यौम-ए-आशूरा और शहादते इमाम हुसैन (रजि0)

यह एक अजीब इत्तेफाक है कि दसवी मोहर्रम के दिन तारीखे इस्लामी के दो अहम वाकियात पेश आए। एक यौमे आशूरा दूसरा शहादते इमाम हुसैन (रजि०)। तारीखी एतबार से इस दिन की बड़ी फजीलत और अहमियत है। इसलिए रमजान के रोजो के बाद मोहर्रम के दो रोजों की सबसे ज्यादा फजीलत हदीसे नबवी से मंकूल है। हजरत शेख अब्दुल कादिर जीलानी अपनी मशहूर किताब ‘गनीतुल तालिबीन’ में लिखते हैं कि आशूरा के दिन अल्लाह तआला ने दस अम्बिया के साथ अपनी गैबी मदद व नुसरत का खुसूसी मामला फरमाया और उनको दस अजमतों से नवाजा।

हजरत नूह (अलै०) की कश्ती समुन्दरी तूफान के थमने के बाद इसी दिन जमीन पर आटिकी और उनकी बागी कौम खत्म कर दी गई। सैयदना मूसा (अलै०) को इसीदिन जालिम बादशाह फिरऔन के जुल्म व सितम से निजात मिली और इसी दिन फिरऔन और उसके लश्कर को समुन्दर से उठने वाली ऊंची ऊंची लहरों ने गर्क कर दिया। यौमे आशूरा को अहले कुरैश रोजा रहा करते थे इसलिए नबी करीम (स०अ०व०) भी एहतमाम के साथ इस दिन रोजा रखा करते थे।

आप (स०अ०व०) मक्का से हिजरत फरमा कर जब मदीना तशरीफ लाए तो किसी ने अर्ज किया कि यहूदी लोग यौमे आशूरा को रोजा रखते हैं और अगर मुसलमान भी इस एक दिन रोजा रखें तो यह एक तरह की उनसे मुशाबहत होगी जबकि आप (स०अ०व०) ने यहूद नसारा और मुशरिकीन की मुखालिफत करने का सरीह हुक्म फरमाया है और यह भी फरमाया कि जो शख्स जिस कौम की मुशाबहत अख्तियार करेगा उसका हश्र उसी कौम के साथ होगा यानी उसी कौम में से वह उठाया जाएगा। तो आप (स०अ०व०) ने हुक्म दिया कि अगर वह एक रोजा रखते हैं तो तुम नौ और दस मोहर्रम या दस और ग्यारह मोहर्रम को दो रोजा रखा करो। सहाबा (रजि०) के दिलों में आप (स०अ०व०) के इरशादात पर अमल करने का कैसा गैर मामूली शौक व जज्बा था लेकिन अफसोस आज मुसलमानों का एक बड़ा तबका बल्कि अक्सरियत यहूद व नसारा और मुशरिकीन के चाल व चलन , तहजीब व तमद्दुन और उनकी मआशरत को अख्तियार करने को अपने लिए बाइसे इफ्तिखार समझती हैं और अपनी आखिरत की अबदी जिंदगी से बेपरवा होकर बेलगाम जिंदगी गुजार रही है। जरूरत इस बात की है कि हम सब नबी करीम (स०अ०व०) के तरीकों पर सच्चे दिल से अमल करते हुए यौमे आशूरा के रोजों का खास तौर पर एहतमाम करें।

अल्लाह के रास्ते में दीने इस्लाम की हिफाजत की खातिर अपने आप को शहादत के लिए पेश करना हर मुसलमान के लिए इंतिहाई दर्जा सआदत व इफ्तिखार का मकाम है। इसलिए नबी करीम (स०अ०व०) के जमाने का हर सहाबी जज्बा-ए- शहादत से सरशार था। हजरत खालिद बिन वलीद (रजि०) जिन को ‘‘सैफुल्लाह’’ अल्लाह की तलवार कहा जाता है सौ से ज्यादा मोर्चों में शहादत की तमन्ना लिए हुए हिस्सा लिया लेकिन शहादत उनके मुकद्दर में नहीं थी। आखिर वक्त में अपने आप को मुखातिब फरमा कर कहते ऐ खालिद यह भी कोई मौत है कि तू बिस्तर मर्ग पर बकरियों की तरह एडि़यां रगड़ रगड़ कर मर रहा है।

शहादत इतना ऊंचा मकाम है कि हश्र के दिन फैसला होने के बाद अल्लाह जन्नती बंदो से पूछेंगे कि आया तुम में से किसी को तमन्ना है कि दुनिया में लौटा दिया जाए तो सिर्फ शहीद अर्ज करेगा कि अल्लाह तू मुझे फिर दुनिया में लौटा दे ताकि मैं आप के रास्ते में सर कटाने की लज्जत को दोबारा और तिबारा और बार-बार हासिल कर सकूं। अल्लाह तआला खुद अपनी किताब में फरमाते हैं कि शहीद को मुर्दा न कहो क्योंकि वह मरता नहीं है बल्कि जिंदा रहता है और हम उसको रिज्क पहुंचाते रहते हैं।

सरफरोशी की तमन्ना और शौके शहादत से खाली दिल एक वीराने की तरह हैं। अहादीसे नबवी में यह बात मिलती है कि ऐसा शख्स जन्नत तो दरकिनार उसकी खुशबू भी सूंघ न पाएगा। यूं तो तारीखे इस्लाम की सबसे ज्यादा मजलूमाना शहादत नबी करीम के हकीकी चचा हजरत हमजा (रजि०) बिन अब्दुल मुत्तलिब की गजवा उहद में वाके हुई जिनके जिस्म के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए थे यहां तक कि आप (रजि०) के नाक कान काट दिए गए और आप (रजि०) के जिस्म से आप का कलेजा निकाल कर कच्चा चबाया गया।

उनके बाद हजरत उस्मान (रजि०) जो नबी करीम (सल०) के दामाद होने का शर्फ रखते थे की शहादत भी निहायत बेदर्दी के साथ पेश आई। यहां तक कि आप (रजि०) का अपना खरीदा हुआ कुंए का पानी भी आप पर हराम कर दिया गया।

हजरत इमाम हुसैन (रजि0) नबी करीम (स०अ०व०) के लाडले नवासे का दीने इस्लाम की हिफाजत की खातिर अपने आप को शहादत के लिए पेश करना एक ऐसा गैर मामूली वाक्या है जिसने एवाने बातिल की बुनियादों को हिलाकर रख दिया। यूं तो हक और बातिल के बीच मोर्चाबंदी हमेशा से रही है और हमेशा जारी रहेगी। जब तक कि हक पूरी तरह बातिल पर गालिब न हो जाए। हजरत इमाम हुसैन (रजि०) ने अपने पेशरू सहाबा के नक्शे कदम पर चलते हुए अपनी महबूब जान का नज्राना पेश करके यह साबित कर दिया कि शहीद की मौत दरहकीकत कौम की हयात है लेकिन अफसोस यह उम्मत इमाम हुसैन (रजि०) की शहादत के दिन को महज सोग व गम मनाने का मौका समझ बैठी।

आज जरूरत इस बात की है कि हम भी वक्त आने पर अपनी जानों का नज्राना अल्लाह की बारगाह में पेश करने का अज्म व इरादा करें। इस तरह हजरत इमाम हुसैन (रजि०) की पैरवी करते हुए आप (स०अ०व०) की कुर्बानी को जिंदा जावेद बना दें क्योंकि न यह जान हमारी है और न माल हमारा है बल्कि यह अल्लाह की अमानत है। (मोहम्मद ताहिर उस्मानी)

बशुक्रिया: जदीद मरकज़