हुज़ूर अकरम स.व. ने लड्कीयों की पैदाइश को मुबारक और उन की तर्बीयत-ओ-शादी की ज़िम्मेदारी से सुबूकदोशी पर जन्नत की बशारत दी हें। लेकिन जैसे जैसे लड्की सन ए बुलूग़ को पहुंचती हें तो वालदैन की रातों की नींद और दिन का सुकून लुट जाता हें। एक तरफ़ लड्की की शादी की फ़िक्र तो दूसरी तरफ़ अपनी मईशत के लुट्ने का ख़ौफ़, बिलआख़िर वो घड़ी भी आजाती हें, जब काफ़ी दौड़ धूप के बाद लड्की की शादी तय पाती हे और फिर उस ग़रीब की बरसों की ख़ून पसीना की कमाई जोड़े की रक़म और जहेज़ की तक्मील में शादी की नज़र होजाती हे। इत्ना ही नहीं, बल्कि मईशत की तबाही का ये सिल्सिला बरसों चलता रहता है, मिसाल के तौर पर पहला बुलावा, आख़िरी जमागी, पहली ईद वग़ैरा, जिस में कपड़े, सलामी और दावत के नाम पर कसीर रक़म का सर्फ़ा बर्दाश्त करना पड़ता है और फिर जब दामाद साहब एक अदद बच्चे के बाप बनते हैं तो दवा ख़ाना के जुम्ला अख़राजात और छल्ला छुट्टी के नाम पर फ़ुज़ूल तक़ारीब का एहतिमाम करना पड़ता हें। इस तरह एक लड्की की पैदाइश से लेकर, फिर उस लड़की के औलाद होने तक एक बाप को होल्नाक परेशानीयों से गुज़रना पड़ता हें। इन बातों पर ग़ौर की जिए!
* क्या ये ज़ुल्म नहीं कि एक कम्ज़ोर और बेबस लड़की की इफ़्फ़त-ओ-इस्मत की हिफ़ाज़त के लिए लड्की के वालदैन से बड़ी बड़ी रक्में और क़ीम्ती जहेज़ तलब किया जाए?।
* क्या किसी मुसल्मान को ये जे़ब देता हे कि वो अपने मुसल्मान भाई की मईशत को इस तरह बर्बाद करे?।
* क्या लड्की का बाप होना कोई गुनाह हे? जिस का कफ़्फ़ारा नक़द और जहेज़ की सूरत में लाज़िमन अदा करना पड़े?।
}ये कैसा ज़ुल्म हे कि एक बाप मुफ़्त ख़िद्मात अंजाम देने के लिए अपनी बेटी भी दे और साथ में मोटी रक़म और क़ीम्ती सामान भी दे!। अफ़सोस हे एसे नौजवानों पर, जो लड्की के वालदैन से माल और जहेज़ के तलब्गार हैं। तुफ़ है उन की जवानी-ओ-मर्दानगी पर, जो लड्की के वालदैन की रक़म पर ना सिर्फ अपनी ख़ाहिशात की तक्मील करना चाहते हैं, बल्कि ससुराल से मांगी हुई चीज़ों को इस्तिमाल करने में फ़ख़र महसूस करते हैं। उन्हें इतना भी एहसास नहीं कि उन्हों ने जिन क़ीमती अशीया और जोड़े की रक़म को जहेज़ के नाम पर हासिल किया हे, इस के लिए किसी को अपने घर जायदाद से महरूम होना पड़ा होगा या फिर सुदी क़र्ज़ के नासूर को गले लगाना पड़ा होगा।
अफ्सोस कि अल्लाह ताला ने जिस उम्मत को दुनिया से ज़ुल्म का ख़ात्मा और इंसाफ़ के बोल बाला की ज़िम्मेदारी सौंपी हें, वही आज ज़ालिम बनी हुई हे। ये कम नसीबी नहीं तो और किया हें कि आज मुस्ल्मान ना सिर्फ अपने खेर ए उम्मत होने को फ़रामोश कर चुके हें, बल्कि अपने आमाल फ़ासिदा के ज़रीया इस्लाम की शबि को दागदार और हुज़ूर अकरम स.व. की सुन्नतों को पामाल कर रहे हें, जिस का ख़म्याज़ा यक़ीनन रोज़ आख़िरत भुगतना पड़ेगा।