रमजानुल मुबारक की फजीलत, खुसूसियात व बरकात

रमजानुल मुबारक की हर रात, हर दिन, हर लम्हा और सारा महीना खुसूसियात का है। मगर इसमे खास यह है कि इस महीने में कुरआन शरीफ नाजिल हुआ। कुरआन शरीफ लौहे महफूज से आसमान दुनिया की तरफ इसका नुजूल रमजान की सत्ताइसवीं तारीख में हुआ। रमजान की पहली तारीख को हजरत सैयदना शेख अब्दुल कादिर जिलानी की विलादत हुई। रमजान की तीसरी तारीख को नबी करीम (सल0) की लख्ते जिगर हजरत फातिमा (रजि0) का विसाल हुआ। रमजानुल मुबारक की छठी तारीख को तौरात शरीफ नाजिल हुई। रमजान की दस तारीख को हजरत खदीजा अल कुबरा (रजि0) का विसाल हुआ। रमजान की सत्रह तारीख को इस्लाम की पहली जंगे अजीम बदर के मकाम पर लड़ी गई और इसी तारीख को इंजील शरीफ नाजिल हुई। अट्ठारह रमजानुल मुबारक को जुबूर नाजिल हुई। इसी महीने की इक्कीस तारीख को सैयदना अली मुर्तजा शहादत के मंसब से सरफराज हुए।

कायनाते आलम का इस रौशन हकीकत से कौन इंकार कर सकता है कि इंसान को अल्लाह तआला ने अशरफुल मखलूकात बनाया और इसके लिए ऐश व आराम, फरहत बख्श हवाएं और जिंदगी गुजारने के हजारों असबाब व वसायल महज अल्लाह तआला का अपने बंदो पर एहसाने अजीम है। मजहबे इस्लाम हिदायत देता है कि अगर तुम सरमायादार हो या साहबे माल हो तो दूसरे नादार मुसलमान भाइयों का उसमें हक जानकर उसको अदा करो ताकि अल्लाह तआला की खुशनूदी हासिल हो। अल्लाह का इरशाद है-‘‘ तुम हरगिज भलाई को न पहुंचोगे जब तक राहे खुद में अपनी प्यारी चीज खर्च न करो।

’’ इसी तरह खालिके कायनात ने माहे रमजान में रोजा रखने का हुक्म दिया ताकि मुसलमानों को गरीबी और तंगदस्ती में मुब्तला और भूक-प्यास से बिलकते इंसानों के दर्द व गम का एहसास हो जाए, दिल व दिमाग में जरूरतमंद मुसलामनों की किफालत का जज्बा-ए-सादिक पैदा हो जाए और खुसूसी तौर पर मुसलमान रमजान की इबादत की बदौलत अपने आप को पहले से ज्यादा अल्लाह तआला के करीब महसूस करता है। गरज कि महीने भर की इस मश्क का मकसदे खास भी यही है कि मुसलमान साल भर के बाकी ग्यारह महीने भी अल्लाह तआला से डरते हुए जिंदगी गुजारे, जिक्र व फिक्र, इबादत व रियाजत, कुरआन की तिलावत और यादे इलाही में खुद को मसरूफ रखे।

हजरत उमर बिन अब्दुल्लाह (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल0) ने इरशाद फरमाया -‘‘कयामत के दिन रोजो और कुरआन बंदे की शफाअत करेंगे, रोजे अर्ज करेंगे कि ऐ अल्लाह मैंने इसको दिन में खाने और शहवत से रोका। इसलिए तू इसके लिए मेरी शफाअत कुबूल फरमा और कुरआन कहेगा कि मैंने इसे रात में सोने से रोका। लिहाजा इसके हक में मेरी शफाअत कुबूल फरमा ले पस दोनों की शफाअत कुबूल होगी। (मिश्कात शरीफ)

यह वह महीना है जिस का अव्वल हिस्सा रहमत बीच का हिस्सा मगफिरत और आखिरी हिस्सा निजात यानी जहन्नुम से आजादी का है। (मिश्कात शरीफ)

रमजान शरीफ का रोजा दस शव्वाल दो हिजरी में फर्ज हुआ। सबसे पहले यौमे आशूरा का रोजा फर्ज हुआ फिर इसकी फर्जियत अयामे बैज के रोजे की फर्जियत से मंसूख हो गई। फिर जब रमजान का रोजा फर्ज हुआ तो इसकी फर्जियत ने अयामे बैज के रोजे की फर्जियत को मंसूख कर दिया गया। (तफसीरे अहमदी)

हजरत आदम (अलै0) अयामे बैज का रोजा रखा करते थे, हजरत मूसा (अलै0) आशूरा का रोजा रखते थे। हजरत इदरीस (अलै0) हमेशा रोजा रखते थे। हजरत नूह (अलै0) यौमे फित्र और यौमे अल जहा को छोड़कर हमेेशा रोजा रखते थे और हजरत इब्राहीम (अलै0) हर माह तीन दिन रोजा रखते थे। हजरत दाऊद (अलै0) एक दिन रोजा रखते और एक दिन इफ्तार करते थे। हजरत सुलेमान (अलै0) हर महीने के शुरू में तीन दिन और बीच में तीन दिन और आखिर में तीन दिन रोजा रखते थे। हजरत ईसा (अलै0) हमेशा रोजा रखते थे।

रमजान एक ऐसा महीना है जिसमें हर दिन और हर वक्त इबादत होती है। रोजा इबादत इफ्तार इबादत इफ्तार के बाद तरावीह का इंतजार करना इबादत, तरावीह पढ़कर सहरी के इंतजार में सोना इबादत गरज कि हर पल खुदा की शान नजर आती है। कुरआन शरीफ में सिर्फ रमजान शरीफ ही का नाम लेकर इसकी फजीलत को बयान किया गया है किसी दूसरे महीने को यह शर्फ हासिल नहीं। इसमें एक रात शबे कद्र है जो हजार महीनों से बेहतरहै। रमजान में इब्लीस और दूसरे शैतानों को जंजीरों में जकड़ दिया जाता है (जो लोग इसके बावजूद भी जो गुनाह करते हैं वह नफ्से अमारा की वजह से करते हैं) (बुखारी) रमजान में नफिल का सवाब फर्ज के बराबर और फर्ज का सवाब सत्तर गुना मिलता है। रमजान शरीफ में सहरी और इफ्तार के वक्त दुआ कुबूल होती है।

रमजान में मरने वालों से कब्र में सवालात नहीं होते। माहे रमजान में खाने पीने का हिसाब नहीं होता। इस महीने में आसमानों और जन्नतों के दरवाजे खुल जाते हैं जिनमें से अल्लाह तआला की खास रहमतें जमीन पर उतरती हैं और जन्नती हूर व गुलमा को खबर होती है कि माहे रमजान आ गया और वह रोजेदारों के लिए खास दुआओं में मशगूल हो जाती हैं। इस महीने में दोजख के दरवाजे बंद होने की वजह से इस महीने में गुनहगारों बल्कि काफिरों की कब्रों पर भी दोजख की गर्मी नहीं पहुंचती। जैसे भट्टी गंदे लोहे को साफ और साफ लोहे को मशीन का पुर्जा बनाकर कीमती कर देती है ऐसे ही माहे रमजान गुनाहगारों को पाक साफ करता है।

एक महीने के रोजे का हुक्म देने में एक हिकमत यह भी है कि बंदो को साल से गिनती के मुताबिक सवाब नसीब हो जाए। इस तरह कि अल्लाह तआला ने कुरआने करीम में एलान फरमाया- ‘‘जो एक नेकी लाएगा उसके लिए उस जैसी दस हैं। और माहे कामिल तीस दिनों का होता है इस हिसाब से माहे रमजान में तीन सौ रोजों का सवाब मिलता है। फिर इसके साथ शव्वाल के छः रोजे मिला लीजिए जो साठ रोजे बन गए। इस तरह पूरे साल के तीन सौ साठ रोजो का सवाब हासिल हो जाता है। लेकिन यह नेकियों की हद की इंतिहा नहीं जैसे अल्लाह का फरमान है-‘‘ और अल्लाह तआला इससे भी ज्यादा बढ़ाए जिसके लिए चाहे।’’

रमजान की तमाम खुसूसियात में से एक सहरी भी है। सुबह से पहले रात के आखिर हिस्से को सहर कहा जाता है और इस वक्त रोजा की नीयत से खाने को सहरी कहते हैं। इस वक्त का खाना पीना सुन्नत और बाइसे बरकत है। नबी करीम (सल0) ने फरमाया कि सहरी खाओ कि सहरी खाने में बरकत है। लिहाजा बिला किसी मजबूरी के सहरी खाना छोड़ना एक बरकत से महरूम होना है। सहरी आद्दी रात से शुरू हो जाती है मगर सुन्नत यह है कि रात के आखिरी छठे हिस्से में सहरी खाई जाए।

हजरत अबू हुरैरा (रजि0) फरमाते है कि नबी करीम (सल0) ने फरमाया- अल्लाह तआला फरमाता है मेरे नजदीक महबूब बंदा वह है जो इफ्तार में जल्दी करे। हजरत सहल बिन साद फरमाते हैं कि नबी करीम (सल0) ने फरमाया- जब तक लोग जल्दी इफ्तार करते रहेंगे भलाई में रहेंगे। (तिरमिजी)

भलाई का सबब यह है कि जल्दी इफ्तार करने में बंदो की तरफ से अल्लाह की बारगाह में अपनी आजिजी का इजहार करना है और अल्लाह की दी हुई इजाजत का जल्दी कुबूल कर लेना है। अगर इफ्तार उस वक्त किया जाए जब कि सूरज डूबने का गालिब गुुमान हो जाए। हदीस में है कि अल्लाह तआला रमजान की हर शब इफ्तार के वक्त एक लाख दोजखियों को दोजख से आजाद फरमा देता है और वह ऐसे होते हैं जिन पर अजाब वाजिब होता है। मजहबे इस्लाम न सिर्फ इफ्तार का हुक्म देता है बल्कि दूसरे रोजेदारों को इफ्तार कराने की तरगीब भी देता है। हजरत जैद बिन खालिद (रजि0) फरमाते हैं कि नबी करीम (सल0) ने इरशाद फरमाया- जिस ने किसी रोजेदार का इफ्तार कराया उसके लिए उसी के मिस्ल सवाब है। इसके बगैर कि रोजेदार के सवाब में कुछ कमी हो। (तिरमिजी)

तरावीह की नमाज मर्द और औरत सबके लिए बाजमाअत सुन्नते मोकिदा है इसका छोड़ना जायज नहीं। इस पर सहाबा ने मदावमत फरमाई है और खुद नबी करीम (सल0) ने भी तरावीह पढ़ी है। पाबंदी से तरावीह अदा करने वाले पर अज्र व सवाब के जखीरे के अलावा एक खास फायदा यह भी है कि दिन भर का भूक-प्यास के बाद इफ्तार और खाना खाने से तबीयत में जो भारीपन हो जाता है तरावीह पढ़ने से खत्म हो जाता है और मेदा हल्का होकर सहरी का खाना कुबूल करने के लिए तैयार हो जाता है जो सेहत के लिए काफी मुफीद है।

बीस रिकात तरावीह की हिकमत यह है कि रात और दिन में कुल बीस रिकात फर्ज व वाजिब है। सत्रह रिकात फर्ज और तीन रिकात वाजिबुल वितिर और रमजान में बीस रिकात तराबीह मुकर्रर की गई ताकि फर्ज व वाजिब के मदारिज और बढ़ जाए और उनकी खूब तकमील हो जाए। कुरआन शरीफ का लौहे महफूज से आसमान दुनिया की तरफ नुजूल रमजान की सत्ताइसवीं तारीख में हुआ फिर वहां से बकदर जरूरत थोड़ा थोड़ा नाजिल होता रहा यहां तक कि सारे कुरआन के नुजूल होने में तेइस साल मुकम्मल हो गए। कुरआने मजीद नूर है सामाने निजात है, इसकी तिलावत का अज्र बेहिसाब है।

इसका एक-एक हर्फ खैर व बरकत है। अल्लाह का इरशाद है- और हम कुरआन में उतारते हैं वह चीज जो मोमिनों के लिए शिफा और रहमत है। कुरआन की एक खुसूसियत यह भी है कि कुरआन पढ़ना नहीं आए तो सीखने की कोशिश करो या घर के किसी फर्द से पढ़वा कर बावजू सुनो। किसी से फरमाइश करके कुरआन का सुनना भी सुन्नत है। (बुखारी) हजरत आयशा सिद्दीका (रजि0) फरमाती है कि नबी करीम (सल0) ने फरमाया- वह शख्स जो कुरआन पढ़ता है मगर उसे अच्छी तरह नहीं पढ़ सकता और वह उसे मुश्किल महसूस होता है इसलिए दोहरा अज्र है। एक तिलावते कुरआन का है और दूसरा अज्र पढ़ने में मशक्कत उठाने का। ….कारी मोहम्मद अंसार नूरी(जदीद मरकज़)
कारी मोहम्मद अंसार नूरी