रास नहीं आया कांग्रेस और भाजपा को उत्तर प्रदेश में गठबंधन

लखनऊ: (फैसल फरीद):  शायद जल्द ही समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के लिए हो जाए. आमतौर पर ऐसे गठबंधन दोनों पार्टियाँ अपने अपने फायदे के लिए करती हैं. लेकिन अगर गौर से देखा जाये तो राष्ट्रीय पार्टियाँ गठबंधन के बाद नुकसान में ही रहती हैं. कांग्रेस और यहाँ तक भाजपा का भी गठबंधन के बाद हाल बुरा ही हुआ हैं.

उनका वोट प्रतिशत और सीटें दोनों घट गया. लेकिन मौजूदा हालात में पिछले रिकॉर्ड से सीख न लेते हुए दोनों पार्टियाँ फिर गठबंधन के लिए आगे बढ़ रही हैं. बात कांग्रेस की तो १९८९ में वो सत्ता से बाहर हो गयी. पिछले २७ साल से सत्ता में वापसी का सपना लिए कांग्रेस आज बहुत बुरे हालात में पहुच गयी हैं.

अंदाज़ा लगाये की कल जब आर बी आई के कार्यालय के बाहर प्रदर्शन करना था तो लखनऊ में केवल दो कांग्रेसी कार्यकर्ता पहुचे और उन्होंने फ़ोन पर जब नेताओ को बुलाया तो कोई नहीं आया. बहरहाल एक ट्रक पी ए सी वहां मौजूद थी और वो भौचक रह गयी केवल दो कांग्रेसी को देख कर. अब कांग्रेस के पिछले २७ साल में चुनावो में परफॉरमेंस की. सन १९९६ में कांग्रेस ने बसपा के साथ गठबंधन किया और रालोद का विलय भी अपनी पार्टी में करवा लिया.

लेकिन नतीजा वही रहा. कुल १२६ सीटें कांग्रेस को मिली और वो मात्र ३३ जीत सकी और उसका वोट प्रतिशत भी २९.१३ % रहा. पहले गठबंधन में मुहं की खाने के बाद कांग्रेस ने रालोद तो फिर अलग हो गयी और बसपा ने कह दिया कि कांग्रेस अपना वोट ट्रान्सफर नहीं करवा पाई. लेकिन वोट तब ट्रान्सफर होता जब कहीं होता.

इसके बाद २००२ में कांग्रेस को कोई नहीं मिला और वो अकेले चुनाव लड़ी लेकिन वोट परसेंट और घट कर ८.९९% रह गया और सीटें भी २५ बची. कोई चारा न देख कर कांग्रेस ने २०१२ में फिर रालोद से गठबंधन किया लेकिन न वोट बहुत ज्यादा हुआ और न ही सीटें. कुल ३५५ सीटो पर लड़ कर कांग्रेस २८ सीट जीत पाई और वोट भी मात्र ११.६५% मिला.

यही नहीं कांग्रेस के २४० उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गयी. अब फिर कांग्रेस मैंदान में हैं और इस बार सपा से गठबंधन हो रहा हैं. लेकिन मुश्किल लगता हैं कि कांग्रेस अपनी सीटें या फिर वोट बढ़ा पायेगी. यही हाल भाजपा का भी रहा. गठबंधन उन्हें भी कभी प्रदेश में रास नहीं आया. भाजपा का स्वर्णिम काल १९९१ में रहा जब राम लहर के कारण उसको ४१५ में २२१ सीटें मिली.

लेकिन १९९३ में वो सत्ता से बाहर हो गयी लेकिन सीटें फिर भी १७७ थी. इसके बाद १९९६ मेंम भाजपा अकेले लड़ी और सीटें १७४ रही. फिर भाजपा ने भी गठबंधन का रुख किया. लेकिन २००२ में राजनाथ सिंह के काल में गठबंधन किया और जे डी (यू), लोकतान्त्रिक कांग्रेस, रालोद और अपना दल से गठबंधन किया.

खुद ३२० सीटो पर लड़ी लेकिन मात्र ८८ जीत पाई. इसके बाद २००७ में भाजपा ने फिर गठबंधन किया और इस बार साथ रहा अपना दल जिसे उसने ३७ सीटें दी. लेकिन भाजपा की सीटें घट कर मात्र ५१ रह गयी. इसके बाद २०१२ में उसने फिर समझौता किया और जनवादी सोशलिस्ट पार्टी के साथ चुनाव लड़ा और ३९८ उम्मीदवार उतारे. लेकिन जीत मात्र ४७ पर मिली. कुल मिला कर गठबंधन भाजपा को भी कभी रास नहीं आया. इस बार भाजपा के साथ फिर अपना दल (अनुप्रिया गुट). भारतीय समाज पार्टी और दुसरे दल हैं.