अमीर नसरूल्लाह की सबसे बुरी हरकत ये थी कि इसने ये जानते हुए भी कि रूस अपनी सरहदें वस्त एशिया तक वसीअ करने में मसरूफ़ है और खेवा पर दबाव डाल रहा है (जो इस के रास्ते में हाइल होने वाली पहली मुस्लिम रियासत थी), खेवा पर हमला कर दिया।
तारीख़ बुख़ारा का फ़रंगी मुसन्निफ़ लिखता है कि नसरुल्लाह हमेशा अपने हममज़हब और हमक़ौम लोगों का जानी दुश्मन रहा, जो जियो के ज़ेरे हिस्सा में आबाद थे। बुख़ारा में बीस हज़ार से ज़ाइद क़ैदी रह रहे थे, जो ज़्यादातर ईरानी थे।
गाह गाह शिकस्तों के बावजूद नसरुल्लाह ख़ुद को शहनशाही जाह-ओ-जलाल का मालिक समझता रहा। उसकी ये हमाक़त मज़हकाख़ेज़ थी, इसलिए उसे बाहर की दुनिया का कोई इल्म ना था। काश वो जान लेता कि शुमाल की तरफ़ से एक बड़ी ताक़त का साया वक़्त गुज़रने के साथ और लंबा हो जाएगा और इसके जांनशीनों के मुस्तक़बिल को तारीक बना देगा।
नसरुल्लाह की सफ़्फ़ाकी का ये आलम था कि वो अपने दरबार में सफ़ीरों को क़त्ल करा देता था। अंग्रेज़ एलची आर्थर कनाली को पहले क़ैद में रखा, फिर क़त्ल कर दिया। एक और ग़ैर मुल्की एलची आर लीनडो को इस बात पर क़त्ल कर दिया कि वो शाही महल की दीवार पर लगी घड़ी (जो किसी वजह से रुक गई थी) दुरुस्त करके चलाने में नाकाम हो गया था।
बादशाह अपनी रईयत ( प्रजा) के साथ वो सुलूक कर रहा था, जो एक भेड़ीया बकरीयों के रेवड़ से करता है। मामूली शक-ओ-शुबा पर सज़ाए मौत दी जाती थी। १८६० में ३४ साल हुकूमत करने के बाद जब इस पर नज़ा की कैफ़ीयत तारी थी तो किसी ने उसे ख़बर सुनाई कि शहर सबज़ का क़िला फ़तह हो गया।
ज़बान से बोलने के लायक़ तो नहीं था, फिर भी इशारा किया कि वो ख़ून देखना चाहता है। हुक्म दिया कि बरादर-ए-निसबती और इसके सब बच्चों को मार डाला जाये। फ़ौरी तौर पर इस हुक्म की तामील नहीं हो सकती थी, इसलिए बरादर-ए-निसबती की बहन यानी अपनी बीवी को बुलाया, जो इसके दो बच्चों की माँ थी।
वो काँप उठी, लेकिन ज़ालिम को हालत मर्ग में भी रहम ना आया और अपनी बुझती हुई आँखों के सामने उसे क़त्ल करा दिया और साथ ही उसकी अपनी जान भी निकल गई।
अमीर नसरुल्लाह के बाद इसका बेटा मुज़फ़्फ़र उद्दीन बुख़ारा का अमीर बना। इसी के दौर में रूस ने वस्त एशिया के बड़े हिस्से पर क़बज़ा मुकम्मल कर लिया। उस वक़्त तमाम वस्त एशिया शदीद तरीन तहज़ीबी और सयासी अबतरी की लपेट में था। फ़र्ग़ाना, क़ोक़ंद, बुख़ारा और खीवा के उमरा-ए-ख़ुद को फ़ातिह कहलाने के शौक़ में एक दूसरे के शहरों और इलाक़ों पर हमले करते और बेगुनाह औरतों और मर्दों को मारते और ग़ुलाम बनाते।
क़पचाक़ों (हमलावरों) ने क़ोक़ंद में उद्यम मचा रखा था, वहां मुज़फ़्फ़र उद्दीन ने फ़ौजकशी करके कठपुतली ख़ुदा यार ख़ान को हुक्मराँ बना दिया, जो रूसी फ़ौज के सामने रुकावट बनने में नाकाम रहा।
वस्त एशिया के मुसलमानों की नाआक़बत अंदेशी इससे ज़ाहिर होती है कि तुर्की के उसमानी ख़लीफ़ा ने खेवा, बुख़ारा और क़ोक़ंद के सफ़ीरों को (जो वहां बरसों से मुक़ीम थे) बुलाकर (रूस के साथ अपनी सदीयों की कश्मकश की रोशनी में) ये मश्वरा दिया कि वो वापस जाकर अपने हुकमरानों को मश्वरा दें कि अपने इस्लामी मुल्कों की आज़ादी बचाने की फ़िक्र करें और आपस में मुत्तफ़िक़ा इक़दामात करें, लेकिन किसी रियासत ने कोई क़दम ना उठाया, बल्कि एक दूसरे को नीचा दिखाने और रूस के सामने सुरखुरु होने में लगे रहे।
बुख़ारा के हुक्मराँ को अपना दुश्मन मग़रिब में खीवा और मशरिक़ में क़ोक़ंद की रियासत नज़र आती थी। अगर रूसी ख़तरे की तरफ़ बुख़ारा के हुकमरानों और मुसलमानों की तवज्जा दिलाई जाती तो वो कहते कि उनकी रुहानी ताक़त की वजह से कोई उन पर ग़ालिब नहीं आ सकता।
दूसरी तरफ़ वस्त एशिया की रियासतों के हुकमरानों की बदकिरदारियों के बाइस दुनिया में कोई इनका हमदर्द बाक़ी ना रहा था। उसमानी तर्कों ने बार बार उन्हें मुत्तहिद होने का मश्वरा दिया था, लेकिन किसी ने कान नहीं धरा। तारीख़ बुख़ारा का मुसन्निफ़ लिखता है कि जब रूस ने जयाओं पार करके वस्त एशिया के जुनूबी इलाक़े पर क़बज़ा किया तो ईरान ने ख़ुशी का इज़हार किया था, क्योंकि अब उसकी हमसायगी बुख़ारा और खीवा के वहशी अज़बकों और तुर्कमानों की बजाय रूस के साथ हो गई थी।
चुनांचे क़फ़क़ाज़, शुमाली एशिया और वस्त एशिया में मुसलमानों पर सोलहवीं सदी से बीसवीं सदी तक रूसी रीछ के ख़ूनीं पंजों में आने के बाद जो कुछ गुज़री, वो उनके गुनाहों का नतीजा था।