रमजानुल मुबारक और हमारी जिंदगी के कुछ इस्लाह तलब पहलू

दुनिया में पाए जाने वाले मजहबों में सिर्फ इस्लाम की खुसूसियत है कि वह इंसानी जिस्म के साथ-साथ रूह की तर्बियत का माकूल इंतेजाम करता है। इस रूहानी तर्बियत के लिए इस्लाम ने कई वसायल व जराए बताए। उन्हीं में माहे रमजान के रोजो की फर्जियत है।

इंसानी जिंदगी के कुछ पहलू तारीख के हर दौर में काबिले इस्लाह जरूर रहे हैं। वजह यह है कि इंसान गलती का पुतला वाके हुआ है। यह तारीख उतनी ही पुरानी है जितनी दुनिया की तारीख, हम तमाम गलती करने के जवाज में आदम (अलैहिस्सलाम) की जात को पेश करते हैं लेकिन गलतियों पर तौबा करने का सबक उनसे हासिल नहीं करते हैं।

हमारी जिंदगी में एक मर्तबा साल के दौरान रमजान का मुबारक साया मयस्सर होता है। लेकिन रमजानुल मुबारक की बेहतरीन घडि़यों में हमारी इंफिरादी या इज्तिमाई जिंदगी कुछ गलतियों का शिकार हो जाती है। इन्हीं कोताहियों को दूर करने की गरज से यह सतरे लिखी जा रही हैं।

रमजान और ईदैन के मौके पर सिर्फ रूयत का एहतेमाम किया जाता है और पूरा इस्लामी साल हम लापरवाही और गफलत में गुजार देते हैं। हम पर जरूरी है कि मगरिबी तहजीब के शिकंजे से निकल कर जिंदगी के हर मोड़ पर इस्लामी कैलेंडर की तारीख का इस्तेमाल करें और हर माहरूयत का बारीकी से जायजा लिया जाता रहे।

रमजानुल मुबारक में उम्मत का बाज नौजवान तबका होटलों और पार्कों के पास गपशप करते हुए नजर आता है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि रमजान की आमद पर सिर्फ खुशी मना लेना काफी नहीं बल्कि रमजान जैसी नेमत के शुक्रिया की अदाएगी की बेहतरीन सूरत यह है कि रमजान की हर घड़ी इताअते इलाही में गुजारी जाए।

माहे रमजान में हमारी कुछ मुस्लिम ख्वातीन का तसव्वुर यह होता है कि रमजान की आमद पर उम्दा से उम्दा पकवान किया जाए इस गरज की खातिर वह दिन और रात का अक्सर हिस्सा किचन में गुजार देती है यहां तक कि इफ्तार के वक्त दुआओं की मकबूलियत की घड़ी को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है।

मुस्लिम ख्वातीन की जिम्मेदारी है कि वह मर्दों की तरह इताअत के मैदान में जज्बा मुसाबकत का इजहार करे।
उम्मते मुस्लेमा में बाज लोगों को यह गलत फहमी हो जाती है कि रमजान में सारी रात जागे और रात के किसी हिस्से में कुछ खाकर सो जाएं, न उन्हें सहरी की फजीलत मालूम होती है और न नमाजे फजिर की जमाअत का ख्याल रहता है।

इसलिए जरूरी है कि रमजान में जल्द सो जाएं और सुबह तहज्जुद का एहतमाम किया जाए और सहरी की फजीलत भी पा लें। बाज लोग नमाजे तरावीह में काहिली का मुजाहिरा करते हैं। हालांकि ईमान व सवाब की नीयत से कयाम करना छोटे गुनाहों के लिए कफ्फारा का बाइस है। (बुखारी)

बाज आवाम दिन भर रोजा की हालत में तमाम फर्ज और ससुन्नत मोकिदा को छोड़ देते हैं, मुुफीद यह होता कि तरावीह के लिए तैयारी की जाए, इब्ने हजर इस सूरतहाल पर इन लफ्जोें में तब्सिरा करते हैं-‘‘अगर किसी शख्स को उसकी नफिल नमाजे फर्ज नमाजों से रोक दें तो वह मफरूर है।’’

आवाम का एक तबका यह समझता है कि रमजान में नमाजे फजिर के बाद पूरा वक्त (दिन का) सोया जाए। यह भी गफलत की इंतिहा है। हालांकि सहाबा ने रसूल (सल्लल्लाहो अलैहिवसल्लम ) के साथ गजवा-ए-बदर और फतह मक्का में रोजो की हालत में बहादुरी के जौहर दिखाए। अगर सहाबा के पास रमजान के महीने में दिन को महज आराम करना बाइसे सवाब होता तो बदर और फतेह मक्का में शरीक न होते।

बल्कि इंसान को रूहानी कुवत रोजो से बकसरत हासिल होती है तो इंसान को हर लम्हा चाक चैबंद रहना चाहिए।
बाज लोग रोजे की हालत में थूक निगलने को मुफतिराते सौम में शुमार कर लेते हैं हालांकि नबी करीम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ) ने मुफतिराते सौम की फेहरिस्त उम्मत के सामने रख दी है और इसमें थूक का जिक्र नहीं है।

सहरी और इफ्तार के अवकात में बाज लोग ज्यादा शकूक व शुब्हात का शिकार हो जाते हैं और सहरी और इफ्तार दोनों के अवकात में जाबजा ताखीर से काम लिया जाता है। हालांकि सहरी में ताखीर और इफ्तार में जल्दी करने को नबी करीम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ) ने खैर की अलामत बताया है। फरमाया-मेरी उम्मत उस वक्त तक भलाई पर रहेगी जब तक कि वह इफ्तार में जल्दी करती है। (यानी जाबजा ताखीर से मना किया जा रहा है)

इस माहे रमजान में हम देखते हैं कि बाज लोग सहरी व इफ्तार के वक्त में पढ़ी जाने वाली दुआओं में कुछ गैर मुस्तनद रिवायात या किताबों का सहारा लेते हैं जो चीज सही रिवायात के साथ हम तक पहुंचे उसका इंतखाब किया जाए।

माहे रमजान नुजूले कुरआन का महीना है। इसमें एक गलती यह हो जाती है कि कुरआन की तिलावत के लिए शरई उसूल व जवाबित की रियायत बिल्कुल नहीं होती है। तोते की रट के इलावा कोई चीज सुझाई नहीं देती। इसलिए उम्मत के उलेमा पर जरूरी है कि नमाजे तरावीह में कुरआन को साफ वाजेह अंदाज में ठहर-ठहर कर पढ़े। नबी करीम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ) का जिस साल इंतकाल हुआ उस साल आपने दो बार जिब्रईल अमीन को कुरआन सुनाया।

इस हदीस को बुनियाद बनाते हुए बाज उलेमा ने लिखा है कि कम से कम रमजान में दो बार कुरआन की मुकम्मल तिलावत कर ली जाए। अगर एक ही बार हो तब भी बेहतर है।

कुछ मस्जिदों में नमाजे तरवीह की हर दो रिकात के बाद कुछ तस्बीहात पढ़ी जाती है। हालांकि इसका कुरआन व हदीस से कोई सबूत है और न किसी फकही किताब से लिहाजा इस गैर मशरूअ इबादत को खत्म हो जाना चाहिए।

मसाजिद के पास नमाजे तरावीह के वक्त बच्चों का शोर व हंगामा उरूज पर होता है वाल्दैन की जिम्मेदारी है कि अपने बच्चों को मसाजिद के आदाब की रियायत करने की तालीम दें ताकि हर इबादत गुजार यकसूई के साथ इबादत कर सके।

बाज मसाजिद में इज्तिमाई इफ्तार का इंतजाम किया जाता है इस दौरान नमाज पढ़ने की जगह गंदी कर दी जाती है। इस मौके पर मुंतजिमीने मसाजिद से अदबन गुजारिश है कि इफ्तार के लिए मस्जिद से अलग जगह का इंतेजाम किया जाए या फिर इंफिरादी तौर पर हर आदमी अपने घर से इफ्तार करके नमाजे मगरिब के लिए आए।

बाज लोग इफ्तार में इतने लगे हुए होते हैं कि दुआओं की कुबूलित के अवकात की कीमत कुछ नहीं रह जाती। बाज लोग माहे रमजान में अपने खाने की मिकदार में इजाफा कर लेते हैं। हालांकि खाने और गिजा की मिकदार की कसरत इस्लाम में काबिले मदह नहीं है।

अहादीस में मजकूर है कि रोजेदार के मुंह की बू अल्लाह के पास मुश्क से ज्यादा पसंदीदा है। बाज लोग बाद नमाजे जुहर ब्रश और पेस्ट का इस्तेमाल करते हैं। बेहतर है कि मिसवाक इस्तेमाल करें क्योंकि रमजान में कसरत से मिसवाक करना उसवा-ए-नबवी है।

मुख्तसर यह कि माहे रमजान में पाई जाने वाली हर मुखालिफत को खत्म किया जाए। रमजान में हम हर चीज के इजाफे के ताल्लुक से सोंचते हैं लेकिन हमारा ईमान नाकिस का नाकिस ही रहता है। अल्लाह तआला उम्मते मुस्लेमा का भला करे- आमीन।—– (मौलाना अबुल खैर हमाद)

————बशुक्रिया: जदीद मरकज़