शाज़ तमकनत साहब(31 जनवरी 1933- 18 अगस्त 1985) का नाम उर्दू के उन शयरों में शामिल है, जिन्होंने शायरी को ओढना बिछोना बनाया। उनके मजमुए कलाम ‘तरशीदा’ और ‘बयाज़े शाम’ मशहूर हुए। कई गुलूकारों ने उनकी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ में दुनिया भर में पहुँचाया।
उनके कुछ शेर पेश हैं।
क्या खबर थी कि तेरे बाद ये दिन आयेंगे
आप ही रूठेंगे हम आप ही मन जायेंगे
ज़िन्दगी है तो बहरहाल गुज़र जायेगी
दिल को समझाया था कल आज भी समझायेंगे
सुबह फिर होगी कोई हादिसा याद आएगा
शाम फिर आएगी फिर शाम से घबराएंगे
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कुछ रात ढले होती है आहट दरे दिल पर
कुछ फूल बिखर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ
हर सुबह तुझे जी से भुलाने का है वादा
हर शाम मुकर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ
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कोई गिला कोई शिकवा ज़रा रहे तुमसे
ये आरज़ू है कि इक सिलसिला रहे तुमसे
अब एक दिन की जुदाई भी सह नहीं सकते
जुदा रहे हैं तो बरसों जुदा रहे तुमसे
हर एक शख्स की होती है अपनी मजबूरी
मैं उस जगह हूँ जहाँ फासला रहे तुमसे
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ख्याल आते ही कल शब् तुझे भुलाने का
चिराग बुझ गया जैसे मेरे सिरहाने का
करीब से ये नज़ारे भले नहीं लगते
बहुत दिनों से इरादा है दूर जाने का
मैं और कोई बहाना तलाश कर लूँगा
तू अपने सर न ले इल्ज़ाम दिल दुखाने का