शांति कैसे लाएगा सेना का साथी?

पाकिस्तान में इमरान खान की जीत के बाद भारत-पाक रिश्तों में सुधार की संभावना पहले से भी कम हो गई है। चुनाव जीतने के बाद इमरान ने बेहतर संबंधों की जो बातें कही हैं, वे कमोबेश औपचारिक ही हैं। इससे भारत से संबंध में सुधार के लिए उनकी ओर से पहल का कोई आश्वासन नहीं मिलता। उन्होंने किसी ठोस कदम की ओर इशारा भी नहीं किया है। उन्होंने सिर्फ इतना कहा है कि भारत एक कदम बढ़ाएगा तो वह दो कदम बढ़ाएंगे। यानी पहला कदम बढ़ाने का काम भारत को करना है।

कश्मीर का मुद्दा बीच में लाकर एक तरह से उन्होंने रिश्ते बनाने की एक शर्त भी रख दी है। कश्मीर को लेकर पाकिस्तानी फौज की नीति का वह समर्थन करते रहे हैं और इसमें परिवर्तन की कोई उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती। उनके रवैए का अंदाजा भारत को पहले से है। इमरान भारत को लेकर नवाज शरीफ की नीति की आलोचना करते रहे हैं और उन्हें भारत समर्थक साबित करने की कोशिश करते रहे हैं। चुनाव प्रचार के दौरान और उसके पहले भी उन्होंने भारत विरोधी बयान दिए थे। सेना और कट्टरपंथियों के साथ बेहतर रिश्ते का मतलब ही है, भारत के साथ अच्छे रिश्ते वे नहीं रखेंगे। बेहतर रिश्ते के रास्ते में सबसे बड़ी बाधक ये ही दोनों ताकतें तो हैं।

कट्टरपंथ और आधुनिकता

बहरहाल, पाकिस्तान को लेकर हमें भी अपने रवैये को जांचने की जरूरत है। एक तो हम पाकिस्तान पर बात करते हुए उसकी ऐसी तस्वीर बनाते हैं, जैसे पूरा का पूरा मुल्क ही कट्टरपंथी और भारत विरोधी हो। यह मानना भी गलत है कि भारत-विरोध और कट्टरपंथ के खिलाफ वहां कोई राजनीति नहीं है। सच्चाई यही है कि दोनों मुल्कों के बीच दुश्मनी खत्म करने और अमन की हिमायत करने वालों की तादाद वहां काफी बड़ी है। चुनाव नतीजों से जाहिर है कि कट्टरपंथियों को जनता के बड़े वर्ग का समर्थन हासिल नहीं है। हाफिज सईद की ‘अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक पार्टी’ कोई सीट नहीं जीत पाई। पूरे देश में उसे कुल एक लाख 71 हजार वोट मिले। ऐसी ही एक और कट्टरपंथी पार्टी टीएलपी ने 150 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन वह भी नैशनल असेंबली की कोई सीट नहीं जीत पाई। उसे सिंध की प्रांतीय असेंबली में दो सीटें मिली। इससे भी बुरा हाल दर्जन भर से अधिक उन पार्टियों का रहा जो धार्मिक आधारों पर चुनाव में थीं।

खुद इमरान भी स्पष्ट बहुमत पाने में नाकामयाब रहे और उनकी पार्टी को 32 प्रतिशत वोट ही मिले हैं। बहुमत पाने में इमरान की असफलता से यह साफ हो जाता है कि भारत के विरोध में जहर उगलने भर से पाकिस्तान में चुनाव जीतने की गारंटी नहीं हो जाती। उन्होंने भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा बनाया था और नवाज शरीफ की पार्टी इस मुद्दे पर उनके हमले का मुकाबला नहीं कर पाई। इस मामले में चुनाव देखने गए यूरोपीय यूनियन के मिशन की रिपोर्ट पर नजर डालनी चाहिए, जिसमें कहा गया है कि चुनाव लड़ने वालों में अवसर की बराबरी नहीं थी। फौज, कट्टरपंथियों, मीडिया और अदालत की नकारात्मक भूमिका ने इमरान की जीत में अहम भूमिका निभाई। इसके बावजूद इमरान ने एक सीमित सफलता ही हासिल की है। पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) को सत्ता में लाने में ‘नया पाकिस्तान’ के नारे का बड़ा योगदान रहा। बेहद खराब आर्थिक दौर से गुजर रहे पाकिस्तान को आईएमएफ से एक बड़ा कर्जा लेना है। अदालती कार्रवाई और सेना से टकराव में फंसे नवाज आर्थिक हालत सुधारने के लिए जरूरी कदम नहीं उठा पाए। इस स्थिति का फायदा इमरान ने उठाया।

‘नया पाकिस्तान’ के नारे में जो सपना दिखाया गया है, वह एक ग्लोबल मिडल क्लास का सपना है- बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, अच्छा नागरिक जीवन। यह भारतीय राजनीतिज्ञों द्वारा चुनावों में बेचे जाने वाले सपने जैसा ही है। मुश्किल यह है कि इस सपने के साथ राष्ट्रीय अस्मिता को भी जोड़ दिया जाता है। पाकिस्तान में इस अस्मिता का बड़ा हिस्सा भारत-विरोध से बनता है, लेकिन यह अस्मिता पाकिस्तानियों के ग्लोबल मिडल क्लास में शामिल होने के रास्ते में बाधक बनेगी, इसका अंदाजा वहां के बुद्धिजीवियों को होगा। समाज को पीछे ले जाने वाली ताकतों के साथ रह कर इमरान आगे बढ़ने का रास्ता कैसे पकड़ पाएंगे? इस्लामी कट्टरपंथ और आधुनिक विचार साथ-साथ नहीं चल सकते। अगर इमरान ने दोनों को साथ लेकर चलने की कोशिश की तो वह ज्यादा दिनों तक लोगों का समर्थन नहीं कायम रख पाएंगे।

व्यापार बने आधार

पकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के लिए हमारे पास भी कोई मजबूत रणनीति होनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि हम पाकिस्तान की जनता को दुश्मन मानकर न चलें और वहां इस्लामी कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों को मजबूत करने में दिलचस्पी लें। कुछ साल पहले तक सरहद पार खुले विचारों और साझी विरासत में यकीन रखने वालों के साथ संवाद का सिलसिला जारी था और टकराव के समय बातचीत का रास्ता निकालने में उनकी मदद मिल जाती थी। अब ऐसे लोगों को किनारे कर दिया गया है। हम सर्जिकल स्ट्राइक और सैन्य कार्रवाई पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं।

इसको अहमियत देने से अल्पकालिक लाभ भले मिल जाए, दूरगामी लाभ तो नहीं मिल सकता। इससे नफरत का खत्म न होने वाला एक सिलसिला बनता है। हमें पाकिस्तानी जनता का दिल जीतने की कोशिश करनी चाहिए और सरकारी, गैर-सरकारी आतंकवाद-समर्थकों का असल चेहरा सामने लाना चाहिए। स्थायी शांति की बुनियाद यही है। हालांकि इमरान के बयान में व्यापार बढ़ाने की बात सार्थक है। इमरान वाकई इसे लेकर गंभीर हैं तो दोनों मुल्क इससे फायदा उठा सकते हैं और यह भविष्य में बेहतर संबंधों का आधार भी बन सकता है।

लेखक: अनिल सिन्हा 

(डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं) स्रोत: नवभारत टाइम्स