वूड इनले में इस्लामिक आर्ट

कभी-कभी कुछ लोग फ़न की बुलंदियों पर पहुंचकर भी बहुत सारे अवार्डों और तारीफ़ों के साथ अकेले पड़ जाते हैं, लेकिन कुछ फ़नकार अपनी जिन्दगी और फ़न को अपने आस-पास की दुनिया के लिए कुछ इस तरह वक़्फ़ कर देते हैं कि वो नयी नसलों के लिए एक मिसाल बन जाते हैं। लकड़ी में नक़्क़ाशी और कैलिग्राफ़ी के लिए मशहूर सय्यद नसीरुद्दीन विक़ार का शुमार हैदराबाद की उन श़ख्सियतों में होता है, जिन्होंने अपने फ़न को नयी राहों से जोड़ा और नयी म़ंजिलों से हमकिनार किया है। दुनिया के कई मुल्कों का दौरा कर मुख़्तलिफ़ इदारों के साथ काम करने के बाद सय्यद नसीरुद्दीन विक़ार ने सईदाबाद (हैदरबाद) में इमामुल उलूम एजुकेश्नल सोसायटी का क़याम किया। न्यू एर्रा मिशन हाई स्कूल चला रहे हैं और यहाँ `वुड इनले’ में नये नये तजुर्बे कर रहे हैं। 66 साला विक़ार साहब आज भी इन तजुर्बों का फायदा नयी नसल के क़ाबिल लड़के लड़कियों तक पहुंचाने के काम में मशग़ूल हैं। उनके बनाए हुए आर्ट के नमूनों की नुमाइश सियासत कैलिग्राफी आर्ट एक्ज़िबिशन के अलावा एम एफ़ हुसैन आर्ट गैलरी नयी दिल्ली, मक्का मुकरमा आर्ट एक्ज़िबिशन, दक्कन आर्ट गैलरी, दिल्ली और सालारजंग म्यूज़ियम में काफ़ी सराहे गये हैं। उनसे मुल़ाकात के दौरान हुई बातचीत का खुलासा यहाँ पेश है।
……..एफ . एम. सलीम

हैदराबाद में `हाउस ऑफ टाइलेंट’ शुरू करने का ख़्याल आपके दिमाग़ में कैसे आया?
लकड़ी में नक़्क़ाशी और कारीगरी की बड़ी लंबी तारीख़ है। खुसूसन जब मैंने हिन्दुस्तान में इसके बारे में जानकारी हासिल की तो पाया कि मयसूर रियासत के 25 वें और आखरी ताजदार जयाचामराजा वोडियार बहादुर की हुकुमरानी के दौरान लकड़ी में कारीगरी को क़ाफी फरोग़ मिला। खुसूसन गुलाब की लकड़ी में नक़्क़ाशी के कई नायाब काम हुए। बाद में मास्टर क्राप़्ट श़ौकत अली ने म़ुकामी लकड़ी का इस्तेमाल करके इसको बिल्कुल नयी शक्ल दी और कई ख़ूबसूरत नमूने तैयार किये। बाद में रियासती और मर्कज़ी हुकूमत ने इस फ़न को ज़िन्दा रखने के लिए मल्टीक्राप़्ट काम्पलेक्स बनाया, जहाँ 480 मकानों में 2000 से ज़ायद कारीगर ख़ानदान रहते हैं। उन्हें ट्रेनिंग देने के लिए चामराजा टेक्निकल इंस्टीट्यूट अपनी ख़िदामात पेश करता है। उसी को ध्यान में रखकर मैंने हैदराबाद में 2007 में हाउस ऑफ टैलैंट क़ायम किया।

इस फ़न का श़ौक आपको कब और कैसे हुआ?
मेरी इब्तेदाई तालीम मदरसा आइज़ा में हुई। यूँ मुझे पढ़ने में बहुत कम दिलचस्पी थी, लेकिन मेरी ड्राप्टिंग बहुत अच्छी थी। कई बार ऐसा भी हुआ कि मैंने दोस्तों की रिकार्डबुक सिर्फ इस लिए तैयार की कि वो फिल्में दिखाते थे। इम्तेहानात में भी मैं शायद अच्छी ड्राप्टिंग की वज्ह से ही पास हो जाता था। उस्मानिया यूनिवर्सिटी में एक नुमाइश में मेरी बनाई हुई पेंटिंग को पहला इनाम मिला था। अमेरिका में कुछ दि तक इस्लामिक स्टडीज़ की तालीम के लिए दाखिला लिया, लेकिन तकमील से पहले ही वापिस चला आया और उस्मानिया यूनिवर्सिटी से इस्लामिक स्टडीज़ में ही एम ए और लाइब्ररी साइंस में डिग्री हासिल कर के आला तालीम के लिए फिर कैनडा चला गया। इसके साथ ही पहले अरेबियन अमेरिकन आयल कंपनी की लायब्ररी और बाद में यूनिइटेड़ नेशन डेवलपमेंट प्रोग्राम (नैरोबी-केनिया में डाक्यूमेंटेशन का काम किया। उसके बाद रियाद में किंग फैसल लायब्ररी में 22 साल तक लायब्ररियन के तौर पर काम करने म़ौका मिला। इस दौरान कैलीग्राफ़ी और मुख़्तलिफ़ फ़ुनून पर रिसर्च और फ़न में दिलचस्पी बढ़ती गयी।

क्या आपने किंग फैसल लायब्ररी में रहते हुए ही इनले का काम करना शुरू किया था?
नहीं इसकी शुरूआत हैदराबाद आने के बाद हुई। दर असल हमने यहाँ जब घर बनाना शुरू किया तो बेगम चाहती थीं कि डायनिंग हाल की खिड़कियों और शीशों पर कुछ कारीगरी हो। हालांकि मुहतरमा ने फाइन आर्ट की कोई डिग्री नहीं हासिल नहीं की थी, लेकिन उन्हें इस बारे में काफ़ी मालूमात थीं। 6 महीने तक इसपर कारीगर ने काम किया, लेकिन उन्हें पसंद नहीं आया। बाद में जब बेटी दुबाई से आयी तो खुद ही उसके साथ मिलकर ग्लास पर कारीगरी की, यह काम बड़ा शान्दार रहा। उसी वक़्त ख़्याल आया कि न्यू एरा स्कूल के बच्चो के लिए इस तरह की ट्रेनिंग क्लासेस रखी जाएं और फिर सिलसिला चल निकला। अतराफ की लड़कियाँ भी आने लगीं और ग्लास पर आयतें लिखकर आर्ट के नये नमूने तैयार किये। एक लड़की ने ग्लास पर बहुत खूबसूरत काम किया, लेकिन शीशा टूट गया। उसी दिन ख़्याल आया कि लकड़ी पर काम करें तो टूटने का डर नहीं रहता। चूंकि इस्लाम में जानदारों की तसवीरें बनाने पर पाबंदी है, इसलिए क़ुरानी आयतों की तरफ़ ज्यादा तवज्जों दी गयी।

लकड़ी पर किस तरह का इस्लीमी आर्ट पहले से मौजूद है और आपने क्या नया काम किया?
लकड़ी में नक़्क़ाशी और कैलीग्राफी की तरफ़ राग़िब होने के बाद आसारे मक्का और म़ुकामाते म़ुकद्दसा की त़करीबन 45 पेंटिंग बनाए गये थे, जिकी नुमाइश सालारजंग के अलावा दक्कन आर्ट गैलरी दिल्ली में बी की गयी। इससे पहले प्रिंस तुर्की के पास कुछ इस्लामी आर्ट का ज़ख़ीरा था, लेकिन ज्यादा तर काम कैन्वेस और सिरामिक्स में किया गया था। ताइवान में लकड़ी पर काम किया गया, लेकिन उसमें देवी देवताओं की तस्वीरें हैं। अरबी आयतों का काम लकड़ी पर कहीं नहीं मिलता। तुनिशिया और मुराको में यह काम सिल्वर या गोल्ड पर किया गया है। जब हैदराबाद में हमने यह काम शुरू किया तो कईम फ़नकार बाहर से भी यहाँ सीखने के लिए चले आये। एक लड़की शहनाज़ यह सीखकर जर्मनी चली गयी। वह चाहती है कि जर्मनी में इस तरह की एक गैलरी खोली जाए।

पुराने शहर मुस्लिम लड़कियों को यह कारीगरी सिखाकर उन्हें खुद मुक्तफी बनाया जा सकता है?
हमारी कोशिश यही है। मैंने शुरू में सोचा कि इससे रोज़गार के मव़ाके भी मुहय्या कराए जा सकते हैं , लेकिन इसमें कई तरह के मसाइल हैं। सबसे पहले तो बहुत कम लड़कियाँ इस फ़न को मुकम्मिल सीख पाती हैं। घर वालों की जानिब से भी हौसला अफ़जाई की ज़रूरत है। दर असल इन दिनों सारी दुनिया ख़ुसूसन यूरोप और अमेरिका में भी इस्लामी आर्ट की काफी अहमियत है। हाउस ऑफ़ टैलेंट में कुछ लड़किया हैं, जो बड़ी मेहनत से इसे सीख रही हैं। इसके लिए समाजी शऊर बेदार करने की ज़रूरत है।