हुज़ूर रहमत ए आलम स०अ०व० का इरशाद है कि अगर तुम में से कोई बुराई देखे तो उसे चाहीए कि अपनी क़ुव्वत से इसका दिफ़ा (हिफाजत) करे।
अगर क़ुव्वत-ओ-ताक़त नहीं है तो वाज़-ओ-नसीहत से लोगों को इस बुराई से बचने की तलक़ीन करे। अगर ये भी ना कर सके तो कम अज़ कम इस बुराई को अपने दिल में ग़लत समझे (सही मुस्लिम, किताब उल ईमान)
इस हदीस ए पाक की शरह करते हुए शारह मुस्लिम अल्लामा इमाम नूवी रहमतुल्लाह अलैहि लिखते हैं कि अगर हाकिम-ए-वक़त के ज़ुल्म से रियाया आजिज़ आ जाए तो ये नेक लोगों पर लाज़िम हो जाता है कि वो इस ज़ालिम को ज़ुल्म से बाज़ रखने की हत्तलमक़दूर कोशिश करें।
अगर फिर भी वो अपने ज़ुल्म से बाज़ ना आए तो अवामुन्नास पर लाज़िम हो जाता है कि वो इसके ख़िलाफ़ अलम (झंडा) बग़ावत बुलंद करें और इससे जिहाद करें।
इसी तरह का एक क़ौल हाफ़िज़ इबने हजर असक़लानी र०अ० ने अपनी किताब फ़तह अलबारी, बाब फ़ितन में नक़ल किया है।
पासबान ए हुर्रियत-ओ-शरफ़ इंसानी हज़रत सैय्यदना इमाम हुसैन रज़ी० ने इस हदीस ए शरीफ़ की अमली तशरीह कर्बला में पेश फ़रमाई। उमूमन हक़ की आवाज़ को दबाने के लिए बातिल के शऊर साकित के समुंद्र में तमव्वुज (तूफान) आता है, लेकिन वाक़िया कर्बला इससे मुख़्तलिफ़ है।
इस मार्का ( जंग) में दोनों ही तरफ़ मुसलमान थे, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि एक तरफ़ ख़ालिस ईमान था, जिसकी तालीम नबी रहमत स०अ०व० ने फ़रमाई थी और दूसरी तरफ़ ऐसे मुसलमान थे, जिनका मुतम्मा नज़र दुनियावी हुसूल आसाइश था।
दीन ए इस्लाम को मंबा शिर्क-ओ-इलहाद वाले बातिल नज़रियात से पाक-ओ-महफ़ूज़ रखने के लिए हलावत ए ईमानी से सरशार चंद नफ़ूस ए क़ुदसिया पर मुश्तमिल गिरोह, अलमबरदार हक़-ओ-सदाक़त हज़रत सैय्यदना इमाम हुसैन रज़ी० की क़ियादत में तमाम आलात हर्ब से लैस गिरोह कसीर से बरसर
पैकार होने का जुर्रत मंदाना इक़दाम का फ़ैसला किया, ताकि हुदूद इस्लामी को पामाल होने से बचाया जा सके।
मुजाहिद ए इस्लाम हज़रत सैय्यदना इमाम हुसैन रज़ी० ने ज़ालिम यज़ीद के बातिल नज़रियात और फ़िक्री बे एतिदालियों के ख़िलाफ़ सदाए एहतिजाज बुलंद फ़रमाया और एहक़ाक़ हक़-ओ-इबताल बातिल का ऐसा रोशन बाब रक़म फ़रमाया कि सब्र-ओ-शहादत के इस नय्यर आज़म की ज़ात वाला सिफ़ात की ताबानियों का बिला लिहाज़ मज़हब-ओ-क़ौम हर कोई मोतरिफ़ हो गया।
माद्दी वसाइल आदमी को मुहज़्ज़ब और ताक़तवर तो बना सकते हैं, लेकिन अख़लाक़ी इक़दार आदमी को इंसानियत के सांचे में ढाल देते हैं और तारीख़ इंसानी शाहिद है कि जब भी हक़-ओ-बातिल में मार्का आराई हुई, बिलआख़िर कामयाबी-ओ-सुर्ख़रूई इंसानियत ही के हक़ में आई।
अब तक दुनिया ना जाने कितने माद्दा परस्तों को फ़रामोश कर चुकी है, लेकिन जब भी अहले हक़ का ज़िक्र आता है तो सारी इंसानियत अदब-ओ-एहराम में सरनगों ( सर झुका देती है) हो जाती है, जिसकी बैन दलील वाक़िया कर्बला है।
तक़रीबन चौदह सदीयां गुज़र चुकी हैं, लेकिन आज तक इंसानियत हज़रत सैय्यदना इमाम हुसैन रज़ी० की हक़ के लिए दी जाने वाली क़ुर्बानी को फ़रामोश ना कर सकी, बल्कि आप के जज़बा ईसार-ओ-ख़ुलूस पर सारी इंसानियत को नाज़ है।
दुश्मनों-ओ-बदख़्वाहों और बिलख़सूस यज़ीद बज़ाम बातिल ये समझ रहा था कि ज़हर आलूद प्रोपेगंडा और लर्ज़ा ख़ेज़ घिनौनी साज़िशें करके अज़मत इमाम हुसैन रज़ी० को आसानी से पामाल कर देगा, लेकिन आज ख़ुद इसका और इसके हव्वारियों का नाम-ओ-निशान सफ़ हस्ती से मादूम हो चुका है, लेकिन सैय्यदना इमाम हुसैन रज़ी० की शहादत के अल-मनाक वाक़िया पर सारी दुनिया रंज-ओ-अंदोह में डूबी हुई है और चार दांग आलम ( पूरी दुनिया) में आप सैय्यदुश शोहदा-ए-के लक़ब से मशहूर हैं।
हर सौ आप के मनाक़िब रफ़ीअह और औसाफ़ ए जमीला का चर्चा हो रहा है और ये सिलसिला इंशाअल्लाह तालीता क़ियाम शम्स-ओ-क़मर पूरी आब-ओ-ताब के साथ जारी-ओ-सारी रहेगा।