बुत सनम ख़ानों में कहते हैं मुसलमां गये
है ख़ुशी उन को कि काबे के निगहबान गये
मंज़िल-ए-दहर से ऊंटों के हदी ख़वाँ गये
अपनी बग़लों में दबाये हुए क़ुरआन गये
ख़ंदाज़न है कुफ़्र,एहसास तुझे है के नहीं
अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं
ये शिकायत नहीं, हैं उनके खज़ाने मामूर
नहीं महफ़िल में जिन्हें बात भी करने का शऊर
क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर-ओ-क़सूर
और बेचारे मुसलमां को फ़क़त वादा-ए-हूर
अब वो अलताफ़ नहीं, हम पे इनायात नहीं
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं
क्यों मुसलमां में है दौलत-ए-दुनिया नायाब
तेरी क़ुदरत तो है वो जिस की न हद है न हिसाब
तू जो चाहे तो उठे सीना-ए-सहरा से हुबाब
रहरू-ए-दश्त हो सीली ज़दा-ए-मौज-ए-सराब
तान-ए-अग़यार है, रुसवाई है,नादारी है
क्या तेरे नाम पे मरने का इव्ज़ ख़ारी है?
बनी अग़यार की चाहने वाली दुनिया
रह गई अपने लिए एक ख़्याली दुनिया
हम तो रुख़स्त हुए औरों ने सँभाली दुनिया
फिर ना कहना हुई तौहीद से खाली दुनिया
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे
कहीं मुम्किन हैकि साक़ी न रहे, जाम रहे?
तेरी महफ़िल भी गई, चाहने वाले भी गये
शब की आहें भी गईं, सुबह के नाले भी गये
दिल तुझे दे भी गए, अपनी सुलह ले भी गये
आ के बैठे भी न थे कि निकाले भी गए
आए उशाक, गए वादा-ए-फ़र्दा लेकर
अब उन्हें ढूंढ चिराग़-ए-रुख़-ए-ज़ेबा लेकर
दर्द-ए-लैला भी वही,क़ैस का पहलू भी वही
नज्द के दश्त-ओ-जबल में रुम-ए-आहू भी वही
इशक़ का दिल भी वही, ख़सन का जादू भी वही
उम्मत-ए-अहमद-ए-मुर्सल भी वही, तू भी वही
फिर ये आज़ुर्दगी ग़ैर सबब क्या मानी
अपने शैदाओं ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मानी
तुझ को छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी को छोड़ा?
बुतगिरी पेशा किया, बुतशिकनी को छोड़ा?
इश्क़ को, इश्क़ की आशुफ़्ता सिरी को छोड़ा?
रस्म-ए-सलमान ओ अवैस करनी को छोड़ा?
आग तकबीर की सीनों में दबी रखते हैं
ज़िंदगी मसल-ए-बिलाल हब्शी रखते हैं
इश्क़ की ख़ैर वो पहले सी अदा भी न सही
जादा पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी ना सही
मुज़तिरब दिल सिफ़त क़िबलानुमा भी न सही
और पाबंदे-ए-आईन-ए-वफ़ा भी न सही
कभी हम से, कभी ग़ैरों से शनासाई है
बात कहने की नहीं,तू भी तो हरजाई है!
सर-ए-फ़ारान किया दीन को कामिल तू ने
एक इशारे में पज़रों के लिए दिल तू ने
आतिश अंदोज़ किया इश्क़ का हासिल तू ने
फूंक दी गर्मे-ए-रुख़सार से महफ़िल तू ने
आज क्यों सीने हमारे शरर बार नहीं
हम वही सख़्ता सामां हैं, तुझे याद नहीं?
वादी ए नजद में वो शोर-ए-सलासिल न रहा
क़ैस दीवाना-ए-नज़ा-ए-महमिल न रहा
हौसले वो न रहे,हम न रहे, दिल न रहा
घर ये उजड़ा है कि तो रौनक-ए-महफ़िल न रहा
ऐ ख़ुश आं रोज़ कि आई-ओ-बसद नाज़ आई
बेहिजाबाना सूए महफ़िल-ए-मा बाज़ आई
बादाकश ग़ैर हैं गुलशन में लब-ए-जू बैठे
सुनते हैं जाम बकफ़ नग़मा-ए-कोऊ कोऊ बेटे
दूर हंगामा-ए-गुलज़ार से यक सू बैठे
तेरे दीवाने भी हैं मुंतज़र “हू” बैठे
अपने परवानों की फिर ज़ौक़-ए-ख़ुद अफ़रोज़ी दे
बरक-ए-देरीना को फरमान-ए-जिगर सोज़ी दे
क़ौम आवारा अनां ताब है फिर सूए हिजाज़
ले उडा बुलबुल-ए-बेपर को मज़ाक-ए-परवाज़
मुज़्तरिब बाग़ के हर गुंचे में है, बूए नयाज़
तू ज़रा छेड़ तो दे, तिश्ना-ए-मिज़्राब है साज़
नग़मे बेताब हैं तारों से निलकने के लिए
तू और मुज़्तर है इसी आग में जलने के लिए
मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम की आसां करदे
मूर-ए-बेमाया को हमदोश-ए-सुलेमां करदे
जिन्स नायाब-ए-मुहब्बत को फिर अर्ज़ां कर दे
हिंद के दैर नशीनों को मुसलमां कर दे
जूए ख़ूँ मी चकदा अज़ हसरत-ए-देरीना मा
मी तपद नाला-ए-बह नशतर कदा-ए-सीना-ए-मा
बूए गुल ले गई बैरून चमन राज़-ए-चमन
क्या क़ियामत है कि ख़ुद कि ख़ुद फूल हैं ग़म्माज़े चमन!
अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ, टूट गया साज़-ए-चमन
उड़ गए डालियों से ज़मज़मा परदाज़ चमन
एक बुलबुल है कि महवे तरन्नुम है अब तक
इस के सीने में है नग़मों का तलातुम अब तक
कुमरियां शाख़-ए-सनूबर से गुरेज़ां भी हुईं
पत्तियां फूल की झड़ झड़ के परेशां भी हुईं
वो पुरानी रविशें बाग़ की वीरां भी हुईं
डालियां पैरहन-ए-बर्ग से उरियां भी हुईं
कैद-ए-मौसम से तबीयत रही आज़ाद उसकी
काश गुलशन समझता कोई फ़रियाद उस की!
लुत्फ़ मरने में है, न मज़ा जीने में
कुछ मज़ा है तो यही खून-ए-जिगर पीने में
कितने बेताब हैं जौहर मरे आईने में
किस क़दर जल्वए तड़प रहे हैं मरे सीने में
इस गुलिस्तान में मगर देखने वाले ही नहीं
दाग़ जो सीने में रखता हूँ, वो लाले ही नहीं
चाक इस बुलबल-ए-तन्हा की नवा से दिल हों
जागने वाले इसी बाँग-ए-दर्रा से दिल हों
यानी फिर ज़िंदा नए अहद-ए-वफ़ा से दिल हों
फिर ईसी बादा-ए-देरीना के प्यासे दिल हों
अजमी ख़म है तो क्या, मय तो हिजाज़ी है मेरी
नग़मा हिन्दी है तो क्या,लै तो हिजाज़ी है मरी