शहादत हजरत इमाम हुसैन (रजअ)

मार्का कर्बला की अफादियत और अहमियत को उम्मत मुस्लिमा तारीख के किसी दौर में भी फ़रामोश नहीं करसकती। आजकल जलसों और मीडिया पर उलमाए किराम के मुख़्तलिफ़ मुबाहिस चल रहे हैं। अहलेबैत से अदावत रखने वालों की राय को नज़रअंदाज कर दिया जाय तो आगे चल कर ये लोग मज़ीद फ़ित्ने बरपा करेंगे। तारीख-ए-इस्लाम को मसख़ करनेवाली ताकतें भी सरगर्म हैं जिन के ख़िलाफ़ सफ़ आरा होने की ज़रूरत है।

तारीख गवाह है कि आलम-ए-इस्लाम पर हावी होने की कोशिश करने वालों का अंजाम तबाहकुन ही हुआ है। हालिया आलम-ए-इस्लाम के हालात का जायज़ा लें तो अंदाज़ा होगा कि इस्लाम दुश्मन ताकतें लीबिया, मिस्र, शाम, इराक़, तीवनस, अफ़्ग़ानिस्तान और दीगर मुक़ामात पर अपने नापाक अज़ाइम के बावजूद इस्लाम को शिकस्त देने में कामयाब नहीं हुई हैं। तीवनस के आम इंतिख़ाबात हूँ या मिस्र के हालिया इंतिख़ाबी नताइज में इस्लाम पसंदों की कामयाबी ने मग़रिब की नींदें हराम करदी हैं। यहूदीयों और सैहुनियों की बरसों पुरानी इस्लाम दुश्मनी, पस्त सोच और सतही फ़िक्र ने उन्हें हर महाज़ पर नाकाम बना दिया है।

फ़लस्तीनियों का अर्सा हयात तंग करने वाला इसराईल उस वक़्त यक्का-ओ-तन्हा होगया है। इरान को आंखें दिखाकर अपना ग़ुस्सा उतारने के लिए तहदिदात नाफ़िज़ की गइ। शाम में बैरूनी मुदाख़िलत के ज़रीया इक़तिदार को नाकाम बनाने की कोशिश की जा रही है। हर दिन अम्वात की तादाद में इज़ाफ़ा हो रहा है ये उम्मत मुस्लिमा के अरकान ही हैं जोज़ुलम ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर अपनी जानें क़ुर्बान कररहे हैं। इराक़ में नाहक़ लाखों मुस्लिम बाशिंदों को हलाक किया गया इस के बावजूद ये सरज़मीन इस्लाम के मानने वालों के हौसलों और हिम्मत से ख़ाली नहीं हुई। इराक़ की सरज़मीन आलम-ए-इस्लाम के लिए अहमियत रखती है जहां मार्का कर्बला का वक़ूअ होना तए था ताकि इस्लाम को सरबुलन्दी अता हो जाय।

हज़रत इमाम हुसैन रज़ी अल्लाहो अन्हो को ये इलम था कि उन्हें इस्लामी इक़तिदार के हुसूल और शरीयत इस्लामीया के क़वानीन के नफ़ाज़ के लिए मार्का कर्बला से गुज़रना है तो आप ओ ने यज़ीद के ख़िलाफ़ इस के फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर को शिकस्त देने के लिए मैदान कर्बला पहूंचे थे। इस ज़ालिम हुकूमत के ख़िलाफ़ कामयाब इन्क़िलाब बरपा करके आलम-ए-इस्लाम में इस इन्क़िलाब को ज़िंदा रखा है। जज़बा क़ुर्बानी-ओ-एस्सार आज के मुस्लमानों के लिए कई एक मौज़ूआत पर अहम दरस देता है। बशर्ते कि मुस्लिम तबक़ा अपने अतराफ़ के हालात का अमानी जज़बा से जायज़ा ले। हिंदूस्तान के मुस्लमानों के लिए गुज़श्ता कई दहों से एक के बाद एक सानिहात से दो-चार कर दिया जाता रहा है।

इन के लिए सब से बड़ा सानेहा 6 डसमबर 1992 को बाबरी मस्जिद की शहादत का था इस के बाद मुस्लमानों के हौसलों को मज़ीद पस्त करने के लिए गुजरात फ़सादात बरपा किए गए और उन पर बतदरीज मुख़्तलिफ़ उनवानात से ज़ुलम-ओ-ज़्यादतियां की जाती रही हैं। अब हुकूमत ने हिंदूस्तानी मुस्लमानों की बहबूद और फ़लाह के साथ तहफ़्फुज़ात फ़राहम करने का एक नया ड्रामाई मशग़ला शुरू किया है जो सिवाए गुमराह कुन वादों के कुछ नहीं है। बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद मस्जिद की तामीर नौ का वाअदा करनेवाली हुकूमत ने 19 साल बाद भी अपने वाअदा को पूरा नहीं किया तो मुस्लमानों को हुकूमत के दीगर वादों पर किस हद तक भरोसा होसकता है।

इस तनाज़ुर में हिंदूस्तानी मुस्लमानों को अपना मुहासिबा भी करने की ज़रूरत है कि आया इन बरसों में उन्हों ने अपने हुक़ूक़ के हुसूल के लिए किस हद तक जद्द-ओ-जहद की। इस्लाम और इस की तालीमात को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाकर इस पर क़ायम रहने में कहां तक कामयाब हुए। हिंदूस्तान के इलावा दुनिया की एक बड़ी अक्सरियत मुस्लमानों और इस्लाम को मज़हबी इंतिहापसंदी की गिरिफ़त में नहीं तो दहश्तगर्दी की गिरिफ़त में लेने की कोशिश कररही है। इस के बावजूद हैरत होती है कि मुस्लमानों को ना तो मार्का कर्बला के हवाले से जज़बा एस्सार-ओ-क़ुर्बानी से मिलने वाले दरस का ख़्याल है और ना अपनी अमली ज़िंदगी को इस्लामी तालीमात से आरास्ता करके अपने दिलों को इशक़ इलाहि और इशक़े रसूल से मुनव्वर करने की फ़िक्र है।

एक मुद्दत से अपनी खराबियों के अस्बाब ख़ारिजी हालात में तलाश की जा रही हैं जबकि अपने अंदर और अतराफ़ के ही माहौल में पाई जाने वाली खराबियों की निशानदेही करके इस के ख़ातमा पर तवज्जा नहीं दी जा रही है। ये सभी जानते हैं कि मुस्लमानों के लिए हालात सख़्त और कड़ी आज़माईश वाले हैं। इस पुरअशोब अह्द से सुर्ख़रूई के साथ बाहर आने का एक ही रास्ता है कि मुस्लमानों अपना मुहासिबा करके इक़तिसादी, मआशी, तालीमी और दीनी मुआमलों पर ख़ास तवज्जा दें। दरअसल मुस्लमानों के अंदर की दुनिया उन की हद से बढ़ती जा रही है इस लिए क़ुलूब वीरान हो रहे हैं मिल्लत के अफ़राद की बड़ी तादाद की ना अहली भी उन के वजूद को खोखला कररही है।

उस मे ज़िम्मा दारान मिल्लत, उलमाए किराम और ख़ुद वालदैन और सरपरस्तों का काम है कि यौम शहादत जैसे मवाक़े पर अपनी औलाद-ओ-मिल्लत के नौजवानों को इस्लामी ज़िंदगी की अफादियत-ओ-अहमियत का दरस दें। तर्ज़-ए-ज़िदंगी को इस्लामी तालीमात से वाबस्ता करने की तलक़ीन करके इस पर सख़्ती से अमल करने का पाबंद बनाया जाय तो मार्का कर्बला और फ़लसफ़ा शहादत को समझते हुए वो अपने अक़ल के चिराग़ जला सकेंगे। हज़रत इमाम हुसेन ने इस्तिक़ामत फ़ीद्दीन का अमली सबक़ और ज़िंदगी का नसबुलऐन बख्शा है उम्मत मुस्लिमा इस पर सख़्ती से अमल पैरा हो तो कई मसाइल की यकसूई मुम्किन है।