रमजान के फजायल

रोजा इस्लामी इबादात का दूसरा अहम रूक्न है। रोजा एक ऐसी इबादत है जिसमें नफ्स की तहजीब और उसकी इस्लाह और कुवते बरदाश्त तर्बियत मद्देनजर होती है। रोजा के लुगवी मायनी रूकने और कोई काम न करने के हैं। शरई इस्तलाह में सुबह सादिक से लेकर गुरूबे आफताब तक इबादत की नीयत से खाने पीने और जमाअ से रूके रहने का नाम सोम या रोजा है।

रोजा जिसका वजूद कदीम से कदीम मजहबों में भी मिलता है। इसलिए इसकी तरफ इशारा करते हुए अल्लाह तआला फरमाता है- ऐ मुसलमानो! तुम पर रोजा रखना इस तरह फर्ज किया गया है जिस तरह उन लोगों पर फर्ज किया गया था जो तुम से पहले गुजर चुके हैं। और इसकी गरज तकवा का हुसूल और तहजीबे नफ्स है। (बकरा-184)

रमजानुल मुबारक वह मुबारक महीना है जिसमें अल्लाह तआला की आखिरी शरीअत के नुजूल का निफाज और कलामे इलाही अपने कमाल को पहुंच गया और इस महीने को रोजा की खास इबादत के लिए मखसूस किया गया है जिसके मुताल्लिक अल्लाह तआला फरमाता है कि रोजा मेरे लिए है और मैं ही इसकी जजा हूँ। इस महीने में हर उस आकिल बालिग मर्द व जन पर रोजा वाजिब है जो बीमार की हालत में न हो।

बीमार या मुसाफिर के लिए अल्लाह का इरशाद है कि वह बाद में रोजो की गिनती पूरी करे। लेकिन ड्यूटी के लिहाज से दायमी सफर में रहने वालों को रोजा रखना चाहिए। क्योंकि उनका सफर एक कयाम का रंग रखता है। रोजा रखने वाले के लिए लाजिम है कि अपना वक्त खुसूसियत से नेकी और तकवा, तहारत और सदाकते अमल में गुजारे और हर किस्म की बदी और बेहुदगी से बचे।

मगर इस नीयत से नहीं कि रमजान की कैद के दिनों के बाद फिर बदी की आजादी की तरफ लौट जाएगा। बल्कि वह इस तर्बियती रेफरेशर कोर्स के नतीजे में हमेशा मुत्तकी रहने की कोशिश करेगा। रोजो के दिनों में नमाजों की पाबंदी और तिलावते कुरआन ए पाक और दुआओं और जिक्रे इलाही का शगफ खास तौर पर जरूरी है।

रोजो की रातों में तहज्जुद की नमाज की बड़ी ताकीद आई है। तहज्जुद की नमाज मोमिनों को उनके मखसूस इंफिरादी मकामे महमूद तक पहुंचाने और इंसान की पोशीदा सलाहियतों को उजागर करने में बेहद असरदार है। तहज्जुद की इबादत की अहमियत और अफादियत का इशारा सूरा बनी इस्राईल में मिलता है।

कुरआने करीम में रोजा को इस्लाहे नफ्स का जरिया बताया गया क्योंकि जहां इंसान खुदा की खातिर लज्जतों को तर्क कर देता है वहां अपने नफ्स को ज्यादा नेकी पर कायम करने और हर किस्म की हराम और नजिस चीजों से परहेज करने की कोशिश करने का सबक मिलता है।

जो शख्स रोजा में अपनी हर चीज खुदा के लिए छोड़ता है जिसका इस्तेमाल करना उसका कानूनी और अखलाकी जुर्म नहीं तो उससे उसे आदत होती है कि गैरो की चीजों को नाजायज तरीके से इस्तेमाल न करें उनकी तरफ न देखें और जब वह खुदा के लिए जायज चीजों को छोड़ता है तो उसकी नजर नाजायज चीजों पर नहीं पड़ सकती।

रोजे के अखलाकी रूहानी फायदे के साथ जिस्मानी फायदा भी है और वह यह कि इंसानी जिस्म तकलीफों को बरदाश्त करने का आदी हो जाता है और उसमें कुवते बरदाश्त और सब्र का माद्दा पैदा होता है। इसके इलावा सेहत के बरकरार रखने में फाका की तिब्बी अहमियत काफी है।

अगर एतदाल पेशे नजर रहे तो सेहत में नुमायां फर्क पड़ता है। यानी पेट ठीक रहता है मोटापा कम होता है। गोया रोजा जिस्म की सेहत का भी जामिन है और रूहानी लिहाज से तकवा का सरचश्मा है। कुरआने करीम में रोजा मुत्तकी बनने के लिए एक बेहतरीन नुस्खा है।

मुत्तकी जब तकवा पर कायम हो जाता है तो उसके अखलाक में नुमायां तरक्की नजर आती है। रोजा की इस तरक्कीयाफ्ता हाल से खुशखल्की, इफ्फत, दयानत नेक चलनी और नफ्स की पाकी की तौफीक मिलती है, सब्र और जुर्रत की कुवतो की नशोनुमा होती है, गरीबों की तकलीफ का एहसास होता है और उनकी मदद करने का जज्बा बढ़ता है।

इस तरह इक्तेसादी और तबकाती मसावात के रूझानात को फरोग मिलता है। इसके साथ सेहत भी बरकरार रहती है। लेकिन मुसलमानों की गालिब अक्सरियत रोजा की हकीकत से बेखबर है और बाज तबकों के ख्याल से रोजा उतना ही है कि इसमें इंसान भूका-प्यासा रहता है। बल्कि उसकी एक हकीकत और इसका असर है जो तजुर्बे से मालूम होता है।

इंसानी फितरत में है कि जिस कदर कम खाता है उसी कदर नफ्स की पाकी होती है। रोजा का इतना ही मतलब नहीं कि रोजेदार भूका रहे बल्कि उसे चाहिए कि अल्लाह के जिक्र में मसरूफ रहे। इसलिए रोजे से सही मतलब है कि इंसान एक रोटी छोड़कर जो सिर्फ जिस्म की परवरिश करती है दूसरी रोटी को हासिल करे जो रूह को तसल्ली का बाइस है जो लोग महज खुदा के लिए रोजा रखते हैं और रस्म के तौर पर नहीं रखते उन्हें चाहिए कि अल्लाह तआला की हम्द और तस्बीह में लगे रहें।

नबी करीम(स०अ०व०) ने मुख्तलिफ मौकों पर रमजानुल मुबारक की फजीलत बयान फरमाई है और इसकी अजमत और अहमियत दिलों में बिठाई है। उसमें से आप के बाज इरशादात यह हैं- यह महीना सब्र का है और सब्र का सवाब जन्नत है। यह हमदर्दी व गम ख्वारी का महीना है। फिर फरमाया- यह ऐसा महीना है जिसमें मोमिन का रिज्क बढ़ा दिया जाता है। (शेख अब्दुल मजीद)

बशुक्रिया: जदीद मरकज