रमज़ान की बातें: बच्चों का एक “दाढ़ का रोज़ा”

रमज़ान का त्यौहार सबसे ज़्यादा बच्चों के लिए मज़ेदार होता है. आम तौर पर बच्चों के लिए ख़ास क़िस्म की खाने की चीज़ें इफ़्तारी में बनायी जाती हैं. बच्चों को सहरी करने का भी बड़ा शौक़ होता है और वो सहरी खाने के लिए स्पेशली उठते भी हैं. कुछ तो बच्चे कम उम्र पे ही रोज़े रखने की ज़िद करने लगते हैं लेकिन माँ बाप अक्सर उन्हें फुसला लेते हैं. असल में रमज़ान का महीना ही ऐसा है और छोटे बच्चे चाहते हैं कि रोज़ा रखें. इसी को लेकर बदायूं शहर में माँ बाप अक्सर बच्चों की इस ज़िद से परेशान रहते थे और इस ज़िद को पूरा करने का उनके पास एक ही तरीक़ा होता था, वो बच्चों से कहते थे दो दाढ़ होती हैं तुम एक दाढ़ का रोज़ा रखो और अगर एक दाढ़ का रोज़ा रखोगे तो आधा गिना जाएगा और महीने में सारे एक दाढ़ के रख लिए तो 15 तो हो ही जायेंगे. मतलब ये कि एक दाढ़ से तुम खाना खा सकते हो लेकिन दूसरी से नहीं, ये बच्चों को ख़ासा मजेदार लगता था कि दायीं वाली दाढ़ का रोज़ा हुआ तो बायीं दाढ़ से कुछ खाना पानी अन्दर ना जाने पाए. हालाँकि बच्चों को भी एहसास होता था कि दाढ़ तो दोनों ही इस्तेमाल में आ रही हैं लेकिन उन्हें एक तसल्ली होती थी कि हाँ रोज़ा हो रहा है. बच्चे भी ख़ूब ख़ुशी से कहते थे “हमारे 10 एक दाढ़ के रोज़े हुए हैं तो 5 पूरे हो गए”.

(अरगवान रब्बही)