रुह आफज़ा पर नया खुलासा, जानकर चौंक जायेंगे आप!

रूह अफजा सिर्फ एक शरबत नहीं रह गया है बल्कि एक इतिहास रच चुका है। एक शरबत जिसने आजादी की सुबह देखी और देश के बंटवारे के साथ साथ खुद अपना बंटवारा भी देखा।

डी डब्ल्यू हिन्दी पर छपी खबर के अनुसार, हर भारतीय की जुबान पर रहने वाला ठंडे शरबत का एक ब्रांड रूह अफजा आजकल मार्केट से गायब सा है। रमजान का महीना चल रहा है, जब कई मुसलमान रोज़े रखते हैं।

इसमें सूरज निकलने से पहले और डूबने तक कुछ न खाने पीने के बाद, रोजा खोलने के लिए इफ्तारी की जाती है। जब भी गर्मियों में इफ्तारी हो तो रूह अफजा शरबत का इंतजाम जरूर होता था।

गहरे लाल रंग का यह शरबत पहले से बना कर रख लिया जाता और हर कोई इससे अपनी प्यास बुझाता। लेकिन इस बार मार्केट में रूह अफजा की कमी हो गई। बहुत से रोजेदारों ने अपनी परेशानी सोशल मीडिया पर शेयर कर लिखा कि रूह अफजा के बिना इफ्तार अधूरा है, रूह अफजा की कमी खल रही है वगैरह।

नतीजा मीडिया में स्टोरी आ गई कि रूह अफजा के बिना रमजान अधूरा रहेगा। ट्विटर पर रूह अफजा ट्रेंड कर गया। जिन लोगों को रूह अफजा की बोतल मिल गई, उन्होंने उसके साथ सेल्फी भी सोशल मीडिया पर पोस्ट की।

बात यहां तक पहुंची कि पाकिस्तान में रूह अफजा बनाने वाली कंपनी के प्रमुख ने वहां से ट्रक में भरकर इसे भारत भेजने की पेशकश भी कर दी। साल 1906 में हकीम अब्दुल मजीद ने दिल्ली के लाल कुआं इलाके में हमदर्द नाम का यूनानी दवाखाना खोला। फिर 1907 में एक सॉफ्ट ड्रिंक रूह अफजा मार्केट में लांच की।

शीशे की बोतल में पैक रूह अफजा का लोगो तब मिर्ज़ा नूर मोहम्मद ने बनाया था। इसके स्टीकर बॉम्बे से तब छप कर आये थे। इसमें तमाम जड़ी बूटियां, संदल, फलों के रस मिलाए गए थे, जिसके कारण इसको पीते ही ठंडक पहुंचती थी।

हाथों हाथ रूह अफजा बिकना शुरू हो गया। इसका नाम लखनऊ के पंडित दया शंकर ‘नसीम’ की किताब ‘मसनवी गुलज़ार ए नसीम’ से लिया गया था जिसमे रूह अफजा नाम का एक पात्र था।