शरीयत का तहफ़्फ़ुज़

हिंदूस्तान में मुस्लमानों के आईनी हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की मुहिम वक़्त की अहम ज़रूरत बन कर उभर रही है। ये मुहिम नवंबर 2010 से शुरू हुई मगर अब इस को मज़ीद मज़बूत-ओ-मुस्तहकम बनाया जा रहा है। आईनी हुक़ूक़ बचाओ मुहिम का मक़्सद हिंदूस्तानी मुस्लमानों को दरपेश मसाएल पर तवज्जा देना है।

हालिया बरसों में मुस्लमानों के मज़हबी तशख़्ख़ुस को ज़रब पहूँचाने के इलावा बाअज़ क़वानीन के ज़रीया उनके मज़हबी इदारों और मदारिस की आज़ादी को सल्ब करने की कोशिश की गई। हक़ तालीम क़ानून और वक़्फ़ क़वानीन के ज़रीया मुस्लमानों के हुक़ूक़ छीन लेने वाले क़्वानीन और अदलिया के फ़ैसले तशवीशनाक हैं।

इन का क़ौमी और क़ानूनी सतह पर मुक़ाबला करने के लिए मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने ऐलान करके मुस्लमानों का नुमाइंदा इदारा होने का फ़रीज़ा अदा किया है। मौलाना राबा हसनी नदवी का ये ब्यान गौरतलब है कि शरीयत इस्लामीया को नुक़्सान पहूँचाने की दरपर्दा और बाअज़ मौक़ा पर खुले आम कोशिशें हो रही हैं।

मुल्क के क़ानून की आड़ में शरई क़वानीन को मसख़ करने की हरगिज़ इजाज़त नहीं दी जा सकती। मुसलमानों को शरीयत के तहफ़्फ़ुज़ के लिए अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने के साथ साथ मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के कामों और इस की सरगर्मीयों में तआवुन करना भी मुसलमानों ख़ासकर उस तबक़ा की नुमाइंदा शख़्सियतों और मकतब फ़िक्र के हामिल अफ़राद की ज़िम्मेदारी है।

मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने कई मर्तबा शरीयत और उम्मत ए मुस्लिमा के दीगर शरई उमूर के तहफ़्फ़ुज़ के लिए निहायत मूसिर अंदाज़ में इक़दामात किए हैं। बिलाशुबा हिंदूस्तानी मुस्लमान अपनी मुआशरती ज़िंदगी में शरीयत इस्लामी पर सख़्ती से अमल पैरा होने के साथ इस क़ानून को अपने सीने और क़ुलूब से वाबस्ता रखते हैं।

अल्लाह ताला के क़ानून को ही आख़िरी क़ानून समझे रहने का पूरा हक़ हासिल है तो उन्हें अपने इस हक़ से इस्तेफ़ादा करने के लिए आईनी हुक़ूक़ बचाओ मुहिम का हिस्सा बन कर मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की कोशिशों का साथ देना होगा, क्योंकि हुकूमत ने बाअज़ फ़िर्क़ा पुरसताना और तास्सुब पसंदी के हामिल सरकारी ओहदेदारों की ईमा पर कई ऐसे क़ानून बनाए हैं जिन की बाअज़ दफ़आत मुस्लमानों के लिए नुक़्सानदेह हैं।

इन दफ़आत में तरमीम के लिए मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड जद्द-ओ-जहद कर रहा है। हक़ तालीम क़ानून, वक़्फ़ तरमीमी बिल, शादी का रजिस्ट्रेशन और दीगर मुआमले ऐसे हैं जिन पर तवज्जा ना दी जाए और हुकूमत के इक़्दामात को रोकने की कोशिश ना की जाए तो आगे चल कर सरज़मीन हिंद पर मुस्लमानों को अपनी मज़हबी आज़ादी से महरूम होना पड़ेगा। इसमें शक नहीं कि मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड हर मोड़ पर मुस्लमानों की रहनुमाई कर रहा है और इसकी बुनियादी ज़रूरत मुस्लमानों की मज़हबी बक़ा से वाबस्ता है।

मैरेज एक्ट या शादी का रजिस्ट्रेशन क़ानून, मुसलमानों की समाजी-ओ-मुआशरती ज़िंदगी के अहम मुआमले से मरबूत है। इस नए शादी के रजिस्ट्रेशन के लज़ूम के साथ हुकूमत को इस में आसानीयां पैदा करनी होंगी। बच्चा की पैदाइश के बाद रजिस्ट्रेशन के लिए जो तरीका-ए-कार है, इस ख़ुतूत पर अगर हुकूमत शादी के रजिस्ट्रेशन का रिकार्ड, निकाह नामा या अइम्मा किराम से हासिल करे तो मुस्लमानों के निकाह और अज़दवाजी ज़िंदगी के मुआमलात से मुताल्लिक़ उसूल-ओ-ज़वाबत, हुक़ूक़-ओ-फ़राइज़ की पाबंदी शरीयत के मुताबिक़ होगी और इस से हुकूमत का काम भी हुस्न-ओ-ख़ूबी से अंजाम पाएगा।

मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के मुंबई के हज हाउस में मुनाक़िदा सहि रोज़ा सेशन के दौरान अहम मौज़ूआत पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ किया गया। क्या ये अच्छा होता कि इस दौरान बोर्ड को क़ानूनी शक्ल देने पर तवज्जा दी जाती या उस ख़सूस में कोई पहल होती। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड का क़ानून इस मुल़्क की अदालतों तक नहीं पहूंच सका है, इसलिए ज़रूरी था कि बोर्ड को ही क़ानूनी शक्ल देने में पेशरफ़त की जाती ताकि आगे चल कर अदालतों में शरीयत के मुग़ाइर होने वाले फ़ैसलों को रोकने में मदद मिल सके।

वैसे मौलाना सैयद मुहम्मद राबा हसनी नदवी की सदारत में बोर्ड की कारकर्दगी पर सभी मुतमइन नज़र आरहे हैं, मगर असल इत्मीनान तो उस वक़्त होगा जब मुस्लमानों को उन को उन के आईनी हुक़ूक़ फ़राहम करने में बोर्ड कामयाब हो जाए। बोर्ड को क़ानूनी शक्ल देने में तेज़ी लाई जाए। इस सिलसिले में माहिरीन क़ानून और वुकला के इलावा मुस्लिम मकातिब फ़िक्र की हामिल शख़्सियतों के इजलास में वसीअ तर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ के बाद मुसव्वदा को तैयार कर लिया जाए और जो मुसव्वदा तैयार है, इस का अज़सर-ए-नौ जायज़ा लेते हुए उसे मज़ीद मज़बूत बनाने पर तवज्जा दी जाए ,ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसलों की रोशनी में मुसलमानों के तमाम मकातिब फ़िक्र की हामिल शख़्सियतों को मुत्तफ़िक़ा राय के साथ मुसव्वदा को मंज़ूरी दी जानी चाहीए।

पार्लीमेंट और अदालतों के ज़रीया इस्लामी शरीयत में होने वाली मुदाख़िलत को हरगिज़ बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस सिलसिले में मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने सयासी तर्ज़ की बजाय मज़हबी तरीक़ा से मुसलमानों के मसाइए हल करने की सुई में मसरूफ़ है तो इस में तामीरी फ़िक्र को शामिल कर लिया जाए तो कामयाबी यक़ीनी है। मुसलमानों का भी फ़रीज़ा है कि वो शरीयत इस्लामीया पर सख़्ती से गामज़न होते हुए उन के ख़िलाफ़ उठने वाले मुतनाज़ा मसाएल से नजात हासिल करें।

इस्लामी शरीयत के मुआमले में उन्हें किसी ग़फ़लत का शिकार नहीं रहना चाहीए। जो ताक़तें मुसलमानों की आख़िरत और दुनिया ख़राब करना चाहती हैं, उनके ख़िलाफ़ शदीद जद्द-ओ-जहद वक़्त का तक़ाज़ा है। इस सिलसिले में मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड का साथ देना ज़रूरी है।