रफ़ीक जाफर का क़लमी सफ़र

फिर ज़िन्दगी की फिल्म अधूरी ही रह गयी
वो सीन कट गये जो कहानी की जान थे
यह शेर मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में काफी मशहूर हुआ। शेर के ख़ाल़िक को हालांकि फिल्मों में बहुत बड़ी कामयाबी नहीं मिली, लेकिन ज़िन्दगी की उलझनों को वे अपनी क़लम के सहारे ही सुलझाते रहे। रफ़ीक जाफ़र…हालांकि इन दिनों उन्हें लोग पूणे के शायर के तौर पर जानते हैं, लेकिन उन्हें हैदराबादी होने का शर्फ हासिल है। चार किताबों के मुसन्निफ हैं। फिल्में लिख चुके हैं। ईटीवी उर्दू के सिरियल `हमारी ज़ीनत’ के लिए उन्होंने रापा का अवार्ड भी हासिल किया। तंजो मिज़ाह के तीन सुतून(मुजतबा हुसैन, मुश्त़ाक अहमद यूसुफी और यूसुफ नाज़िम) और उर्दू अदब के तीन भाई(महबूब हुसैन जिगर, इब्राहीम जलीस और मुजतबा हुसैन) जैसी तह़क़ीकी किताबों के लिए उन्हें सराहा गया। निदा फ़ाज़ली ने उनके बारे में कहा है कि उनका अदबी किरदार उनहीं के शबो-रोज़ की धूप छांव ने तामीर किया है। उनके साथ हुई गुफ़्तगू का ख़ुलासा यहाँ पेश है।
……….एफ. एम. सलीम

बोइनपल्ली का फौज़ी माहौल
आबा व अजदाद फौज से ताल्ल़ुक रखते थे। यही वज्ह है कि बचपन भी फौजी अंदाज़ में बीता, लेकिन फौज का सिलसिला वालिद साहब तक ही चला। दादा हज़रत सूबेदार मेजर थे। बोइनपल्ली सिकंदराबाद की कंटोन्मेंट के पेन्शन लेन में मकान था। सारा माहौल फौजियों का था, यही वज्ह है कि कई सारे मामलों में उस माहौल का असर मुझपर रहा। अचानक वालिद साहब बीमार हुए और उसकी वज्ह से ख़ानदान बिखर गया। लंबी बीमारी की वज्स से ग़ुरबत ने आ घेरा। बोइनपल्ली से हम चाचा के पास बेगमपेट पुलिस क्वार्टर में मुन्त]िकल हो गये। चाचा ने सरपरस्ती तो की, लेकिन तालीमी सिलसिला जारी नहीं रह सका। मैट्रिक के बाद किसी तरह बीओएल पहुंचा।

सेल्समैन से क़लमकार तक का सफर
आबिड्स में ज़मरूद के सामने जहाँ किताबें बिकती थीं, वहाँ जे सी पिंटो एण्ड कंपनी के नाम से टाइम्स ऑफ इंडिया का एजेंट था, उसी में अदबी ट्रस्ट का स्टाल हुआ करता था। वहीं पर मैंने 30 रुपये माहाना उजरत पर सेल्समेन का काम शुरू किया। उसके पास ही सुरेश ओबेराय की दुकान थी, जो बाद में फिल्मों में चले गये। सुरेश ओबेराय के वालिद मेडिकल स्टोर चलाते थे।
ड्रामा ग्रूप के कई लोग वहाँ आते थे। वहीं पर अदीबों शायरों और ड्रामा ग्रूप से जुड़े कई लोगों से मेरी मुल़ाकातें हई। इसी बीच मैंने बच्चों के लिए कहानियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं, जो रहनुमा, मिलाप और दूसरे अ़खबारों मे छपती थीं। शायरी का श़ौक भी हुआ।

जिगर साहब की जेब में इसलाही चिट्ठियाँ
हालात और माहौल ने बहुत कुछ सिखाया, बल्कि यही मेरे उस्ताद रहे। आबिद अली ख़ान और महबूब हुसैन जिगर साहब ने हौसला अफ़ज़ाई की। कभी-कभी तो जिगर साहब मौज़ू देकर मज़मून लिखाते थे। रेडियो पर भी म़ौका मिलने लगा। जिगर साहब रेडियो सुना करते थे। जब प्रोग्राम के बाद उनसे मुल़ाकात होती तो जेब से एक चिट्ठी निकालते और बताते कि रेडियो के फीचर में ज़ुबान व बयान की क्या ग़लतियाँ हुई हैं। लोगों की इसलाह के लिए ऐसी कई चिट्ठियाँ जेब में रहती थीं। सियासत उन दिनों हैदराबाद का पहला अ़खबार था, जिसमें मज़ामीन लिखने वालों को पैसे दिये जाते थे। यही दौर था जब मुजतबा हुसैन और मुस्तफ़ा कमाल साहब से मुल़ाकात हुई। हैदराबाद से बाहर के अ़खाबारात में भी छपने का सिलसिला शुरू हुआ। उन्हीं दिनों हप्तवार मुन्सिफ शुरू हुआ था। उसमें तबसिरे और मौज़ुआत देकर मज़ामीन और किताबों पर तबसेरे लिखवाए जाते। तबसिरे पर पांच रुपये मिला करते थे। अमजद बाग़ी ने जब नया अदम अ़खबार शुरू किया। साथ ही वो इंडियन न्यूज़ नाम से एक एजेन्सी भी चलाते थे। उसके लिए मैंने रिपोर्टिंग शुरू की। अहसन अली मिर्ज़ा इस मामले में रहनुमाई करते थे। उन्हीं दिनों शादी हुई। ….?
जब शादी हुई तो महाना आमदनी 40 रुपये के आसपास हुआ करती थी। घर का किराया और दूसरी परेशानिया सब इसी से दूर करने की कोशिश की जातीं। कुछ दिनों तक इन्त़ेकाब प्रेस में भी काम किया।

बाम्बे का सफर
1971 में बाम्बे जाने के बारे में सोचा। इस बारे में आबिद अली ख़ान और जिगर साहब को बताया तो उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया, लेकिन बाद में मैंने अपना फैसला सुनाया तो उन्होंने ख्वाजा अब्दुल ग़फूर साहब और हैदराबादी अदाकार चंद्रशेखर के नाम एक खत दिया, ताकि वहाँ कुछ मदद मिल सके।
जिगर साहब ने कहा,`जैसे हम दोनों यहाँ सरपरस्त हैं, वहाँ ये दोनों तुम्हारे सरपरस्त होंगे।’
मैं उनका ये एहसान कभी नहीं भूल सकता क्योंकि उसी ख़ुलूस ने मुझे मुंबई में स्ट्रगल करने का हौसला दिया। ख्वाजा साहब महाराष्ट्र की हुकूमत में सेक्रेटरी थे। मैं उनसे मिला ज़रूर, लेकिन कभी कोई मदद हासिल करने की कोशिश नहीं की। वहाँ भी अपना साएबान हैदराबादी लोग ही रहे। अफ़साना निगार नईम ज़ुबैरी के छोटे भाई शमीम ज़ुबैरी इन्क़लाब में सहाफी थे। बाद में इन्क़लाब के एडिटर भी बने। वो कहकशाँ फिल्मी पर्चा निकालते थे। उसके लिए लिखने का ऑफर दिया। उससे खातिरख्वाह आमदनी नहीं हुआ करती थी। हिन्दुस्तान और उर्दू टाइम्स के लिए रिपोर्टिंग शुरू की। इस बहाने फिल्मवालों से मिलने लगा।

फिल्मी दुनिया में द़ाखला
अमीन सयानी रेडियो सिलोन के अनाउंसर और प्रोड्यूसर थे। उनसे राब्ता हुआ तो उन्होंने काम देना शुरू किया। वो अपने हिसाब की तहरीरें लिखवाते। इस तरह कमर्शियल राइटिंग का तजुर्बा हुआ। 4 बरस तक उनके लिए लिखता रहा। अमीन साहब के पास रोज़ कोई न कोई एक्टर, डायरेक्टर आया करता। उनके पास जब वक्त नहीं होता तो उनके राइटर्स ग्रूप की जानिब से ही उनकी मेज़बानी हुआ करती। उन्हीं दिनों मेरी मुल़ाकातें, नौशाद, अमीताभ बच्चन, राजेंद्र कुमार समेत छोटे बड़े फनकारों से हुई। मुंबई में कमर्शियल राइटिंग के दौरान भी मैंने कहानियाँ और शायरी लिखना नहीं छोड़ी। हिन्दी रिसालों में कहानिकार और शायरी के तौर पर पहचान मिली।
मैंने फिल्मों में ज़ाती तौर पर स्ट्रगल करना शुरू किया। इस स्ट्रगल में भी मुझे हैदराबादियों की मदद मिली। मुश्त़ाक जलीली, जलील मानिकपुरी के छोटे बेटे थे। फिल्मी दुनिया में राइटर के तौर पर उनकी शोहरत थी। `एक फूल दो माली’ ने उनकी शोहरत में चार चांद लगा दिये। मैं उनका असिस्टेंट बन गया। उनके साथ कई फिल्मों के लिए काम किया। खुसूसन राजेश खन्ना की `अवतार’ के अलावा `दो मुसाफिर’, `एक महल हो सपनों का’ जैसी फिल्मों के लिए असिस्टेंट के तौर पर काम चलता रहा। उन्हीं दिनों टी वी सिरियल ख़ज़ाना का काम मिला।
अज़ीज़ क़ैसी से भी अच्छे ताल्ल़ुकात थे। जब भी उनके पास कुछ काम होता, बुला लेते। स्क्रीन फिट्टर और स्टोरी असिस्टेंट के तौर पर साथ रखते।
1980 में मेरी कहानियों का मजमुआ `अलबम’ शाये हुआ। हालांकि यह किताब महाराष्ट्र अकादमी के ताआउन से शाये हुई, लेकिन हैदराबाद में शाये होने की वज्ह से इसकी रस्मे इजरा भी हैदराबाद में ही हुई। शगूफ़ा के एडिटर डॉ. मुस्तफा कमाल ने इजराई की त़करीब मुनाक़िद की। एवज़ सईद, मसीह अंजुम, अहमद जलीस, परवेज़ यदुल्लाह महदी, आत़िक शाह और दीगर लोगों ने इसमें शिरकत की।
गोयल सिने कार्पोरेशन स्टूडियो के स्टोरी डिपार्टमेंट के हेड मुश्त़ाक जलीली थे। अजय गोयल साहब उन दिनों फिल्म `िरश्ता काग़ज़ का’ बना रहे थे। उसके लिए उन्हेंन मुझे अपना असिस्टेंट बना लिया। राज बब्बर और रति अग्निहोत्री फिल्म में काम कर रहे थे। मजरूह ने गीत लिखे थे और रवि का संगीत था। असिस्टेंट डायरेंक्टर के तौर पर वो मेरी पहली फिल्म थी।

नूतन का मश्वरा
गोयल साहब जहाँ भी ज़रूरत होती सीन के हिसाब से स्क्रिप्ट लिखाने के लिए मुझे काम देने लगे। उन्हीं दिनों नूतन से मुल़ाकात हुई। एक दिन उन्होंने कहा, `कब तक असिस्टेंट बने रहोगे। खुद आगे बढ़ो।’
फिर उन्हेंने राजखोसला के पास भिजवाया। नूतन उस वक्त नामी अदाकारा थीं। एक बार एक डायरेक्टर कुंवर जगदीश के साथ काम कर रहा था। हिरोइन के तौर पर किसको लें यह बात जम नहीं रहीं थी। मैंने नूतन का नाम लिया तो उन्होंने कहा कि वह बड़ी हिरोइन हैं, छोटे बजट की फिल्म में काम कैसे करेंगी। लेकिन मैंने कहा मैं उनको राज़ी कर लूंगा। उन्होंने हैरत का इज्हार किया। लेकन नूतन से जब मैं प्रोड्यूसर और डायरेक्टर के साथ मिला तो उन्होंने बग़ैर क्रिप्ट देखे कहा कि रफ़ीक भाई ने लिखी है तो अच्छी ही होगी और काम के लिए राज़ी हो गयीं। पहली बार मैंने ज़ाती तौर पर काम किया और `औलाद की ख़ातिर’ फिल्म बनकर तैयार हो गयी। फिल्म ने अवसत बिज़नेस किया। उसके बाद `टेस्ट ट्यूब बेबी’, `अग्निप्रेम’,`पतोहो बिटिया’ जैसी कई फिल्में लिखी। कुछ तो बनकर मंजरे आम पर आयीं और कुछ तो डब्बे का शिकार हुईं। भोजपुरी, गुजराती और पंजाबी फिल्मों के लिए भी लिखकर काम चला लिया। कई फिल्मों के लिए लिखते तो सही लेकिन नाम नहीं देते।

पैसा और तज्रुबा तो मिलता लेकिन नाम नहीं
फिर सिरियल का ज़माना शुरू हुआ तो एकता कपूर के ग्रूप में शामिल हुआ। टेलिसिरियलों के लिए लिखना फिल्मों से अलग था। इतिहास के 8 से 10 एपिसोड लिखे। यहाँ तज्रुबा और रुपया दोनों मिले लेकिन नाम नहीं, क्योंकि एकता कपूर कई लोगों से लिखवातीं और किसी का नाम नहीं देतीं। कुछ एपिसोड में ही नाम दिया गया। ईटीवी जब नया नया शुरू हुआ था। साजिद आज़म इसके लिए सिरियल बना रहे थे। मुझे `हमारी ज़ीनत’ के डायलॉग लिखवाए। इस सिरियल ने कई अवार्ड जीते। मुंबई में एक अवार्ड के जलसे में ईटीवी की तरफ से मैंने ही अवार्ड हासिल किया। उस सिरियल को काफी सराहा गया। मैंने कई लोगों के लिए घोस्ट राइटिंग भी की। यहाँ किसी का नाम इसलिए भी नहीं लेना चाहता, क्योंकि घोस्ट राइटर को घोस्ट ही रखना ठीक है।
मुंबई में यू तो कई दिन अकेले ही गुज़ारे। फिर कुछ हालात साज़गार हुए तो बेगम को भी बुला लिया। किराये के घरों में रहे। अरब गली, ग्रेनेड रोड़, माहीम, बांद्रा कई मुहल्ले बदलते रहे। बाद में मलाड़ में ज़मीन लेकर अपना एक घर बनाया।
क़लम ही की कमाई से दो लड़कों और एक लड़की की शादी की। बेटी की शादी के दौरान ही पूणे आये। मुंबई का घर बेचकर यहाँ तलेगाँव में नया घर बनाया।
फिल्मों में काम कम हुआ तो शायरी का रूझान चल पड़ा। फिर शायरी ने अफ़साना निगार और और फिल्म राइटर को दबा दिया। `मौसम सोच नगर का’ मजमुए कलाम को बहुत सराहा गया। फिर तह़कीक का काम शुरू हुआ। अदब के तीन भाई और तंज़ो मिज़ाह के तीन सुतून दो किताबें उसी तह़क़ीक की देन हैं।