रोजे का मकसद नफ्सानी ख्वाहिशात पर रोक लगाना है और गलत कामों को छोड़ देना है जिसको अल्लाह पाक ने छोड़ने का हुक्म दिया है। हजरत अबू हुरैरा (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया कि इस्लाम की खूबी में से यह भी है कि इंसान लायानी बातों को छोड़ दे, रोजा परहेजगाराना जिंदगी गुजारने का नाम है।
रोजा भूक-प्यास की रस्म नहीं बल्कि रोजा अखलाकी उसूल की तर्बियत है। रोजा से ज्यादा अखलास किसी और चीज में नहीं है चूंकि यह इबादत है। रोजा का बेहद बेहिसाब सवाब है।
अल्लाह को इंसान की यह इबादत इस कदर महबूब है कि बंदे की ऐब हुनर बन जाता है और उसके मुंह की बू अल्लाह को मुश्क की खुशबू से ज्यादा पसंद है। रोजा की कितनी बड़ी फजीलत है कि अल्लाह पाक ने जन्नत में एक दरवाजा सिर्फ रोजेदारों के लिए खास कर दिया है जिससे रोजेदार दाखिल होगा, दूसरा कोई नहीं।
रोजा इंसान को गुनाह और बिदआत व खुराफात से दूर कर देता है। रोजेदार की दुआ अल्लाह पाक कुबूल फरमाता है, रद्द नहीं करता। हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया कि इफ्तार के वक्त एक ऐसा लम्हा है जिसमें रोजेदार की दुआ ठुकराई नहीं जाती।
रोजा का एक मकसद बंदगी का एहसास दिलाना है और एहकामे इलाही की पैरवी पर गामजन करना है। दारमी की रिवायत है कि कितने रोजेदार ऐसे हैं कि रोजे से भूक प्यास के सिवा उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता और कितने ही रातो को कयाम करने वाले ऐसे हैं जिन्हें कयाम के रतजगे के सिवा कुछ हासिल नहीं होता।
रोजे का एक मकसद तकवा पैदा करना है। अल्लाह पाक से डरना और बुराई से बचना। मुख्तसर यह कि रोजा रखकर अगर इंसान तकवा और परहेजगारी इख्तेयार न करे तो मकसद हासिल नहीं। अगर ख्वाहिशात पर लगाम न लगाए तो इंसान नफ्स का गुलाम बन जाता है।
अपने आप को तबाही व बर्बादी के गढ़े में डाल देता है। रोजे का बड़ा मकसद मुसलमानों में एत्तेहाद/इत्तेहाद की रूह फूंकना है। तमाम मुसलमानों का एक वक्त में सहरी खाना और एक वक्त में इफ्तार करना और दिन में भूके रहना इत्तेहाद की दलील है। अगर एक महीने का रोजा रखकर दुनिया के तमाम मुसलमान आपस में इत्तेहाद न पैदा करें तो एक माह रोजा रखकर मकासिद से गाफिल हुए और फायदा न हुआ।
अल्लाह से दुआ है कि मुसलमानों में इत्तेहाद पैदा कर दे और हमदर्दी व मसावात की लड़ी में हम सबको पिरो दे- आमीन। (मौलाना अब्दुर्रहमान कासमी)