अनुभूति कराता है। कैरेन ने बताया की यह लोग जो गा रहे हैं वह पूरी तरह से प्राकृतिक लगता है , हम शब्द तो नहीं समझ रहे हैं पर भाव समझ में आता है। इन क़व्वाल के अंदाज़ भी बहुत वास्तविक हैं जो अब कंही और देखने को नहीं मिलता।

दरगाह के अंदर ही फूल की चादर बनाने वाले मो आरिफ नेज़ामी ने बताया की यंहा हर तरह के लोग आते हैं, हर धर्म के हर मुल्क के लोग यंहा बेहिचक आते हैं। हाँ मगर कोई दरबार से मांगने आता है तो कोई लुटाने। पिछले पाँच सालों में नौजवानो की संख्या काफी बढ़ी है। वह बड़े लगन के साथ क़व्वाली सुनने आते हैं। मुम्बई से इंजीनियरिंग कर रहे छत्रों का एक समहू दिल्ली केवल दरगाह की ज़ियारत और क़व्वाली सुनने आया है। इस समूह से एक छात्र आमिर ने हमें बताया की दिल्ली को वह हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह से ही जानते हैं और यह वही धरती है जहाँ असल में क़व्वाली का जन्म हुआ है। हज़रत अमीर खुसरू जो ह. निज़ामुद्दीन के शिष्य थे और उन्होंने ही क़व्वाली को पहचान दिलाई। उनके कलाम आज भी पुरे विश्व भर में गाए जाते हैं। आमिर मुम्बई के माहिम दरगाह पे भी कवाली सुनने जाते हैं।

नाइजीरिया से भारत में पढ़ने आये शमसुद्दीन ने कहा कि यहां का आर्टिटेक्चरे, रंग ,लोगो का व्यवहार, ज़ियारत का तरीका, सूफी सत्ता की परंपरा, मधुर संगीत यह सब मिल कर ही इसे एक खुशनुमा माहौल देता है। आपको यह हमेशा आकर्षित करता है। मैं यंहा हमेशा दिन में आया था मगर आज शाम का माहौल काफी अलग है और आज तो क़व्वाली भी सुनने को मिल रही है। शमसुद्दीन दरगाह अपने दोस्त सईद अव्वल के साथ आये हैं। लैटिन अमेरिकी देश चिली से आए एक कपल ने कहा की वह यहाँ केवल क़व्वाली सुनने आये हैं। उन्हें इसका संगीत काफी संतुलित बनाता है।

दरगाह में सबसे बूढ़े क़व्वाल गुलाम रसूल नेज़ामी यंहा करीब पचास साल से क़व्वाली गा रहे हैं। शमाँ के समय सूफियों के शिष्यों ने अपने गुरु को मनाने के लिए और उन्हें खुश करने के लिए इस परंपरा की शुरवात की थी तब से हर जुमेरात यंहा दरबार में उसी पुराने जोश के साथ क़व्वाली गायी जाती है। इस दरगाह में सात खानदान के क़व्वाल हैं उनमें से एक जमालुद्दीन नेज़ामी बताते हैं की वह अमीर खुशरू द्वारा शिक्षित शिष्यों के परिवार से हैं वह बचपन से ही अपने पिता के साथ दरगाह में क़व्वाली पेश करते आये हैं। उन्होंने बताया की क़व्वाल अरबी शब्द कॉल से बना है जिसका आशय कथन से है। अमीर खुशरू द्वारा आखरी पैग़म्बर मुहम्मद साहब की बातों को जब एक प्रभावी रूप में संगीत के साथ गाया गया तब यह क़व्वाली कह लाया।

जमालुद्दीन आगे कहते हैं की क़व्वाली सुनते समय श्रोता और ईश्वर के बिच सीधा संपर्क स्थापित हो जाता है। ईश्वर और बन्दे के बिच दुनिया नहीं रहती। यह प्रेम का अलौकिक रूप है। यह बंदा शांति और शुकुन प्राप्त करता है। इसलिए आज रोज़ बढ़ते तनाव के दौर में हर तरह के लोग क़व्वाली की और खींचे चले आ रहे हैं। दरगाह में खादिम ख्वाजा सैयद मो. नेज़ामी ने क़व्वाली के संदर्ब में बताया की यह पैगम्बरों और सूफियों के विचारों को आम जन तक पंहुंचने का एक प्रभावी माध्यम है, चिश्ती सिलसिले के सूफियों ने हिंदुस्तान में इसकी शुरआत की थी कि जब तक आपके पास कोई आएगा नहीं तब तक कैसे उसकी बुराई दूर की जा सकती है। यह तरीका हर तरह के लोगों को जोड़ने का था क्योंकि मस्जिदों में कई पाबंदियां होती हैं जबकि खानकाहों और दरगाहों पर कोई रोक टोक नहीं। सबसे मोहब्बत और सबकी मदद ही हिंदुस्तान की तमाम सूफियों का विचार रहा है। इस्लाम में उदारता लाने वाले इन सूफियों ने गंगा – जमुनी तहज़ीब को आकार दिया है।

दरगाह में पिछले बीस सालों से रह रही खैरून निशाँ और सुबैदा खातून ने बताया की यहाँ आने वाले लोग बहुत दयालु होते हैं , उन्ही की वजह से हम जैसे लोग आज ज़िंदा हैं। दरबार से भी इन्हें काफी मदद मिलती है , क़व्वाली सुनने केलिए भी वह सब लोग के साथ ही बैठती हैं। खैरून निशाँ ने अपनी परिस्तिथि बताई की वह पहले लोगो के घरों में काम किया करती थीं मगर फिर बुढापे और बिमारी की वजह से उन्हें भीख मांगना पड़ रहा है। वंही सुबैदा ने बताय की लकवा मार देने के बाद बेटा भी उनका ध्यान नहीं रखता है। यहाँ दरबार से ही उनकी ज़िन्दगी चलती है वो कहती हैं यंहा के लोग हमारा ध्यान रखते हैं। उन्हें वृधा पेंशन मिलता है।