रमजानुल मुबारक में जैसा कि रिवाज है हम लोग कुरआन मजीद की तिलावत का खास एहतेमाम करते हैं लेकिन हमारे अक्सर भाई बहन दानिस्ता और नादिस्ता तौर पर हकीकी मायनों में कुरआन की तिलावत में कुछ जरूरी और बुनियादी उसूलों की खिलाफवर्जी करके सवाब के बजाए अजाब को दावत देते हैं।
हो सकता है आप लोगों को मेरी बात नागवार गुजरे लेकिन यह हकीकत है कि हम लोग कुरआन का सही हक अदा नहीं कर पाते। अगर हम लोग थोड़ी सी एहतियात और जरा सी मेहनत करके तिलावत के बुनियादी उसूलों के तहत तिलावत करें तो मजा दोबाला हो जाए।
मैंने अपनी कम इल्मी के बावजूद इस मौजूअ पर कलम उठाने की जसारत ( हिम्मत) की है। अल्लाह से दुआ है कि वह मेरी खताओं को दरगुजर फरमा दे और मेरी यह हकीर कोशिश कुबूल फरमा ले।
कुरआन की निहायत ठहर-ठहर कर सुकून और दिल जमई के साथ तिलावत करें जैसा कि अल्लाह पाक का इरशाद है- कुरआन को ठहर-ठहर कर तरतील के साथ पढ़ो। कुरआन के हुरूफ को उनके सही मखरज से अदा करे। किसी अरबी हर्फ की अस्ली आवाज की जगह दूसरे अरबी हर्फ की आवाज निकालने को लहने जली कहा जाता है।
मिसाल के तौर पर ‘से’ की जगह ‘सीन’ या ‘हे’ की जगह ‘हे’ पढ़ना लहने जली है और लहने जली को बुजुर्गों ने हराम करार दिया है। पढ़ने, सुनने और पढ़ाने वाले सब गुनाहगार होंगे। अरबी तर्जे अदा को छोड़कर या अरबी लहजे की खिलाफवर्जी करके किसी और लहजे या तर्ज में तिलावत करने को लहने खफी कहते है। मिसाल के तौर पर किसी जगह ‘रा’ को पुर करके यानी मोटी करके पढ़ना है। वहां ‘रा’ को मोटी न करना लहने खफी है। लहने खफी मकरूह है।
जैसा कि आप को मालूम है कि हर जबान की बोल चाल में बोलने वाले कही ठहरते हैं कहीं नहीं ठहरते कहीं ज्यादा ठहरा जाता है कहीं कम। इससे बोलने वाले का सही मतलब समझने में मदद मिलती है। इसलिए कुरआन पाक की आयतों का सही मतलब समझाने के लिए हमारे बुजुर्गों ने कुछ निशानियां (अलामतें) मुकर्रर कर दी हैं। उन निशानियों को रमूजे औकाफ कहा जाता है। कारईन की मालूमात के लिए उनमें से जरूरी अलामतें बयान की जा रही हैं। जहां बात पूरी हो जाती है वहां दायरा या पांच का हिद्सा यानी पान की शक्ल का निशान बना होता है।
यह दायरा या निशान इस बात की अलामत है कि आयत पूरी हो गई। इस वजह से खुद उस दायरे को भी आयत कहा जाता है। जहां यह दायरा हो वहां सांस तोड़कर ठहर जाना बेहतर है। ‘मीम’- यह मीम वक्फ लाजिम की अलामत है। जहां मीम बना हुआ हो वहां जरूर ठहरना है। अगर न ठहरा जाए तो सख्त अंदेशा है कि आयत का मतलब कुछ से कुछ हो जाएगा और पढ़ने वाला गुनाहगार होगा।
‘तो’ – यह वक्फ मुतलक की अलामत है इस अलामत पर न ठहरने में कहीं-कहीं मतलब बदल जाने का अंदेशा होता है। इसलिए ‘तो’ की अलामत पर ठहर जाना बेहतर है।
जीम- वह वक्फ जायज की अलामत है। इस अलामत पर न ठहरना जायज है लेकिन ठहर जाना बेहतर है। ला- यह अलामत कहीं तो दायरा के ऊपर और कहीं दायरा के अंदर बनी होती है और कहीं बगैर दायरे के सिर्फ ‘ला’ लिखा होता है। जहां कहीं दायरे के ऊपर या अंदर ‘ला’ लिखा होता है तो आम बोल चाल में इसको ‘आयत ला’ कहते हैं। यहां पढ़ने वाले को अख्तियार है कि चाहे तो ठहरे या न ठहरे।
जहां कहीं दायरे के बगैर ‘ला’ लिखा होता है वहां हरगिज ठहरना नहीं चाहिए। अगर ठहर जाएंगे तो मायनी बदल जाने का अंदेशा है। सक्ता- यहां बगैर सांस तोड़े जरा सा ठहर जाना बेहतर है। कई बुजुर्गों के नजदीक जितना ‘सक्ता’ पर ठहरो उससे कुछ ज्यादा ‘वक्फा’ पर बगैर सांस तोड़े हुए ठहरो। कहीं-कहीं तीन नुक्ते- दो नीचे एक ऊपर बने होते हैं। दो जगहों पर इस किस्म के तीन नुक्तों को मुआनिका कहा जाता है।
अक्सर हाशिया पर मुआनिका लिखा होता है। यह नुक्ते आयत को तीन हिस्सों में बांट देते हैं। इसका मतलब यह है कि दो जगह पर जो तीन नुक्ते बने हुए हैं उन में से किसी एक जगह के तीन नुक्तों पर ठहरना है और दूसरी जगह के तीन नुक्तों पर नहीं ठहरना है। जैसे सूरा कद्र के आखिर में मुआनिका है।
तिलावत के तीन फायदे हैं- दिल का जंग दूर होता है अल्लाह पाक की मोहब्बत में तरक्की होती है, हर हर हर्फ पर दस नेकियां मिलती हैं। तिलावत के दो अहम आदाब है पढ़ने वाला दिल में यह ख्याल करे कि अल्लाह तअला ने हुक्म दिया है कि सुनाओ क्या पढ़ते हो।
सुनने वाला दिल में यह ख्याल करे कि अहकमुल हाकिमीन और मोहसिने आजम का कलाम पढ़ा जा रहा है। इसलिए निहायत अजमत व मोहब्बत के साथ पढ़ना चाहिए। (महफूज आलम)
——–बशुक्रिया: जदीद मरकज