जौन इलिया(14 दिसम्बर 1931 -8 नवम्बर 2002) उर्दू शायरी में म़कबूल हस्तियों में से एक हैं। पाकिस्तानी शायरों में उन्हें ख़ास म़ुकाम हासिल है। अमरोहा उत्तर प्रदेश में पैदा हुए जौन इलिया के वालिद शफ़ीक हसन इलिया भी शायर थे। जौन इलिया उर्दू के साथ साथ अंग्रेज़ी, फारसी, संस्कृत और हिब्रू ज़ुबान भी जानते थे। शायद उनका मशहूर मजमूए कलाम रहा। उसी की एक नज़्म यहाँ पेश है।
शायद
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मैं शायद तुमको एकसर भूलने वाला हूँ
शायद, जाने जानाँ शायद
कि अब तुम मुझको पहले से ज्यादा याद आती है
है दिल ग़मग़ीन बहुत ग़मग़ीन
कि तुम अब याद दिलवाराना आती हो
शमीम दरमांदा हो ..1
बहुत रंजीदा हो मुझसे
मगर फिर भी
मशामे जाँ में मेरे आशतीमंदाना आती हो.. 2
जुदाई में बला का इल्तिफाते मोहरिमाना है
क़यामत की खबरगीरी है
बेहद नाज़बरदारी का आलम है
तुम्हारे रंग मुझमें और गहरे होते जाते हैं
मैं डरता हूँ
मेरे एहसास के उस ख्वाब का अंजाम क्या होगा
येमेरे अंदरूने ज़ात के ताराजगर
जज्बों के बैरी वक्त की साज़िश न हो कोई
तुम्हारे इस तरह हर लम्हा याद आने से
दिल सहमा हुआ सा है
तो फिर तुम कम ही याद आओ
बहुत कुछ बह गया है सैले माहो साल में अब तक
सभी कुछ तो न बह जाए
कि मेरे पास रह भी क्या गया है
कुछ तो रह जाए
1. लाइलाज महक
2.दिमाग़ में दोस्ती से
एक गज़ल
ख़ामोशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मेरे गुमान में क्या
अब मुझे कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान में क्या
बोलते क्यों नहीं मेरे हक़ में
आबले पड़ गये ज़ुबान में क्या
मेरी हर बात बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ मेरे बयान में क्या
वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अभी हूँ मैं तेरी अमान में क्या
शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुकसान तक दुकान में क्या
यूं जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
इक ही शख़्स था जहान में क्या