हज़रत अबू दर्दा रज़ी० से रिवायत है कि रसूल करीम स०अ०व० ने फ़रमाया इस में कोई शुबा नहीं कि रिज़्क बंदे की, इस तरह तलाश करता है, जिस तरह इंसान को उस की मौत ढूंढती है। इस रिवायत को अबू नईम ने किताब हुलिया में नक़ल किया है।
मतलब ये है कि रिज़्क और मौत दोनों का पहुंचना ज़रूरी है। जिस तरह इस बात की कोई हाजत नहीं होती कि कोई शख़्स अपनी मौत को ढ़ूंढ़े और उस को पाए, बल्कि ख़ुद मौत इस के पास हर सूरत में और यक़ीनी तौर पर आती है।
इसी तरह रिज़्क का मुआमला है कि उस को तलाश करने की कोई ज़रूरत नहीं है, बल्कि जो कुछ मुक़द्दर में होता है, वो हर सूरत में लाज़िमी तौर पर पहुंचता है, ख़ाह उस को ढ़ूंडा जाये या ना ढ़ूंडा जाये। ताहम इस का मतलब ये हरगिज़ नहीं है कि ढ़ूढ़ने की सूरत में रिज़्क नहीं मिलता, बल्कि हक़ीक़त ये है कि हुसूल ए रिज़्क के लिए सुई-ओ-तलाश भी तक़दीर ए इलाही और निज़ाम ए क़ुदरत के मुताबिक़ है।
अलबत्ता जहां तक कलबी एतेमाद और भरोसा का ताल्लुक़ है वो सिर्फ़ ख़ुदा की ज़ात पर होना चाहीए, ना कि सुई-ओ-तलाश पर। लिहाज़ा इस सिलसिले में सही राह ये है कि अव्वल इंसान को ख़ुदा पर तवक्कुल-ओ-एतिमाद करना चाहीए और ये पुख़्ता यक़ीन रखना चाहीए कि रिज़्क का ज़ामिन अल्लाह तआला है।
नीज़ अगर रिज़्क मिलने में कोई रुकावट और ताख़ीर हो जाये तो इज़तिराब-ओ-बेचैनी का मुज़ाहिरा नहीं करना चाहीए। फिर इस एतेक़ाद के साथ अपनी ज़रूरत-ओ-हाजत और हिम्मत-ओ-ताक़त के ब क़दर मोतदिल-ओ-मुनासिब तरीक़ा पर हुसूल मआश की सुई-ओ-तलाश में लगना चाहीए कि असल राज़िक तो अल्लाह तआला है, लेकिन ये तरीक़ा उबूदीयत है कि अपना रिज़्क हासिल करने के लिए मुनासिब जद्द-ओ-जहद और तलाश-ओ-सुई की जाये!।