शहरयार

अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान शहरयार(16 जून 1936-13 फ़रवरी 2012) उर्दू शायरी में मुमताज़ हैसियत रखते हैं। हालाँकि `उमराव’ जान के बाद उनकी शोहरत बुलंदियों पर पहुंच गई थी, लेकिन तबियत ही मिली कुछ ऐसी… के बमिस्ल फिल्मों में उनका दिल नहीं लगा, गमन और अंजुमन जैसी फिल्मों के बाद वो फिल्मी दुनिया में लौट कर नहीं गये। अलीगढ यूनिवार्सिटी से ही खुश रहे। आँवला (बरेली) उत्तरप्रदेश में पैदा हुए शहरयार को उनके वालिद अपनी तरह पुलिस ओहदेदार बनाना चाहते थे, लेकिन वक़्त और हालात ने उन्हें शायर बना दिया। ख़्वाब का दर बंद है (1987), शाम होने वाली है (2005), मिलता रहूँगा ख़्वाब में उनकी मशहूर किताबें हैं। साहित्य अकादमी (1987), ज्ञानपीठ (2008) अवार्ड से उन्हें नवाज़ा गया। उनकी दो ग़ज़लें यहाँ पेश हैं।

ग़ज़ल
ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है

अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

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ग़ज़ल
महफिल में बहुत लोग थे मैं तन्हा गया था
हाँ तुझ को वहाँ देख कर कुछ डर सा लगा था

ये हादसा किस वक़्त कहाँ कैसे हुआ था
प्यासों के तअक्कुब* सुना दरिया गया था

आँखें हैं कि बस रौजने दीवार हुई हैं
इस तरह तुझे पहले कभी देखा गया था

ऐ खल्के-खुदा तुझ को यकीं आए-न-आए
कल धूप तहफ्फुज़ के लिए साया गया था

वो कौन सी साअत थी पता हो तो बताओ
ये वक़्त शबो-रोज* में जब बाँटा गया था

पीछा करना
झरोखा
रात-दिन