शहरयार की चार ग़ज़लें

(1)
हौसला दिल का निकल जाने दे
मुझ को जलने दे, पिघल जाने दे
आंच फूलों पे ना आने दे मगर
ख़स-ओ-ख़ाशाक को जल जाने दे
मुद्दतों बाद सुबह आई है
मौसमे दिल को बदल जाने दे
छा रही हैं जो मेरी आँखों पर
इन घटाओं को मचल जाने दे
तज़किरा इसका अभी रहने दे
और कुछ रात को ढल जाने दे

(2)
मशाल-ए-दर्द फिर इक बार जला ली जाये
जश्न हो जाये, ज़रा धूम मचा ली जाये
ख़ून में जोश नहीं आया ज़माना गुज़रा
दोस्तो आओ कोई बात निकाली जाये
जान भी मेरी चली जाये तो कुछ बात नहीं
वार तेरा ना मगर एक भी ख़ाली जाये
जो भी मिलना है तिरे दर से ही मिलना है उसे
दर तेरा छोड़ के कैसे ये सवाली जाये
वस्ल की सुबह के होने में है कुछ देर अभी
दास्तां हिजर की कुछ और बढ़ा ली जाये
(3)
जुस्तजू जिस की थी उस को तो ना पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
सब का अहवाल वही है जो हमारा है आज
ये अलग बात कि शिकवा किया तन्हा हम ने
ख़ुद पशेमान हुए उस को ना शर्मिंदा किया
इश्क़ की वज़ा को क्या ख़ूब निभाया हम ने
उम्र भर सच ही कहा सच के सिवा कुछ ना कहा
अज्र क्या इस का मिलेगा ये ना सोचा हम ने
कौन सा क़हर ये आँखों पे हुआ है नाज़िल
एक मुद्दत से कोई ख़ाब ना देखा हम ने

(4)

क़िस्सा मेरे जुनूं का बहुत याद आएगा
जब जब कोई चिराग़ हवा में जलाएगा
रातों को जागते हैं, इसी वास्ते कि ख़्वाब
देखेगा बंद आँखें तो फिर लूट जाएगा
कब से बचा के रखी है इक बूँद ओस की
किस रोज़ तू वफ़ा को मेरी आज़माऐगा
काग़ज़ की कश्तियां भी बड़ी काम आयेंगी
जिस दिन हमारे शहर में सैलाब आएगा
दिल को यक़ीन है कि सर रहगुज़ारे इश्क़
कोई फ़सुर्दा दिल ये ग़ज़ल गुनगुनाएगा
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