शाही मस्जिद बाग़-ए- आम्मा की 3,362 गज़ वक़्फ़ अराज़ी अब कहां?

अब्बू एमल-  शहर हैदराबाद फ़र्ख़ंदा बुनियाद की दुनिया भर में इस की तहज़ीब, तमद्दुन, शाइस्तगी, अदब-ओ-एहतिराम मेहमान नवाज़ी, ख़ुदातरसी, रहमदिली, एहतिराम आदमियत, मुहब्बत-ओ-मुरव्वत जैसी ख़ुसूसीयात के लिए शौहरत है। वहीं इस शहर ख़ूबाँ को दुनिया मस्जिदों के शहर की हैसियत से भी जानती है। शहर में एक नहीं हज़ारों मसाजिद ऐसी हैं कि जो कोई उन्हें देखता है उन के फ़न तामीर की सताइश करता है।

जहां तक क़ुतुब शाही और क़दीम मसाजिद का ताल्लुक़ है ।इन में से बाअज़ को तारीख़ी विरसा क़रार दिया गया है। शहर की ख़ूबसूरत फ़िज़ा-ए-में अजानें गूंजती हैं जिन की वजह से माहौल में ग़ैरमामूली रुहानी कैफ़ीयत तारी होती है। शहर की मसाजिद के बुलंद-ओ-बाला इमारतें ख़ूबसूरत गनबदों के रुहानी मुनाज़िर, दिल पर नक़्श होजाते हैं। मअज़न हज़रात ख़ुशइलहानी के साथ अज़ान दे कर फ़र्र ज़िंदाँ तौहीद को कामयाबी, कामरानी-ओ-फ़लाह के रास्ता पर चलने और नमाज़ अदा करने की तलक़ीन करते हैं।

ये दरअसल अल्लाह अज़्ज़-ओ-जल का हम तमाम अहल दक्कन के लिए अज़ीम तोहफ़ा है। इसी परवरदिगार आलम ने इन हुकमरानों को मसाजिद की तामीर करने की तौफ़ीक़-ओ-हिदायत अता फ़रमाई है। जब मसाजिद का ज़िक्र होता है तो ख़ुदबख़ुद हमारे लबों पर हैदराबाद की ख़ूबसूरत मस्जिद यानी शाही मस्जिद बाग़-ए- आम्मा का नाम आता है, जिस के एक तरफ़ असैंबली हाल है तो दूसरी तरफ़ एक और फ़न तामीर का शहि पारा जुबली हाल की इमारत है। बाग़-ए- आम्मा की ये मस्जिद महिकमा अक़ल्लीयती बहबूद की ज़ेर-ए-निगरानी है।

मुस्लमानों के साथ होने वाली नाइंसाफ़ीयों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले जनाब मुहम्मद सिराज उद्दीन भी हैं जो रियास्ती कांग्रेस के अक़ल्लीयती शोबा के सदर हैं। उन्हों ने फिर एक बार वक़्फ़ जायदादों की तबाही और लौट मार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है। इसी सिलसिला में मुहम्मद सिराज उद्दीन ने क़ानून हक़ मालूमात आर टी आई से इस्तिफ़ादा करते हुए बाग़-ए- आम्मा की तारीख़ी मस्जिद की अराज़ी के बारे में अहम मालूमात हासिल की हैं। चुनांचे 9 सितंबर 2011-को एक मकतूब रवाना करते हुए बाग़-ए- आम्मा की मस्जिद की अराज़ी से मुताल्लिक़ मालूमात तलब की थी जिस के जवाब में सर्वे कमिशनर वक़्फ़ वाक़्य सकरीटरीट, स्टेट पब्लिक इन्फ़ार्मेशन ने जो जवाब दिया वो बेहद चौंका देने वाला है। दिलचस्प बात ये हैका जहां पहली सर्वे रिपोर्ट में 13,811 गज़ ज़मीन बाग़-ए- आम्मा की मस्जिद शाही के तहत बनाई गई है और इसी का तज़किरा भी किया गया है। वहीं दूसरे सर्वे की भी वज़ाहत करते हुए ये तफ़सील पेश की गई है कि अब सिर्फ 10,449 गज़ ज़मीन है शाही मस्जिद के तहत है। माबक़ी 3,362 गज़ ज़मीन के बारे में ये अजीब उज़्र पेश किया गया कि ये अराज़ी बाग़-ए- आम्मा और असैंबली रोड के लिए इस्तिमाल की गई है।

सवाल ये हैका अगर शाही मस्जिद की 3,362 मुरब्बा गज़ अराज़ी मुतज़क्किरा बाला मक़ासिद के लिए इस्तिमाल हुई थी तो क्या उतनी ही अराज़ी शाही मस्जिद को वापिस की गई थी या नहीं। ये अमल इसी अहाता में होना चाहीए था। क्योंकि शाही मस्जिद की ज़मीन किसी और मक़सद के लिए इस्तिमाल के बाद बतौर मुतबादिल उतनी ही ज़मीन मस्जिद केलिए मुख़तस करदी जानी चाहीए थी।

महिकमा अक़ल्लीयती बहबूद को इस सिलसिला में वज़ाहत करना ज़रूरी है। क़ारईन शहर की एक तारीख़ी शाही मस्जिद का ये हश्र है तो ग़ौर करीए कि दीगर वक़्फ़ जायदादों का क्या हाल होगा। अब सवाल ये है के शा मस्जिद बाग़-ए- -ए- आम्मा की 3,362 गज़ ज़मीन हाथ से निकल गई है और हमेशा की तरह हम ग़फ़लत के शिकार रही। इस ज़मीन को कोई और कैसे हासिल करी। क़ाबिल मुबारकबाद हैं मुहम्मद सिराज उद्दीन जिन्हों ने इख़लास के साथ अपनी काविश से अवाम के सामने ये मसला लाया है। शाही मस्जिद बाग़-ए- आम्मा को 3 गेट हैं। इन में से 2 इस्तिमाल में है और एक बंद रहती है। बंद गेट के बाज़ू ग़ैरमुस्लिम माली रहते हैं जो बाग़-ए- आम्मा पब्लिक गार्डन के मुलाज़िम हैं।

उन्हों ने मस्जिद की दीवार से लगा हुआ एक कमरा तामीर करलिया है जिस को आहिस्ता आहिस्ता फैलाया जा रहा है और मख़सूस रंग दिया जा रहा है। कमरा का छत असबसतास का है 3 तरफ़ से लोहे की जालियां लगा कर घेर लिया गया है। शाही मस्जिद के एक मुलाज़िम जो 30 साल से ख़िदमत अंजाम दे रहे हैं इन का कहना है के कमरा की तामीर मस्जिद की अराज़ी पर हुई है। हुकूमत दोस्त होने का दावा करती है।

हक़ इंसाफ़ की बात तो ये हैका अक़ल्लीयत दोस्ती का सबूत देते हुए मस्जिद की जो अराज़ी जिन कामों में इस्तिमाल हुई है उतनी ही ज़मीन मस्जिद के हवालाकरदे जो बाग़-ए- आम्मा के कंट्रोल में है। अब देखना ये हैका हुकूमत इस संगीन मसला का कैसा हल निकालती है। शहर हैदराबाद के मुस्लमान का क्या रवैय्या होता है उन की मिली ग़ैरत उन्हें क्या करने को कहती है और वो ख़ुद क्या करेंगी।

ये भी मुम्किन है के हम अपनी रिवायती ग़फ़लत और लापरवाही का मुज़ाहरा करें और ये ज़मीन भी खोदीं। हम तो ये कह सकते हैं कि बाक़ौल इक़बाल अपनी ग़फ़लत का अगर यही आलम रहा आयेंगे ग़स्साल काबुल से कफ़न जापान से एक एक करके हम अपनी विरासत से महरूम होते जा रहे हैं। हमारी आँखों के सामने हमारे आबा-ओ-अज्दाद की वक़्फ़ करदा जायदादें , ज़मीनें इमारतें तबाह होरही हैं।

वक़्फ़ बोर्ड से भला क्या तवक़्क़ो की जा सकती है। इतनी मर्तबा तवज्जा दिलाने का कोई नतीजा नहीं निकला तो अब किस उम्मीद पर कहीं कि बोर्ड हरकत में आएगा। हमें अपनी मौक़ूफ़ा जायदादों के लिए कोई ठोस काम करना चाआई, वर्ना हज़ारों करोड़ों की वक़्फ़ जायदादें निगल ली जाएंगी। मिली बेदारी की ज़रूरत है। शऊर वाजिबी की ज़रूरत है। क़ौम के नौजवानों को भी मिल्लत के मसाइल में दिलचस्पी लेनी चाआई। अपनी फ़ुज़ूल मसरुफ़ियात में से कुछ वक़्त निकाल कर मिल्लत के कामों पर तवज्जा करनी चाआई। इस तरह वक़्त की बर्बादी करने से किया हासिल।