रमज़ानुल मुबारक का इस्तकबाल पूरी अजमत से कीजिए

(मौलाना मुफ्ती मोहम्मद आशिक इलाही) रमजानुल मुबारक हमारी जिन्दगी में एक बार फिर आ रहा है। इस अज़ीम महीने का इस्तकबाल पूरी अजमत व एहतराम के साथ कीजिए। यह आपको बनाने, संवारने और सजाने आ रहा है, आपकी किस्मत बनाने आ रहा है, आप की तौबा कुबूल करने आ रहा है, यहां तक कि आपकी मगफिरत का परवाना आपको देने आ रहा है।

नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) का फरमान है कि होशियार (अक्लमंद) तवाना वह है जो अपने नफ्स को काबू में रखे और आखिरत की निजात व कामयाबी के लिए अमल करे और नादान व नातवां वह है जो अपने आपको अपनी ख्वाहिशाते नफ्स का ताबे कर दे और बजाए एहकामे खुदाबंदी के अपने नफ्स के तकाजो पर चले और अल्लाह से उम्मीदें बांधे। रमजान के इस्तकबाल से मुताल्लिक नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) की एक हदीस से इरशाद मिलता है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने पन्द्रह शाबान के बाद अहले ईमान को रोजा रखने से मना फरमाया है ताकि लोग ताजा दम होकर रमजान के रोजे तिलावत और नावाफिल वगैरह करे और इनमे जिस्मानी कमजोरी लाहक न हो जाए।

आपने फरमाया-जब आधा शाबान गुजर जाए तो तुम नफिली रोजे न रखो।
रमजानुल मुबारक में हर काम का अज्र व सवाब सत्तर गुना बढ़ जाता है। इसका क्या सबब है। गौर से कुरआन का मुताला किया जाए तो इसकी वजह यह है कि इस महीने में कुरआने मजीद नाजिल हुआ है जिसमें मुसलमान को मुकम्मल जाब्ता-ए-हयात और निजामे जिंदगी अता किया गया है।

लिहाजा रमजान में बड़े पैमाने पर कुरआन की तिलावत तर्जुमा व तफहीम और कुछ हिस्सा हिफ्ज करने का एहतमाम किया जाए।
फर्ज नमाजों और तरावीह का एहतमाम जमाअत के साथ:- रमजानुल मुबारक का चांद नजर आते ही मुस्लिम घरानों मं फरहत की लहर दौड़ जाती है और वह चांद देखकर यह दुआ करते हैं (तर्जुमा) अल्लाह सबसे बड़ा है, ऐ अल्लाह तू इसे हम पर तुलूअ कर अम्न व अमान, सलामती और इस्लाम के साथ और उस चीज की तौफीक के साथ जिससे तू मोहब्बत करता है और जिसे पसंद करता है (ऐ चांद!) हमारा रब और तेरा रब अल्लाह है।

मगरिब की नमाज के साथ ही गैर मामूली तौर पर हर आदमी अपने मामलात और काम समेट कर नमाजे इशा और नमाजे तरावीह में शिरकत के लिए तैयारियां शुरू कर देता है। इस बात का एहतमाम करे कि इशा की अजान के साथ ही हर आदमी मस्जिद पहुंचे और उसका निशाना यह हो कि वह पहली सफ में जगह हासिल करने में कामयाबी हासिल करे क्योंकि पहली सफ का सवाब बहुत ज्यादा है वरना तकबीर तहरीमा तो किसी सूरत फौत न होने पाए।

दूसरा काम यह करे कि घर से वजू बनाकर आए और मस्जिद में पहुंच कर तहयतुल वजू और तहयतुल मस्जिद की नीयत करके दो-दो रिकात नमाज अदा करे और इसके बाद दो या चार नवाफिल अदा करना मुमकिन हो तो वह भी जरूर अदा करे। अहादीस में इसका बड़ा अज्र व सवाब बयान हुआ है हमें काम इस अज्म व हिम्मत और कोशिश से करने चाहिए कि यह हमारी जिन्दगी का मामूल बन जाए।

फर्ज नमाजों के हम पाबंद हैं इसलिए तमाम नमाजों के लिए ऊपर दर्ज बातों का इल्तजाम करना चाहिए। अलबत्ता यहां तीसरी बात जो मैं खुसूसियत से कहना चाहता हूं वह यह है कि तरावीह की नमाज का भी हम सब लोग एहतमाम करें। एक तो इसलिए कि कल कयामत के दिन अल्लाह तआला के यहां फर्ज नमाजों के मुहासिबा के वक्त मुमकिन है यह नवाफिल अल्लाह की खास रहमत से हमारे काम आ जाएं। दूसरे इसलिए भी कि कयामे रमजान के इस मुख्तसर अमल को हदीस में हजरत अबूजर गफ्फारी (रजि0) के एह सवाल के जवाब में नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने फरमाया कि जो शख्स यह नमाज (तरावीह) पढ़ता है उसको पूरी रात के कयाम का सवाब मिलेगा।

तीसरे यह कि यह नमाज दरअस्ल ज्यादा से ज्यादा कुरआने मजीद को सुनने के लिए है। लिहाजा आठ और बीस रिकात की बहस से परे पूरे कुरआने मजीद को सुनने के लिए ऐसी मस्जिद का इंतखाब किया जाए जहां नमाजे तरावीह पूरे खुशूअ व खुजूअ इत्मीनान व सुकून के साथ पढ़ने का एहतमाम हो।

नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) दूसरों से कुरआन सुनने को पसंद फरमाते और लम्बी किरात के साथ निहायत तसल्ली के साथ नमाज पढ़ने का एहतमाम करते थे। बहरहाल नमाजे तरावीह में पूरा कुरआन सुनने का हम सबको एहतमाम करना चाहिए। बीस वाली मस्जिद में आठ पढ़कर घर भग जाने से पूरे कुरआन का सवाब नहीं मिल सकता।

तरावीह के बाद जल्दी सो जाइए। नमाजे तरावीह के बाद यह एहतमाम जरूरी है कि जल्दी सो जाएं ताकि सहरी के लिए बरवक्त उठा जा सके क्योंकि सहरी के वक्त कुछ खाने-पीने का अमल मसनून है और नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने इसकी ताकीद फरमाई है। इस दौरान अल्लाह तआला तौफीक बख्शे तो दो चार, आठ नवाफिल अदा करना भी नफा का सौदा होगा।

मुमकिन हो तो इस अमल का भी एहतमाम किया जाए।
रोजों का असर मामूलाते जिन्दगी पर:- रोजा इस्लाम का चैथा सुतून है और यह हर आकिल व बालिग मुसलमान मर्द व औरत पर फर्ज है बशर्ते कि कोई शरई उज्र रूकावट न हो। अल्लाह तआला ने रेाजा इंसान पर तजकिया-ए-नफ्स और तकवा व तहारत हासिल करने के लिए फर्ज किया है।

लिहाजा हमारा फर्ज है कि इसके तमाम मकासिद और तकाजों को सामने रखकर रोजा रखे। हजरत सहल बिन साद (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने फरमाया कि जन्नत के आठ दरवाजे है उनमें से एक दरवाजे का नाम रियान है, उस दरवाजे से सिर्फ रोजेदारों का दाखिला होगा। (बुखारी)

हजरत अबू हुरैरा (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने फरमाया कि जिस शख्स ने रमजान के रोजे (अल्लाह पर) ईमान रखते हुए एहतसाब के साथ रखे तो उसके पहले के गुनाह माफ हो जाते हैं और जिस शख्स ने रमजान में (अल्लाह पर) ईमान रखते हुए एहतसाब के साथ कयाम किया तो उसके पहले के गुनाह माफ हो जाते हैं और जिस शख्स ने शब-ए-कद्र का कयाम (अल्लाह पर) ईमान रखते हएु एहतसाब के साथ किया तो उसके पहले के गुनाह माफ हो जाते हैं। (बुखारी)

हजरत अबू हुरैरा (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने फरमाया कि जो शख्स झूट बोलने और उसके मुताबिक अमल करने को नहीं छोड़ता तो अल्लाह को कुछ परवा नहीं कि वह (रोजे में) खाना पीना छोड़ दे। (सही बुखारी) हजरत अबू हुरैरा (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने फरमाया कि कितने रोजेदार हैं जिनको उनके रोजों से सिर्फ भूक और प्यास हासिल होती है और कितने रात को कयाम करने वाले हैं कि उनको उनके कयाम से सिर्फ रत जगा हासिल होता है। (मिश्कात)

लिहाजा रोजे का तकाजा है कि हम फरायज का एहतमाम करें और मंुकरात से बचे और हलाल व हराम की तमीज करें, रिज्क हलाल और सिद्क मकाल का एहतमाम करे और आपस में हर मुसलमान एक दूसरे की खैरख्वाही का हक अदा करें, पड़ोसियों, रिश्तेदारों, औलाद, वाल्दैन, मुलाजमीन गरज कि सबके हुकूक अदा करें।

तब जाकर रोजे के हकीकी मकासिद हासिल करने में हम कामयाब हो सकते हैं।
सहरी खाने का एहतमाम:- रोजे का आगाज हर मुसलमान सहरी से करता है और रोजे का इख्तिताम इफ्तार पर होता है। एक तो हर आदमी जहां जिस हाल में है इफ्तार करता है और कर सकता है लेकिन इस्लाम इज्तिमाइयत का दीन है इसलिए वह सब लोगों को जहां एक कलमा पर जमा करता है और उसकी इबादात नमाज, जकात, हज, इज्तिमाइयत का दर्स देती है उसी तरह रोजा भी इस्लाम के इज्तिमाई निजाम का मजहर और रेफ्रेशर कोर्स है।

चांद देखकर रोजा रखा जाता है, सहर व इफ्तार का निजाम सबके लिए यकसां है, ईद के दिन भी मुसलमानों की शेराजाबंदी को परवान चढ़ाई जाती है। इफ्तार भी इसी कबील से है।

हजरत अबु हुरैरा (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने फरमाया कि आदम के बेटे के तमाम नेक आमाल का बदला दस गुना से लेकर सात सौ गुना तक दिया जाएगा हदीस कुद्सी है कि सिवाए रोजे के। बिला शुब्हा वह मेरे लिए है और मैं ही उसका बदला दूंगा।

इंसान अपनी शहवत और खाने-पीने को मेरी रजा के लिए छोड़ता है। रोजेदार को दो खुशियां हासिल होती है। एक खुशी जब वह रोजा इफ्तार करता है और दूसरी खुशी जब उसकी उसके परवरदिगार से मुलाकात पर होगी और रोजेदार के मुंह की बदबू अल्लाह के यहां कस्तूरी की महक से बेहतर है और रोजा (गुनाहो से) महफूज रखता है और जब तुम रोजा से हो तो फहश बातचीत से बचो और झगड़ा न करो। अगर कोई शख्स गालियां दे या लड़ाई करे तो उसे (माजरत करते हुए) कहो मैं रोजे से हूं। (बुखारी)

रमजानुल मुबारक और एतकाफः- नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) रमजानुल मुबारक के आखिरी अशरे में एतकाफ में बैठते थे। एक साल नागा हुआ तो आप अगले साल बीस दिन एतकाफ में बैठे। हममें से हर आदमी को यह सुन्नत अदा करनी चाहिए। एतकाफ के लिए मस्जिद शर्त है। आखिरी अशरा और खासकर आखिरी अशरे की ताक रातों को शबबेदारी का एहतमाम किया जा सकता है।

इज्तिमाई मुताला कुरआन, मुताला हदीस, मुताला लिटरेचर, हिफ्जे कुरआन और दुआओं के याद करने कराने में एक दूसरे से तआवुन हासिल किया जा सकता है। रमजान की ताक रातों का एतकाफ रमजानुल मुबारक के आखिरी अशरे की पांच रातें एतकाफ और शबबेदारी के लिए तय हैं।

हजरत अब्दुल्लाह बिन अनस (रजि0) से रिवायत है कि मैंने अर्ज किया ऐ अल्लाह के रसूल! मैं जंगल में सकूनत पजीर हूं और मैं वहां अल्लाह की मेहरबानी के साथ नमाज अदा करता हूं। आप मुझे ऐसी रात के बारे में बताएं कि जिसके लिए मैं मस्जिदे नबवी में आ जाऊँ? आपने फरमाया – तीसवीं की रात आ जाओ। उनके बेटे से दरयाफ्त किया गया कि तुम्हारे वालिद कैसे किया करते थे? उन्होंने बयान किया कि वह मस्जिदे नबवी जाते और जब नमाजे अस्र अदा करते तो फिर वहां से सुबह की नमाज अदा करने तक नहीं निकलते थे।

जब सुबह की नमाज अदा कर लेते तो सवारी को मस्जिदे नबवी के दरवाजे पर पाते और उस पर सवार होकर चले जाते। (अबू दाऊद)
रमजान और अल्लाह की राह में खर्च करना:- रमजान और अल्लाह के रास्ते में खर्च करने का चोली दामन का ताल्लुक है। नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) का इरशाद है हजरत इब्ने अब्बास (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) ने सदका फित्र को फर्ज करार दिया है (ताकि) रोजे बेहूदा बातों से पाक हो जाएं और मिस्कीनों के खाने-पीने का सामान मुयस्सर आए।
(सनन अबू दाऊद) लेकिन सदका फित्र के तौर पर क्या दिया जाए? हर गरीब व अमीर गेहंू देने पर इक्तफा करता है।

यह भी अपनी जगह सही है। गेहूं दे दिया जाए तो सदका फित्र अदा हो जाएगा। लेकिन जरूरत इसकी है कि खाते-पीते लोगों को बताया जाये कि गेहूं के अलावा बतौर सदका फित्र कुछ और चीजें भी दी जा सकती हैं या उनकी कीमत दी जा सकती है।

रमजान की कद्र कर लेंः- उम्मते मुस्लेमा में जो लोग साहबे निसाब हैं वह आमतौर पर रमजान में जकात अदा करते हैं। एक बार फिर मैं यह बात दोहराऊँगा कि रमजान के किसी भी लम्हे को बर्बाद न किया जाए और हर लम्हा बामकसद बना दिया जाए क्योंकि यह लम्हात ही हमारे कल को रौशन करने वाले हैं और हमारी इस दुनिया को भी संवारने वाले हैं।

इसलिए इन तारीखसाज लम्हात की हर मुमकिन कद्र कीजिए। दुआ है कि अल्लाह तआला हमें रमजान के महीने की बरकात से ज्यादा से ज्यादा मुस्तफीद होने की तौफीक अता फरमाए-आमीन

बशुक्रिया: जदीद मरकज़