पहली बात तो ये हे कि अब्बासी ख़िलाफ़त का आग़ाज़ ही ज़ुल्म और अंधेर नगरी से हुआ था। इस सिल्सिले में सय्यद अब उलआला मौदूदी अपनी तस्नीफ़ ख़िलाफ़त ओ मुलूकियत में लिखते हे कि नए मुद्दईयान ए ख़िलाफ़त (बनू अब्बास) जिस वजह से काम्याब हुए थे, वो ये थी कि उन्हों ने आम मुसल्मानों को ये इतमीनान दे दिया था कि हमख़ानदान ए रिसालत के लोग हे, हम किताब-ओ-सुन्नत के मुताबिक़ काम करेंगे और हमारे हाथों से हुदूद अल्लाह क़ायम होंगी, लेकिन हुकूमत हासिल होने के बाद कुछ ज़्यादा मुद्दत ना गुज़री थी कि उन्हों ने अपने अमल से साबित कर दिया कि ये सब कुछ फ़रेब था।
बनू उमैया के दार उल सल्तनत दमिशक़ को फ़तह करके अब्बासी फ़ौजों ने वहां क़त्ल-ए-आम किया, जिस में पच्चास हज़ार आदमी (मुसल्मान) मारे गए। 17 दिन तक जामा बनी उमैया घोड़ों का अस्तबल बनी रही। हज़रत मुआवीया (रज़ी.) समेत तमाम बनी उमैया की क़ब्रें खोद डाली गईं। हिशाम बिन अब्द उलमलिक की लाश क़ब्र में से सही सलामत मिल गई तो इस को कोड़ों से पीटा गया। चंद रोज़ तक उसे मंज़रे आम पर लटकाए रखा गया और फिर जलाकर उस की राख उड़ाई गई। बनी उमैया का बच्चा बच्चा क़त्ल किया गया और उनकी तड़पती लाशों पर फ़र्श बिछाकर खाना खाया गया। बाद में बनी उमैया को क़त्ल करके उन की लाशें टांगों से पकड़ कर खींची गईं और उन्हें सड़कों पर डाल दिया गया, जहां कुत्ते उन्हें भनभोड़ते रहे। यही कुछ मक्का और मदीना में उन के साथ किया गया।
सफ्फाह (बनू अब्बास का पहला ख़लीफ़ा) के खीलाफ मूसिल में बग़ावत हुई तो इस ने अपने भाई यहया को इस की सरकोबी के लिए भेजा। यहया ने एलान किया कि जो शहर की मस्जिद में दाख़िल हो जाएगा, इस के लिए अमान है। लोग हज़ारों की तादाद में वहां (मस्जिद में) जमा हो गए, फिर मस्जिद के दरवाज़ों पर पहरा लगाकर इन अमान याफ़ता पनाह गुज़ीनों का क़त्ल-ए-आम किया गया। इस तरह तीन दिन मूसिल में क़त्ल-ओ-ग़ारत का बाज़ार गर्म रहा। यहया की फ़ौज में चार हज़ार ज़ंगी थे, वो मूसिल की औरतों पर टूट पड़े और जिना बिल्जब्र का तूफ़ान बरपा कर दिया।
एक औरत ने यहया के घोड़े की लगाम पकड़कर उसे श्रम दिलाई कि तुम बनी हाशिम में से हो और रसूल अल्लाह स.व. के चचा की औलाद हो, तुम्हें श्रम नहीं आती कि तुम्हारे ज़ंगी (हब्शी) सिपाही अरब मुस्लिम औरतों की आबरूरैज़ी करते फिर रहे हैं।
मुत्लक़ उल ईनान बादशाह या खल़िफ़ा आम तौर पर हद से गुज़रने वाले होते हे। अब्बासी खल़िफ़ा में से बहुत कम एसे थे, जो आला ज़ाती औसाफ़ के मालिक कहे जा सकें।
ख़लीफ़ा मंसूर वेसे तो बड़ा सादगी पसंद और मूसीक़ी वग़ैरा से नफ़ूर था, लेकिन सख़्त हरीस, कंजूस, कीनापरवर और ज़ालिम था। इसी ख़लीफ़ा ने हज़रत इमाम-ए-आज़म रहमत उल्लाह अलैहि को कोडे लग्वाए थे और क़ैद में डाल कर सख़्त अज़ीयतें दी थीं, हत्ता कि इन का इंतिक़ाल हो गया।
रिवायत ये हे कि इस के हुक्म पर इमाम साहिब को ज़हर के ज़रीया हलाक किया गया था। इलावा अज़ीं मंसूर ने बहुत से दूसरे अकाबिर उल्मा जेसे इब्न अजलान और इमाम अबदुलहमीद बिन जाफ़र को भी अज़ीयतें दीं। इस के शर से अपने वक़्त के क़ुतुब हज़रत सुफ़ियान सूरी रहमत उल्लाह अलैहि और इबाद बिन कसीर रहमत उल्लाह अलैहि भी महफ़ूज़ ना रहे, उन्हें भी क़ैद-ओ-बंद में मुब्तला किया गया और अज़ीयतें दी गईं। बड़ी बात ये हे कि जिस शख़्स ने बनी अब्बास की हुकूमत की बुनियादें रखीं यानी अब्बू मुस्लिम खुर्रासानी, एसे भी ग़द्दारी और फ़रेब से मंसूर ने क़त्ल किया। झूट बोल कर अमान देना और फिर क़त्ल करदेना मंसूर की आदत थी। अबू मुस्लिम खुर्रासानी को मालूम हो गया था कि ख़लीफ़ा इस के दरपे आज़ार हे और वो खुरासान चला गया, जहां इस के हामी बकसरत थे। ख़लीफ़ा ने क़ासिद भेज कर उसे तलब किया और अमान का वायदा किया। आख़िर वो ख़लीफ़ा पर एतबार करके इस के हाँ पहुंचा और मदाइन में जाकर ख़लीफ़ा से मिला।
मंसूर को इस के आने की ख़बर मिली तो तमाम लोगों को इस के इस्तिक़बाल का हुक्म दिया। जब अबू मुस्लिम अंदर गया तो इस ने मंसूर की दस्त बोसी की, मंसूर ने बड़े एहतिराम के साथ अपने पास बिठाया, फिर इस से कहा कि अपने ख़ेमा में जाकर आराम करे और हमाम से फ़ारिग़ होकर मुलाक़ात करे। अबू मुस्लिम चला गया और दूसरी सुबह मंसूर का क़ासिद उसे बुलाने आया। मंसूर ने ये इंतिज़ाम किया कि चंद मुसल्लह अफ़राद को पर्दे के पीछे छुपा दिया और उन से कह दिया कि जूंही में अपना एक हाथ दूसरे हाथ पर मारुं तुम फ़ौरन बाहर आना और अबू मुस्लिम को क़त्ल कर देना। जब अबू मुस्लिम मंसूर के पास आया तो मंसूर ने इस से पूछा
अबद अल्लाह बिन अली की छावनी से जो तलवारें तुम्हें मिली थीं, वो कहां हैं?। अबू मुस्लिम ने एक तलवार जो उस वक़्त इस के पास थी, पेश करते हुए कहा कि एक तो ये हे। मंसूर ने वो तल्वार लेकर जाये नमाज़ के नीचे रख ली। इस के बाद अबू मुस्लिम को एक एक इल्ज़ाम दुहराकर डाँटना शुरू किया। ग़ैर मुसल्लह और तन्हा अबू मुस्लिम हर इल्ज़ाम के जवाब में माज़रत पेश करता गया। बिलआख़िर उसे क़त्ल करदिया गया। इस की तल्वार से ना ग़ैर मुस्लिम महफ़ूज़ और ना ही मुस्लिम।